‘आई लव चिकन’ बनाम लव प्रकृति
पीके फिल्म का यह संवाद आई लव चिकन पर नायक पीके खुलासा करता है यहाँ लोगों की भाषा में बहुत लोचा है लोग कहते तो हैं- आई लव चिकन लेकिन उनका मतलब यह नहीं होता कि वे चिकन से प्यार करते हैं बल्कि उन्हें चिकन खाना अच्छा लगता है। हम धरती वाले भी प्रकृति से बहुत प्यार करतें हैं, फूलों से प्यार करते हैं हम नदियों से प्यार करते हैं झरनों से प्यार करते हैं, हम पहाड़ों पर, नदी-समुद्र किनारे घूमने जाते हैं क्योंकि पहाड़ों, नदियों से से प्यार करते हैं, हम प्रकृति के हर उस स्वरूप से प्यार करते हैं जो हमारे लिए लाभकारी है। हमारे प्यार की परिभाषा ‘आई लव चिकन’ से ही मेल खाती है क्योंकि हमने प्रकृति को खूब प्यार किया और खूब दोहन भी किया। ये कैसा प्यार है, जो बाँध देता है नदियों को? प्यार, पूजा, अर्चना की तमाम हदें तोड़ देता है विसर्जन सामग्री अर्जित कर इतना प्यार लुटाता है कि बेचारी की सांस फूल गई, मुँह से झाग निकल रहे हैं। साँस तो खुद हवा की भी फूली हुई है। नहीं पता, शहर की हवा बीमार है या हम? इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों हैं? पर क्या वास्तव में हम इस परेशानी का कारण नहीं जानते।
कोरोनाकाल, किसी बीमारी के नाम पर काल विभाजन सोचा न था! ‘काल’ ही बनकर आया है कोरोना। मोदी लहर के बाद जो ये कोरोना की जो दूसरी लहर आई है उससे कोई अछूता नहीं, क्या स्वस्थ, क्या कोरोनाग्रस्त सभी एक -सी निराशाजनक मन:स्थिति से गुजर रहें हैं बड़े बूढ़े कहा करते थे ख़ुशी में भले ही किसी के यहाँ न जाओ लेकिन दुःख संकट में तो बैर-भाव भुलाकर भी जाना चाहिए लेकिन आज हालात ये हैं कि अपनों की मृत्यु पर भी कोई किसी के घर नहीं जा रहा। जिस प्रकार ऑक्सीजन के लिए त्राहिमाम त्राहिमाम हो रहा है उससे किसी भी समझदार को तो आश्चर्य नहीं ही होना चाहिए। यह आज की बात तो नहीं है पिछले 10 सालों से हम देख रहे हैं कि प्रदूषण ने किस तरह से धरती के वायुमंडल को खतरे में डाला हुआ है। और इसे खतरे में डाला किसने? हो हल्ला भी हम ही इन मचा रहे हैं।
21 अगस्त वर्ष 2017 को यूट्यूब पर जब कार्बन फिल्म रिलीज हुई थी तो एक पल को लगा था कि यह डराने वाली फिल्म है लेकिन वास्तव में वह डरा नहीं रही थी चेता रही थी सावधान कर रही थी 2067 में पृथ्वी पर ऑक्सीजन की कमी से क्या स्थितियां बनाने वाले हैं? धरती का क्या हाल होने वाला है? आक्सीजन के लिए किस तरह गृह युद्ध होंगे। हम अब तक सुन रहे थे कि पानी के लिए युद्ध होंगे लेकिन हवा ऑक्सीजन …। फिल्म के दृश्य भयंकर परिदृश्य प्रस्तुत करते हैं, जगह-जगह ऑक्सीजन की फैक्ट्री खड़ी हैं और इन फैक्ट्रियों से काला धुआं निकल रहा है और वायुमंडल कार्बन से आच्छादित हो गया है लोग खांस रहे है साँस लेना मुहाल है। पिछले आठ-दस वर्षों से क्या हम दिल्ली में देख नहीं रहे थे, हर वर्ष अस्थमा के मरीज बढ़ते चले जा रहे हैं छोटे-छोटे बच्चे, बूढ़े, जवान शुद्ध हवा के अभाव में अकाल मृत्यु को जा रहे हैं। और आज हम कोरोना को दोष दे रहे हैं।
वास्तव में करोना का कारण कौन है? क्या हम मनुष्य ही कोरोना का कारण नहीं है? फिल्म में मंगल ग्रह से आया एक व्यक्ति कहता है कि यार तुम पृथ्वी वालों ने धरती का जरा ख्याल नहीं रखा जब यह यमुना झाग उबल रही थी तब भी तुम्हारा ध्यान नहीं गया… वास्तव में जब चारों ओर स्मॉग कोहरा फैल रहा था तब हम घरों में दुबक कर बैठ गये सरकार ने छुट्टियाँ कर दी मगर कोई स्थायी इंतजामात न हुए। जबकि 2017 में कोरोनावायरस का निशान नहीं था लेकिन ऑक्सीजन के महत्व को बताने वाली यह फिल्म कहीं ना कहीं हमें सावधान कर रही थी कि इसके पहले दुश्मन हमला बोले हमें सावधान होना चाहिए। शत्रु के रूप में कोरोनावायरस हमला बोल दिया। भारत पर जाने कितने आक्रमणकारियों ने हमले किए और वे जीते भी कारण हमारी भीतरी कमजोरियां पर जैसे ही हमने हमारी कमियों को पहचाना हम नींद से जागे शत्रुओं का डटकर सामना किया।
जिस तरह कार्बन में दिखाया गया है ऑक्सीजन के लिए लाइसेंस लेने होंगे और उसका रेट इतना महंगा है कि वह लक्ज़री हो चुका है। कोरोना ने तो नीम चढ़े करेले का काम किया। आज हम एक-एक सांस के लिए संघर्ष कर रहें हैं, जगह-जगह सिलेंडरों की कालाबाजारी हो रही है लोग हाँफ रहे हैं। फिल्म में सबने ऑक्सीजन के भारी मास्क ढोए हुए हैं, कपड़ों के मास्क तो हमने भी लगा ही लिए हैं, फैशनेबल कपड़े मॉल्स में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं लेकिन हमें ऑक्सीजन के भारी मास्क लगाने के लिए 2067 का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। मनुष्य का मूँह सुरसा के मूँह के जैसे खुलता ही चला जा रहा था उसके भूख तो बढ़ती चली जा रही थी इसलिए प्रकृति ने उसके मुंह पर मास्क चढ़ा दिया और एक-एक साँस के लिए मोहताज कर दिया। ये कैसी हवा चली चारों तरफ…हवा होते हुए भी इंसान हवा को तरस गया, देखते देखते सारा घमंड, एक हलचल में हवा हो गया।
वर्ष दर वर्ष पूरा विश्व धरती का दोहन करता रहा। हम क्यों न समझ पाए कि पृथ्वी कमजोर हो रही है तो हम कैसे मजबूत रह पाएंगे? हमने यह कैसे सोच लिया कि जब-जब पृथ्वी पर अत्याचार होंगे तो भगवान अवतार लेंगे और वह अवतारी सिर्फ मनुष्य का ही भला करेंगे। यह पृथ्वी सिर्फ मनुष्य की नहीं है और जहाँ तक भगवान की बात है तो भगवान अगर है तो वह सिर्फ मनुष्य के लिए नहीं है। हाँ, मनुष्य ने अपने भगवान को मंदिर-मस्जिद तक सीमित जरूर कर दिया, कोरोना काल में तो लगभग कैद ही हो गया मनुष्य का कल्याण करने वाला खुद ही संकट में आ गया। तब भोग कौन लगता होगा? फूलमाला, आरती, पूजा-अर्चना कौन करता होगा? आलोचक रामचंद्र शुक्ल जी कहते हैं कि भगवान और कुछ नहीं एक डरे हुए सताए हुए व्यक्ति की कल्पना है। उसे भी हमने कैद दिया। वेदों में तो प्रकृति ही ईश्वरीय शक्ति रही है और जब प्रकृति का दोहन होगा तो क्या वह आह नहीं करेगी।
फिल्म के आरम्भ में प्रकृति, झरने, पेड़-पौधे हरियाली दिखाई जा रही है उस पर नायक कह रहा है मैंने देखा नहीं मेरी माँ ने भी नहीं देखा बस सुनी सुनाई बातें हैं। यानी हमने पृथ्वी को इतना नोंच खाया कि उसका वास्तविक स्वरूप आज बदल चुका है। नायक के अनुसार जिस वर्ष मैं पैदा हुआ उस वर्ष उसके साथ-साथ लगभग 23000 बालकों का जन्म के साथ ही हृदयाघात हो गया था और इसलिए उन्हें नक़ली दिल लगाये गये। फिल्म कहानी लेखक की यह कल्पना मात्र नहीं है बल्कि एक दूरदर्शी व्यक्ति की तरह वर्तमान स्थितियों को देखते हुए वह भविष्य का स्वरूप देख पा रहा है जैसे महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘कविता का भविष्य’ देख लिया था। आज के संदर्भों में यह कहीं कोई अतिश्योक्ति नहीं लगती।
फिल्म में मनुष्य के पतन के साथ रोबोट का विकास हो चुका है। और रोबोट इंसानों में इस तरह घुल मिल गये हैं कि अंतर कर पाना मुश्किल है। एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी ‘बैटर देन अस’ जिसमें दिखया गया है कि रोबोटस में संवेदनशीलता विकसित हो रही है और मनुष्य की संवेदनशीलता सूखती जा रही है और रोबोट मनुष्य से बेहतर विकल्प के रूप में आ रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब रोबोट श्रमिकों का विलल्प बन जायेंगे फिर क्योंकि मानव में जब मानवता ही नहीं रही तो उस से बेहतर तो रोबोट है।
आज सोशल मीडिया की खबरें और तस्वीरें विचलित कर रही है। ऑक्सीजन के आभाव में एक पत्नी अपने पति के मुंह में अपनी सांसे डालकर उसे जीवन देने की का नाकाम कोशिश कर रही है, कोई अपनी पत्नी को साईकल पर अकेला बैठा कर शमशान की ओर जा रहा है, हर दूसरी पोस्ट में किसी की मृत्यु के लिए नमन श्रद्धांजलि लिखने को विवश हैं, ऑक्सीजन के लिए अपील की जा रही है। जिनके पास पैसा है डर और असुरक्षा के कारण घर में तमाम राशन इकट्ठा कर के बैठे हैं वे सलेंडर को भी दबा कर बैठे हुए हैं कि कहीं हमें करोना न हो जाये तो यह सिलेंडर का काम आएगा उन्हें इस बात की कतई चिंता नहीं कि हॉस्पिटल के बाहर जो साँसों के लिए तड़प रहा है यह सिलेंडर उसकी जान बचा सकता है।
कहाँ थे हम और कहाँ आ गये। 1987 में कुबेर दत्त ने महादेवी वर्मा जी का एक साक्षात्कार लिया था प्रारम्भ में ही वह कहती हैं कि इतना लिखा गया इतना लिखा गया बावजूद इसके मानवता जाने कहाँ खो चुकी है। साहित्यकार का चिन्तन जीवन की जिन चिंताओं से आरम्भ होता है, चिन्तन में ही कैद होकर रह जाता है। अपने बेहतरीन लेखन के बावजूद भी जीवन, समाज और मानवता के प्रति महादेवी जी की ‘चिंता’ वास्तव में हम सबकी चिंता का विषय होना चाहिये। राजनीति पर टिप्पणी करते हुए वे कहतीं हैं। चुनाव में खड़ा होने के लिए 5 लाख चाहिए और उसके लिए उल्टे सीधे काम करेगा और हम देख रहे कि चुनाव पैसों का खेल हो चुका है सत्ता होगी उनकी जिनकी पूँजी होगी एक तरफ पूरा देश तड़प रहा है और ‘चुनाव’ तटस्थ अपना काम कर रहा हैं।
मानवता तो बची नहीं सिर्फ एक मतदाता बचा हुआ है जिसका मत कोई मूल्य नहीं रखता। ‘आई लव चिकन’ की तर्ज पर ‘आई लव माई वोटर्स’ के जुमले फेंके जा जा रहें हैं। और इस चिकन यानी बेचारे वोटर्स को भी नहीं मालूम कि उसका क्या बनेगा। फिलहाल तो वो अपने अपने दड़बों में दुबका बैठा है जब तक मालिक दाना डालता रहेगा चुगता रहेगा जब हलाल होगा तो दूसरा उसके पाप कर्मों का फल समझ कर फिर दाना चुगने लग जायेगा।
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