सिनेमा

पटकथा और कहानी, महमूद की ज़बानी

 

1966 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘प्यार किये जा’ एक रोमांटिक कॉमेडी ड्रामा है। जब तक OTT प्लेटफार्म नहीं थे, इस प्रकार की फिल्में जब-तब दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ करती थी, केबल-काल में भी कई ‘मूवी चैनल्स’ हँसी मज़ाक की फिल्मों को बार-बार दिखाया करते थे जिन्हें देखकर न केवल बच्चे, बूढ़े बल्क़ि युवा भी उत्साह से देखा करते थे। बिना किसी फूहड़ अश्लीलता के ये फिल्में एक स्वस्थ पारिवारिक मनोरंजन की भरपूर ख़ुराक हुआ करती थीं।

2000 के बाद मनोरंजन के क्षेत्र में तेज़ी से बदलाव आया जिसके परिणामस्वरूप हमारी आज की पीढ़ी ऐसी कई क्लासिक फ़िल्मों को देखने से वंचित हो रही है, लेकिन अब तो मोबाइल हाथ में आने से, परिवार के साथ होते हुए भी सब अकेले ही आनंद लेते हैं, वैसे तो आनंद अपना खुद ही का होता है लेकिन आनंद का साझा व्यापार लगभग ख़त्म हो गया है, फ़ारवर्ड में ही हम अपनी इतिश्री समझ लेते हैं। खैर हमारा उद्देश्य अभी फ़िल्म नहीं बल्क़ि ‘प्यार किये जा’ फिल्म का बहुत प्रसिद्ध ‘सीन’ है जो यूट्यूब पर उपलब्ध है।

129 मिनट की फिल्म में 4:16 मिनट का यह सीन न केवल पूरी फ़िल्म पर भारी है बल्कि अब तक के फ़िल्मी इतिहास में भय से उत्पन्न विशुद्ध हास्य का ऐसा कोई दृश्य नहीं है जो इसका मुकाबला करे। आज यह आश्चर्य लग सकता है कि अभिनय और संवाद-अदायगी का जब विश्लेषण करने बैंठे तो यह दृश्य न केवल लगभग आठवीं शताब्दी से भी पूर्व भरत मुनि के रस सिद्धांत ‘विभावानुभावव्यभाविचारीसंयोगाद्र्सनिष्पत्ति’ की कसौटी पर पूर्णतया खरा उतरता है, बल्क़ि मेरी समझ में वर्तमान में यह ‘पटकथा लेखन’ का अति उत्तम व्यवहारिक उदाहरण है।

प्रसिद्ध कथाकार और पटकथा लेखक मनोहर श्याम जोशी जी के अनुसार ‘पटकथा और कुछ नहीं कैमरे से फिल्म के पर्दे पर दिखाई जाने के लिए लिखी गयी कथा है’ यानी जहाँ कहानी लेखक का काम ख़त्म होता है वहीँ से ‘सिनेमाई लेखन’ और निर्माण का कार्य शुरू होता है और इसलिए मैं सिनेमा को साहित्य के विस्तार (एक्सटेंशन) के रूप में समझती हूँ, हालांकि यह भी सही है कि दोनों अलग-अलग विधाएं हैं लेकिन सिनेमा साहित्य की यात्रा करके ही आज इस मंजिल तक पहुंचा है हमारी पहली फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध कथानक राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर ही बनी थी, उसके बाद भी धार्मिक साहित्य पर फ़िल्में बनती रही।

लेकिन समय के साथ केवल उद्द्योग में परिवर्तित होने के कारण तथा सिनेमा को सामाजिक सरोकारों से दूर होने के कारण साहित्यकार इससे दूर ही रहना पसन्द करते हैं इच्छा ज़रूर होती है। लेकिन जैसे कि जोशी जीपटकथा में जिस प्रकार कैमरे को ही लेखनी मानते हैं स्पष्ट हो जाता है सृजनात्मकता का दायरा यहाँ बहुत विस्तार और संभावनाओं से भरा है। फ़िल्मों में पटकथा और संवाद लेखकों मांगको समझते हुए ही हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रमों में भी है जहाँ विद्यार्थियों को पटकथा, संवाद-लेखन समझने के लिए, जिसे अंग्रेजी में स्क्रीनप्ले और स्क्रिप्ट राईटिंग कहा जाता है, पुरानी क्लासिक फिल्मों को देखने की सिफारिश की जाती है।

यूं तो पटकथा को हम ‘पट’ यानी पर्दा और ‘कथा’ यानी परदे पर प्रसारित होने वाली कथा के रूप में जानते ही हैं जिस पर हमें कई सैद्धांतिक पुस्तकें मिल जाती हैं। पटकथा में संवाद और संवादों के बीच होने वाली घटनाओं व दृश्यों का विस्तृत ब्यौरा होता है, पटकथा के लिए कथा का होना जरूरी है, यही कथा पर्दे पर कैमरे के माध्यम से चित्रित की जाती है। कथा कोई साहित्यिक रचना अथवा मूल रूप से स्वयं निर्माता निर्देशक की भी हो सकती है। कथानक को पर्दे पर कैसे फिल्माया जायेगा यहीं से पटकथा लेखन का कार्य आरम्भ होता है जिसके प्रस्तुतीकरण से निर्देशक के सामने दृश्य जीवंत हो जाता है और निर्माता उस पर पैसे लगाने को तैयार होता है।

संवाद पटकथा के बाद लिखे जाते हैं यदि कहानी, पटकथा और संवाद एक ही व्यक्ति के हों तो उन्हें फ़िल्माना सरल होता है दूसरे पटकथा और संवाद जितने बढ़िया होंगे फिल्म के सफल होने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं अन्यथा बड़े-बड़े कलाकरों के साथ बड़े बजट की फ़िल्में भी फ्लॉप हो जाती हैं। प्रसिद्ध हास्य अभिनेताओं महमूद और ओमप्रकाश ने ‘प्यार किये जा’ फ़िल्म में अपने ज़बरदस्त अभिनय के साथ जाने अनजाने ‘पटकथा’ की एक बेहतरीन प्रस्तुति दी है। फ़िल्म में महमूद फिल्म बनाना चाहता जिसके लिए उसे फाईनेंस अपने पिता से चाहिए इसलिए उन्हें अपनी पटकथा सुनाकर फिल्म के हिट होने की गारंटी देना चाहता है और फिर शुरू होता है पटकथा सुनाने का सिलसिला यहाँ क्लिक कर आप सीन का आनंद ले सकते हैं।

पटकथा सीखने वाले विद्यार्थियों को यह सीन अवश्य देखना चाहिए इसके माध्यम से बिना किसी सैद्धांतिकी के भी पटकथा की विशेषताएं उभर कर आती हैं। और समझ आता है कि पटकथा लेखन सामान्य लेखन से किस प्रकार भिन्न हैपटकथा का दृश्य रूपांतरण कुछ इस प्रकार है-

ओमप्रकाश (जो पिता है और निर्माता भी) अरे, तू फिल्म बना रहा है, तेरी कहानी क्या है सुना तो जरा?

महमूद- (जो बेटा है और फ़िल्म में निर्देशक, कैमरामैन, कहानीकार, पटकथा और संवाद लेखक भी है) डैडी, आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं?

ओमप्रकाश- नहीं मैं भी तो देखू तेरी खोपड़ी में क्या है?

महमूद- डैडी, अगर आपको कहानी पसन्द आ गयी तो आप फिल्म बनाने के लिए रुपया देंगे ना?

ओमप्रकाश- कहानी तो सुना! रूपये की बात बाद में कर लेंगे।

(और फिर शुरू होता है कहानी सुनाने का सिलसिला जो मूलत: पटकथा का व्यवहारिक संस्करण है जिसे फ़िल्मी भाषा में ‘टू मिनट स्टोरी’ के नाम से भी जाना जाता है)

महमूद- डैडी, मेरी कहानी बहुत भयानक और डरावनी है (विचित्र-विचित्र डरावनी संगीतमय आवाज़ निकालता है)

बैक ग्राउंड…बैक ग्राउंड में म्यूजिक शुरू होता है, (म्यूजिक की आवाज़े भी अपने मुँह से ही निकालता है) एक डरावना जंगल है जहाँ मछलियाँ घास चार रहीं है, सांप उड़ रहें हैं, अजीब अजीब आवाजें आ रहीं हैं , बिल्ल …कुल अजीब! (फिर तरह तरह की आवाज़े निकलता है, चार अलग-अलग ध्वनियाँ) दूर से कहीं तूफानी हवा, कहीं दूर से चीरती हुई चली आ रही है, चारों और तूफ़ान ही तूफ़ान है (तूफ़ान की आवाज़ें निकालता हैं) और एक साया लम्म…बा साया चला आ रहा है…(उसके चलने की आवाज़ निकालता है) एक चुलैड़ जैसी लड़की, जिसकी छोटी-छोटी बटन जैसी आँखें और एक लम्बी नाक…ऐसा लगता है जैसे जलती हुई चिता से एक मुर्दा चला आ रहा हैएक मुर्दा!

और फिर बिजली कड़की…झरपर्र झरपर्र और तभी ये मोटी मोटी बूंदे बूंदों के गिरने की आवाज़ (चार बार पक्क पक्क पक्क पक्क की आवाज़ निकलता है) और वो साया में मेंढक बन गया फिर (मेंढक की अजीब आवाज़ निकालता है) और वो मेंढक फुदकता-फुदकता दरवाजे के पास पहुंचा और वो दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल गया (हाथ को दरवाज़ा बनाते हुए अभिनय करता है साथ में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ जिसमें कई बरस से तेल नहीं दिया हो) अंदर सन्नाटा है आवाज़ नहीं आ रही (फिर इशारे मेंदोनोंदो तीन बार गर्दन हिलाते हुए) कि एक लड़की, उसके चीखने की आवाज़, वो लड़की आधी चुलैड़ जैसी जिसकी हाथ की जगह टांग है, टांग की जगह हाथ, वो आगे की तरफ आ रही है… आगे की तरफ ..आगे की तरफ़ वो आ रही है, दूर कहीं एक गिद्ध जैसा उल्लू उड़ रहा है (उल्लू की आवाज़ निकालता है)ओमप्रकाश-(डरते हुए)…बस, बस, बस, आगे कहानी न सुना, मेरे दिल में कुछ-कुछ हो रहा है

महमूद- मैंने कहा था, मेरी कहानी कुछ डरावनी है, आप नहीं सुन सकेंगे लेकिन फिर भी सुनिए, क्लैमक्स सुनिए। (पिता ना ना कह रहा है)मैं मर जाऊँगा, मैं नहीं चाहता लोग तुझे यतीम कहे

महमूद-परवाह नहीं, , वो चुलैड़ बड़े बड़े नाखून लेकर आगे की तरफ बढ़ती है वो हँसती है …(महमूद चुलैड़ की तरह हँसता हैं)…वो आगे आकर गला पकड लेती है , गला पकड़ के फिर बोलती है

एक लड़की- डैडी (ये आवाज़ ओमप्रकाश की बेटी की है दोनों डर जाते हैं)

अगर आपने यूट्यूब पर जाकर दृश्य देख लिया तो मैं नहीं समझती, इस लिखित संवादों को पढ़ने की जरूरत है फिर भी मैं थोड़ा सा स्पष्टीकरण देना चाहूँगी। वैसे तो पटकथा के सिद्धांतों को विस्तार से जानने के लिए कई पुस्तकें उपलब्ध हैं लेकिन जहाँ तक व्यवहार की बात है पटकथा लेखन ‘लेखन’ से ज्यादा दृशयांकन के प्रस्तुतीकरण का मामला है क्योंकि कोई भी लिपिबद्ध पटकथा वस्तुत: सुनाने के लिए ही लिखी जाती है जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिसे फ़िल्मी भाषा में ‘टू मिनट स्टोरी’ के रूप में भी जाना जाता है। यहाँ इस सीन में सैद्धांतिक रूप से

  1. प्रस्तावना यानी कथानक (प्लाट) के रूप में है- मेरी कहानी बहुत भयानक और डरावनी है
  2. संघर्ष यानी नायक का प्रतिनायक से संघर्ष के अंतर्गत हम उपरोक्त दृश्य में मछलियों का घास पर चलना, साँपों का उड़ना, चुलैड़ मेंढक की आवाज़ आदि को लेंगे और अंत में
  3. समाधान उपसंहार यानी (क्लाईमेक्स)

हालांकि इस सीन में अंत तक आते-आते सस्पेंस है, जब चुलैड़ गला पकड़कर बोलती है और दोनों बुरी तरह डर कर एक दुसरे से गले लग जाते हैं, क्या वास्तव में कोई चुलैड़ आ गयी जो दर्शकों को आनंद देता है तो फिल्म के हिट होने की गारंटी भी, और शायद आज के ट्रेंड की तरह सीक्वेंस बनाने की प्रेरणा भी। सफल पटकथा के लिए इन त्रिक-बिंदु की समुचित जानकारी अनिवार्य है तभी आपकी लिखी पटकथा पर कोई निर्माता पैसे लगाने को तैयार होगा।

.

Show More

रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x