सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बंगाल का चुनाव
पश्चिम बंगाल में भाजपा ने आगामी विधान सभा चुनावों में जीत के लिए अपनी पूरी ताकत और तमाम संसाधन झोंक दिये हैं। जाहिर है भाजपा के पास न संसाधनों की कमी है न प्रबन्धकों की। ममता को एक साथ कई मोर्चो पर जूझना पड़ रहा है। राजनीतिक मोर्चे पर भाजपा की ताकत और संसाधनों से मुकाबला उनके लिए कठिन चुनौती बन गया है। भाजपा ने आधा दर्जन से ज्यादा केंद्रीय नेताओं और मंत्रियों को बंगाल का जिम्मा सौंप दिया गया है। दूसरी ओर, प्रशासनिक मोर्चे पर भी ममता की मुश्किलें लगातार बढ़ाई गयी हैं।
राज्यपाल जगदीप धनखड़ भी कानून-व्यवस्था समेत विभिन्न मुद्दों पर सरकार पर ताबड़तोड़ हमले में जुटे हैं। यूं तो ममता का पूरा कैरियर चुनौतियों और संघर्ष से भरा रहा है लेकिन अब भाजपा की ओर से मिलने वाली चुनौतियों और पार्टी में लगातार तेज होती बगावत को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक हलकों में यह बात समझ में आने लगी है कि हाल तक सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके ख़िलाफ़ दर्जनों नेता क्यों आवाज़ उठाने लगे हैं? 2011 में ममता बनर्जी ने बंगाल में तीन दशक से भी पुरानी वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंकने के असंभव से दिखने वाले कारनामे को अंजाम दिया था। अब ममता की जमीन सांप्रदायिकता की बिसात पर खिसकती नजर आ रही है। उनकी अपनी कमजोरियाँ तो हैं ही।
यह विडम्बना नहीं तो क्या है कि गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, औरोबिंदो घोष, बंकिमचन्द्र चैटर्जी जैसी महान विभूतियों के जीवन चरित्र की विरासत को अपनी भूमि में समेटे यह धरती आज अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं बल्कि अपनी हिंसक राजनीति के कारण चर्चा में है। बांगला संस्कृति के ये आइकॉन आज भाजपा के चुनावी एजेंडे में शामिल हैं। यह भाजपा की अपनी सुचिंतित रणनीति का हिस्सा है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का पराक्रम भी अब चुनावी औजार के रूप में रिड्यूस कर दिया गया है।
यूं सामान्य तौर पर हिन्दी पट्टी को दक्षिणपंथी राजनीति से जुड़ा हुआ माना जाता है। बंगाली राजनीति को एक दशक पहले तक कम से कम वाम की तरफ झुका हुआ माना जाता था। 1977 में कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के बाद से बड़े पैमाने की सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का न होना, बंगाल की वाम राजनति की एक प्रमुख पहचान रही है। मिसाल के तौर पर इस बात का जिक्र अक्सर किया जाता है कि 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद देश के बाकी हिस्सों के विपरीत राज्य में शांति रही। विभाजन से पहले के रक्तपात के बावजूद, कई लोगों का यह मानना रहा कि बंगाल की धर्मनिरपेक्षता ने इसके इर्द-गिर्द अपराजेयता का एक आभामंडल तैयार करने का काम किया।
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यह मान लिया गया कि बंगाल पर वाम मोर्चे के लंबे और अबाधित शासन (1977-2011) ने किसी ऐसे मंच को उभरने नहीं दिया, जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिक शक्तियां अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर सकती थीं। लेकिन इस उल्लेखनीय इतिहास का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि जमीन पर हिन्दू-मुस्लिम तनाव का अस्तित्व नहीं था। वर्तमान हालात की जड़ों की तलाश 19वीं सदी के बंगाली राष्ट्रवाद के इतिहास में की जा सकती है, जब उपनिवेश विरोधी संघर्ष हिन्दू पुनरुत्थानवादी विचारधाराओं और बंगाली भद्रलोक के राजनीतिक दर्शन के साथ घुलमिल गया। नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने से पहले जमीनी तौर पर बंगाल में ऐसा काफी कम था जिसे हिन्दू दक्षिणपंथ का हौसला बढ़ाने लायक कहा जा सकता हो। उस समय निश्चित तौर पर भाजपा ने यह अनुमान नहीं लगाया होगा कि वह एक ऐसे राज्य में मुख्य विपक्ष हो सकती है, जहाँ वह राजनीतिक बातचीत का भी हिस्सा नहीं है।
फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। 2014 के चुनावों में राज्य में पार्टी को 16.8 प्रतिशत मत मिले। कमजोर हो चुके वाम मोर्चे और सिकुड़ चुकी कांग्रेस और दलबदलुओं की सतत आमद से भाजपा ने स्थानीय चुनावों में अपने लिए जगह बनानी शुरू कर दी। भाजपा और आरएसएस के नेता से बात कीजिए तो वे आपको बताएंगे कि इस घड़ी का इंतजार वे वर्षों से कर रहे थे। वे आपको बताएंगे कि कैसे पिछले पांच सालों में आरएसएस की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई है और स्कूलों की संख्या कई गुना बढ़ गयी है। जहाँ पहले बुनियाद थी, वहाँ महल बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। 2014 से पश्चिम बंगाल की राजनीति में धुव्रीकरण बढ़ा है।
कम्युनिट पार्टी के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे को चुनाव दर चुनाव टीएमसी से हार का मुंह देखना पड़ा। वहीं भाजपा ने खुद को राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में स्थापित किया। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के पास अब सिर्फ उनका वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कोर वोटर आधार ही बचा है जो भाजपा के साथ कभी नहीं जाएगा। ऐसे में भाजपा का अपना प्रदर्शन सुधारने का एकमात्र रास्ता है कि वह खासकर दक्षिण बंगाल में टीएमसी के हिन्दू वोटर के एक हिस्से को अपने साथ ले आए। सुवेंदु अधिकारी जैसे नेता इस काम में भाजपा की मदद कर सकते हैं। जम्मू-कश्मीर और असम के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी है।
2011 जनगणना के मुताबिक, राज्य में 27 फीसदी मुस्लिम आबादी है। मुस्लिम आबादी राज्य में समान रूप से वितरित नहीं है। पहाड़ी और जंगलमहल क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी कम है, वहीं उत्तर, दक्षिण और मध्य बंगाल में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक रहते हैं। मध्य और उत्तर बंगाल में मुर्शिदाबाद (66 फीसदी मुस्लिम) और मालदा (51 फीसदी मुस्लिम) दो मुस्लिम बहुल जिले हैं। वहीं उत्तर बंगाल के उत्तर दिनाजपुर में भी आधी आबादी (49.9 फीसदी) मुस्लिम है। आशंका है कि आने वाले समय में पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेजी से होगा और हिंसा भी देखने को मिल सकती है। यूं राजनीतिक हिंसा राज्य की विशेष पहचान रही है लेकिन अतीत में इसने कभी सांप्रदायिक रंग नहीं लिया। यह बहुत दुखद है।
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वैसे, बंगाल का राजनीतिक इतिहास अगर गौर से देखें, तो पता चलता है कि हिंसा की ये घटनाएं न तो पहली बार हो रही हैं और न ही आखिर बार होंगी। बंगाल में राजनीतिक हिंसा का एक लंबा व रक्तरंजित इतिहास रहा है। बंगाल का राजनीति का एक खास तरह के उग्र रूप से सदैव वास्ता रहा है। क्रांति और जुनून राज्य के राजनीतिक मानस में शामिल है। खुदीराम बोस, नेताजी बोस, स्वतंत्रता आन्दोलन, इसके उदाहरणों से भरा पड़ा है। और जैसा कि आज़ादी के बाद 1960 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन से बंगाल की राजनीति में एक हिंसक मोड़ आया। नक्सलियों ने हिंसा का रास्ता चुना, क्योंकि चुनावों और लोकतंत्र पर उनका भरोसा नहीं था। उस समय राज्य में सत्तासीन कांग्रेस ने, खास कर शहरी इलाकों में, हिंसा को कायम रखने का काम किया और वामपंथी उन दिनों हिंसा झेल रहे थे।
1971 में भारत के सक्रिय सहयोग से पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र देश होकर बांग्लादेश बना। लेकिन इस दौरान एक बार फिर पश्चिम बंगाल को लाखों लोगों को शरण देनी पड़ी। इस बीच 1950 में कूच बिहार राज्य ने भारत में मिलने का फ़ैसला किया और 1955 में फ़्रांसिसी अंत:क्षेत्र चंदननगर भी भारत को सौंप दिया गया। ये दोनों ही पश्चिम बंगाल का हिस्सा बने, बाद में बिहार का कुछ हिस्सा भी इसमें शामिल किया गया। देश के साथ ही बंगाल में भी कांग्रेस की तूती बोलती रही। आजादी के बाद हुए तीन आम चुनावों में कांग्रेस पश्चिम बंगाल में छाई रही, परंतु पश्चिम बंगाल कांग्रेस में आरंभ से ही अनेक महत्वपूर्ण आंतरिक समस्याएं थीं। जहाँ अतुल घोष तथा प्रफुल चंद्र सेन एक ओर थे, वहीं अरुण चंद्र गुहा, सुरेंद्र मोहन बोस और प्रफुल्ल चंद्र घोष दूसरी तरफ थे।
1967 से 1980 के बीच का समय पश्चिम बंगाल के लिए हिंसक नक्सलवादी आन्दोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा। इन संकटों के बीच राज्य में आर्थिक गतिविधियाँ थमी सी रहीं। इस बीच राज्य में राजनीतिक अस्थिरता भी चलती रही। इधर हाल के वर्षों की यदि बात की जाए तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों अनुसार, वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से झड़प की 91 घटनाएं हुईं और 205 लोग हिंसा के शिकार हुए। इससे पहले यानी वर्ष 2015 में राजनीतिक झड़प की कुल 131 घटनाएं दर्ज की गयी थीं और 184 लोग इसके शिकार हुए थे।
वर्ष 2013 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 26 लोगों की हत्या हुई थी, जो किसी भी राज्य से अधिक थी। बंगाल में राजनीतिक झड़पों में बढ़ोतरी के पीछे मुख्य तौर पर तीन वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, विधि-शासन पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और भाजपा का उभार। राजनीतिक विश्लेषक डॉ. विश्वनाथ चक्रवर्ती इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं, ‘बंगाल में उद्योग-धंधे कम हैं जिससे रोजगार के अवसर नहीं बन रहे हैं जबकि जनसंख्या बढ़ रही है। खेती से बहुत फायदा नहीं हो रहा है। ऐसे में बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टी से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों का ठेका मिल सके। स्थानीय स्तर पर होने वाली वसूली भी उनके लिए कमाई का जरिया है। वे चाहते हैं कि उनके करीबी उम्मीदवार किसी भी कीमत पर जीत जाएं। इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े, तो अपनाते हैं। असल में यह उनके लिए आर्थिक लड़ाई है।
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