फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और ‘गुजरात साहित्य अकादमी’ के अध्यक्ष विष्णु पाण्ड्या के बीच कुछ अद्भुत समानता है। 45 वर्षीय विवेक अग्निहोत्री मोदी सरकार के कट्टर समर्थक हैं और विष्णु पाण्ड्या को पद्मश्री की उपाधि नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद 2017 में प्राप्त हुई है। शहरी नक्सली या ‘अर्बन नक्सल’ पद इजाद करने का श्रेय विवेक अग्निहोत्री को है। उसने 1 घंटा 54 मिनट की फिल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ बनाई थी, जो 13 मई 2016 को रिलीज हुई। फिल्म का आरम्भ बस्तर से हुआ था पर फिल्म में ‘कॉलेज कैम्पस’ प्रमुख रहा। 27 मई 2018 को इस फिल्मकार की पुस्तक ‘अर्बन नक्सल : बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ प्रकाशित हुई। इसी तिथि को दक्षिणपंथी विचारधारा के संस्कृति प्रकोष्ठ के कुछ प्रमुख व्यक्ति दिल्ली के भारतीय विद्याभवन में पुस्तक विमोचन के अवसर पर उपस्थित थे। मुख्य अतिथि केन्द्रीय टेक्सटाइल मन्त्री स्मृति ईरानी थीं। पुस्तक प्रकाशन के एक वर्ष पहले विवेक अग्निहोत्री ने ‘स्वराज्य’ पत्रिका के मई 2017 के अंक में एक लेख दो भागों में लिखा था, जिसमें ‘अर्बन नक्सल’ के अर्थ और ‘कंसेप्ट’ को परिभाषित किया गया था। उसने तब भारत में दो प्रकार के बुद्धिजीवियों की बात कही थी- दक्षिणपन्थी सोच विचार के बुद्धिजीवी और ‘अर्बन नक्सल’। ‘अर्बन नक्सल’ इस फिल्मकार लेखक की दृष्टि में अदृश्य शत्रु हैं, जिनमें से कई पकड़े भी गये हैं। उसने इसे भारत की विभाजनकारी शक्ति कहा। ‘ब्रेकिंग इंडिया’ पद को प्रमुखता में लाने का श्रेय राजीव मल्होत्रा को है। 70 वर्षीय राजीव मल्होत्रा की पुस्तक ब्रेकिंग इंडिया 2011 में प्रकाशित हुई थी। ‘अर्बन नक्सल’ ही नहीं ‘लिटरेरी नक्सल’ भी एक राजनीतिक पद है। ऐसे पदों का निर्माण प्रसार बेहद सुनियोजित ढंग से किया जाता है।
विष्णु पाण्ड्या गुजरात साहित्य अकादमी के 13वें अध्यक्ष हैं। गुजरात के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री माधवसिंह सोलंकी के कार्यकाल में गुजरात सरकार द्वारा ‘गुजरात साहित्य अकादमी’ की स्थापना 24 सितम्बर 1981 को हुई। 39 वर्ष पहले स्थापित इस सरकारी साहित्यिक संस्था का उद्देश्य भाषा और साहित्य का विकास है। यह अकादमी गान्धी नगर के सेक्टर 17 में स्थित अभिलेखागार भवन में है। 17 जून 1982 को एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति के साथ इस अकादमी का उद्घाटन हुआ था। अकादमी की सामान्य सभा में गुजरात के शिक्षा सचिव सहित 41 सदस्य हैं। राज्य सरकार गुजराती साहित्यिक समुदाय से 5 सदस्यों का चयन करती है।
अकादमी के पहले अध्यक्ष मोहम्मद मांकड थे और वर्तमान अध्यक्ष विष्णु पाण्ड्या हैं। सामान्य सभा के 41 सदस्य वोट प्रक्रिया से अकादमी का अध्यक्ष चुनते हैं। 2003 से 2015 तक यह अकादमी बिना किसी अध्यक्ष के कार्य करती रही थी। इस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। मुख्यमन्त्री आनन्दीबेन पटेल के समय गुजरात सरकार ने अप्रैल 2015 में गुजराती लेखक एवं सेवानिवृत्त आईएएस भाग्येश झा को बिना किसी चुनाव के अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया था, जिसका गुजराती लेखकों ने काफी विरोध किया था। इस नियुक्ति के विरुद्ध साहित्य अकादमी आन्दोलन आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन के धीरू पारीख और निस्जन भगत जैसे लेखकों को भाग्येश झा और उनके दो समर्थक लेखकों चीनू मोदी और विनोद भट्ट ने ‘तालिबान’ कहा था। उस समय विरोध में कई गुजराती लेखकों ने पुरस्कार लौटाये थे। अकादमी की स्वायत्तता बहाल करने के लिए जनवरी 2020 में विपिन पटेल ने अकादमी द्वारा अपने कहानी-संग्रह पर पुरस्कार लेना अस्वीकार किया।
भाग्येश झा के बाद से विष्णु पाण्ड्या ‘गुजरात साहित्य अकादमी’ के अध्यक्ष हैं। वे अकादमी की मासिक पत्रिका जो प्रत्येक महीने की पांचवी तारीख को प्रकाशित होती है, के सम्पादक भी हैं। इस ‘शब्द सृष्टि’ पत्रिका का सिद्धांत (मोटो) ‘शब्दारव्यज्योति प्रकाशो’ है। ‘शब्द सृष्टि’ पत्रिका का पहला अंक अक्टूबर 1983 में प्रकाशित हुआ था। इस पत्रिका के जून 2021 के अंक में विष्णु पाण्ड्या ने ‘लिटरेरी नक्सल’ पद का प्रयोग किया है। पाण्ड्या पत्रकार, जीवनी-लेखक, कवि, उपन्यासकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में जाने जाते हैं। राजनीति, इतिहास और ऐतिहासिक स्थलों पर उन्होंने कई लेख लिखे हैं। कई गुजराती समाचार पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में वे स्तम्भ लेखक हैं। साप्ताहिक गुजराती पत्र साधना से उन्होंने अपना कैरियर आरम्भ किया और इसके सम्पादक भी बने।
आपातकाल में उन्होंने सेंसरशिप का विरोध किया था और जेल भी गये थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के वे जीवनी लेखक हैं। साहित्य से अधिक सम्बन्ध उनका सत्ता से है। गुजरात से बाहर उनके नाम और काम से बहुत कम लोग परिचित थे। अब वे जून अंक के अपने सम्पादकीय और इंडियन एक्सप्रेस से हुई बातचीत के कारण जाने जा रहे हैं। गुजरात के बाहर उनकी निंदा हो रही है और अपने सम्पादकीय में उन्होंने जो लिखा है उसकी भर्त्सना की जा रही है। वे आर एस एस और इस संगठन के गुजराती मुखपत्र साधना से जुड़े हैं। उनकी चिंता में कविता नहीं, प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की छवि है, जिसे पारुल खक्कर ने ‘शववाहिनी गंगा’ कविता में पूरी तरह नष्ट कर दिया था।
‘शब्द सृष्टि’ पत्रिका के सम्पादकीय में विष्णु पाण्ड्या का ध्यान पारुल खक्कर की कविता पर है। हाल के वर्षों में किसी एक भारतीय कविता को ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई जैसी इस कविता को हुई। इसका मुख्य कारण सच कहने का वह साहस है, जिसका आज कवियों लेखकों में भी बेहद अभाव है। पाण्ड्या ने अपने सम्पादकीय में कविता का उल्लेख नहीं किया है और ‘लिटरेरी नक्सल’ का प्रयोग गुजराती में न कर अंग्रेजी में किया है। पारुल खक्कर की कविता की अपार लोकप्रियता से घबराहट किसे है?
यह कविता प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के अपने गृहराज्य गुजरात में उनके अलोकप्रिय होने का एक उदाहरण भी है। इंडियन एक्सप्रेस को दिये अपने इंटरव्यू में विष्णु पाण्ड्या इसे कविता ही नहीं मानते और इसमें व्यक्त गुस्से को ‘बिना मतलब का’ कहते हैं। कविता में प्रधानमन्त्री को ‘नंगा राजा’ कहा गया है। इस कविता को अराजकता फैलाने वाली कविता पाण्ड्या बताते हैं। उनके अनुसार कविता के प्रशंसक अनुवादक इसे शेयर करने वाले प्रचारक प्रसारक ‘लिटरेरी नक्सल’ हैं।
सम्पादकीय में यह कहा गया है कि उक्त कविता का इस्तेमाल ऐसे तत्वों ने गोली चलाने के लिए कन्धे के रूप में किया है, जिन्होंने एक साजिश शुरू की है, जिनकी प्रतिबद्धता भारत के प्रति नहीं, बल्कि किसी और चीज से है, जो वामपंथी, तथाकथित उदारवादी हैं, जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। ऐसे लोग भारत में जल्दी से हंगामा मचाना चाहते हैं और अराजकता फैलाना चाहते हैं। वे सभी मोर्चों पर सक्रिय हैं और इसी तरह के गन्दे इरादे से साहित्य में कूद पड़े हैं। इन साहित्यिक नक्सलियों का उद्देश्य उन लोगों के एक वर्ग को प्रभावित करना है, जो अपने दुःख और सुख को इससे जोड़ेंगे। विष्णु पाण्ड्या ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता में ‘काव्य का कोई सार’ नहीं देखते और इसे ‘कलम बद्ध करने का उचित तरीका’ नहीं मानते। यह केवल किसी के गुस्से या हताशा को बाहर निकालने के लिए हो सकता है और इसका उदारवादी, मोदी विरोधी, भाजपा विरोधी और संघ विरोधी तत्वों द्वारा दुरुपयोग किया जा रहा है।
पाण्ड्या के इस सम्पादकीय पर विचार किया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक समाज में असहमत होने और विरोध करने का सबको अधिकार है। कवि सत्ता का चाकर नहीं होता। वह हमेशा प्रतिपक्ष की भूमिका में है। पाण्ड्या मोदी, भाजपा, संघ समर्थक हो सकते हैं पर जो इनका समर्थक नहीं है, विरोधी भी है, उसे लिटरेरी नक्सल कहने की बात की भर्त्सना की जानी चाहिए। संघ और भाजपा के विरोध को सामाजिक विघटन बताना हास्यास्पद है। पाण्ड्या न तो बड़े कवि हैं और न कविता के आलोचक।
वे खक्कर के अपने विरोध में व्यक्तिगत द्वेष नहीं मानते पर ‘शव वाहिनी गंगा’ को कविता के रूप में नहीं स्वीकारते हैं। उनके अनुसार अनेक तत्व इसे एक सामाजिक विघटन के लिए हथियार के रूप में उपयोग कर रहे हैं। दुनिया के बड़े-बड़े तानाशाह कविता से डरते और घबराते थे। ‘ऑफेंस द हिन्दू केस’ (2009) के लेखक और ‘राइटर्स इन प्रिजन कमेटी ऑफ इंटरनेशनल’ के प्रमुख सलिल त्रिपाठी ने मई महीने के अन्तिम सप्ताह में पारुल की कविता पर ‘द गार्जियन’ में लिखते हुए ‘सैटेनिक वर्सेज’ (1988) में रुश्दी का यह कथन उद्धृत किया कि कवि का काम अनाम लोगों को नाम देना, धोखेबाजों को चिन्हित करना, पक्ष में खड़े होना, तर्क शुरू करना और दुनिया को एक आकार प्रदान कर उसे सोने से बचाना है।
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‘अर्बन नक्सल’ की तरह ‘लिटरेरी नक्सल’ बेवकूफी से उत्पन्न पद भर नहीं है। ऐसे पदों के निर्माताओं प्रयोक्ताओं का एक विशेष मकसद है। जनता में नक्सलियों को लेकर एक छवि निर्मित है। विरोधी कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों को उसी जमात में शामिल कर एक साथ कई कार्य सम्पन्न होते हैं। भयोत्पत्ति से लेकर समाज में उसकी एक भिन्न छवि निर्मित की जाती है। एक जमात इसमें शामिल है। भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान की है। किस तर्क से ‘शव वाहिनी गंगा’ जैसी कविता के समर्थक लिटरेरी नक्सल हैं ? यह है समझ और इसी समझ के तहत ‘अर्बन नक्सल’ से ‘लिटरेरी नक्सल’ जैसे पद का निर्माण। इसका जितना विरोध हो, कम है।