एक लघु फिल्म के 12 मिनट
सत्यजित रे भारतीय सिनेमा का वो नाम है जिन्होंने हिन्दी सिनेमा जगत को एक रोशनी दिखाई है। इस रोशनी ने दर्शकों से लेकर फिल्मकारों तक को एक नजरिया दिया है कि साधारण से सेट,साज-सज्जा और कम बजट के बावजूद एक असाधारण और अद्भुत कहानी कही जा सकती है। ऐसा सिनेमा बनाया जा सकता है जिसे लोग भुलाये नहीं भूलें। रे की फिल्मों की बुनाई इस कदर लोगों को बाँधती थी कि फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों का भी अपना एक विजन बन जाता था और एक कहानी के कई मायने निकलते थे। सत्यजीत रे के वृहत दृष्टिकोण और हुनर की कायल पूरी दुनिया हुई है। सत्यजीत रे ने अपने फिल्मी सफर में लगभग 36 फिल्में बनाई हैं और उनके दर्शकों और चाहने वालों का दावा है कि उन्होंने एक भी फिल्म ऐसी नही बनाई, जिसे खराब कहा जा सके।
उनकी बनाई लघु फिल्म ‘टू’ को अकादमी अवार्ड ने 2016 में रिस्टोर कर अपने यू ट्यूब चैनल पर अपलोड किया है। इस फिल्म की ज्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन दुनिया भर के फिल्म विशेषज्ञ और आलोचक मानते हैं कि ये उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। ‘टू’ 12 मिनट की एक मूक और ब्लैक एण्ड वाइट फिल्म है। ‘रे’ मूक फिल्मों के प्रशंसक थे और उन्होंने इस दौर को ट्रिब्यूट देने के लिए ‘टू’ बनाई। 1964 में बनी इस फिल्म को एस्सो वर्ल्ड थिएटर’ के बैनर तले बनाया गया था। इस फिल्म का विषय ही इसकी भाषा है। फिल्म का विषय, संगीत, फिल्मांकन और अभिनय इस कदर प्रभावित करता है कि पता ही नही चलता कि फिल्म में संवाद नहीं है। दो छोटे बच्चों की कहानी है जो अलग अलग परिवेश से हैं। बचकानी इर्ष्या की ये कहानी आपको भी अपने आस -पास के बच्चों के व्यवहार की याद दिलाएगी।
फिल्म की शुरुआत होती है एक महलनुमा घर से, जहाँ अभिभावक बाहर जा रहे हैं और अकेला बच्चा अपने घर पर है। उसके पास खिलौनों का अम्बार है। वो अकेला घर पर अपने मनोरंजन के लिए उलटे-सीधे, जोखिम भरे काम करता है तभी उसे बाँसुरी की आवाज सुनाई देती है। अपनी खिड़की से झाँकने पर थोड़ी ही दूर पर उसे एक झोपड़ी के पास बाँसुरी बजाता बच्चा दिखता है। अमीर बच्चे के मन में प्रतियोगिता की भावना जागती है। वो भी एक बेसुरा और ऊँची आवाज़ वाला बाजा ले आता है जिसकी आवाज़ से मीठी बाँसुरी की आवाज़ दब जाती है। फिर तो दोनों के बीच अपने आप को बेहतर साबित करने की होड़ लग जाती है। बाजे की ऊँची आवाज से झोपड़ी वाला बच्चा डरता नही है और एक ढोलक लाकर बजाने और नाचने लगता है।
ढोलक देखकर अमीर बच्चा बैटरी से ढोल बजाने वाला बन्दर ले आता है। एक से बढ़कर एक बेहतरीन खिलौनों को देखकर जब दूसरा बच्चा मायूस हो अपने घर चला जाता है तो बंगले में रहने वाला बच्चा अपनी जीत पर बड़ा खुश होकर अपने घर में शान से इधर-उधर घूमने लगता है तभी अचानक खिड़की से बहार उसे एक पतंग उड़ती दिखती है, जिसे झोपड़ी वाला बच्चा उड़ा रहा है। इस सीन में गजब का सुकून है। गरीब बच्चे की हार के बाद उड़ती पतंग द्वारा अचानक से एक छोटी सी उम्मीद की किरण हर उस आदमी को कनेक्ट करती है जिसके जीवन की धुरी बस उम्मीद और हौसला है। ये खुशी स्क्रीन पर ज्यादा समय नहीं रहती क्योंकि इसका दमन करने के लिए वो लड़का खिलौने वाली बन्दुक ले आता है। कुछ सेकेण्ड के लिए तो लगता है कि गोली बेचारे बच्चे को न लग जाये लेकिन उसका निशाना पतंग पर होता है और कहीं न कहीं बेचारे बच्चे की खुशी पर भी।
इतना सब होने के बाद भी गरीब बच्चा हार नही मानता है और वापस बां बाँसुरी बजाने लगता है। दुनिया की फिक्र छोड़ अपने संगीत में वो लीन हो जाता है। इस तन्मयता को फिल्माने के बाद बंगले के दृश्य को बहुत अद्भुत तरीके से फिल्माया गया है। झोपड़ी वाला बच्चा अब भी खुश है और अपने खिलौने में मस्त है ये बात अमीर बच्चे को निराश करती है। वह असहाय हो थक कर बैठ जाता है और उसके सारे खिलौने एक -एक कर गिरने और बिखरने लग जाते हैं। देखा जाये तो वो महज खिलौनों का गिरना नहीं है, उस बच्चे के अहंकार और ईर्ष्या का भी धराशाई होना है। तमाम सुविधाओं के बावजूद वो लड़का अपने महल में कैद है और अपने अभाव के पैबन्द में भी झोपड़ी वाला लड़का उन्मुक्त है।
अकेलेपन के तेज संगीत पर आजाद संगीत हावी हो जाता है। गरीबी, ईगो, समान अधिकार जैसे विषयों को सिर्फ 12 मिनटों में समेटे ये कहानी दर्शकों को बिना किसी संवाद के एक विश्वास और हौसला देती है। ऐसा माना गया है कि ये फिल्म वियतनाम युद्ध के दौरान बनी है। इस फिल्म में सांकेतिक तौर पर अमेरिका के जुल्मों पर भी निशाना साधा गया है। अमेरिका को अमीर बच्चे के रूप में दिखाया गया है और गरीब बच्चे को वियतनाम के लोगों के तौर पर देखा गया है जिन्हें अपने वजूद, अपनी जिन्दगी के लिए लड़ना था और अन्ततः जीत गरीब बच्चे की होती है। यानि संघर्ष हमेशा जीतता है भले ही इसकी लड़ाई लम्बी चले। इस फिल्म को युद्ध विरोधी माना गया है।
सत्यजित रे सिर्फ एक फिल्मकार ही नही थे बल्कि एक फिल्म संस्थान थे। खुद पटकथा तो लिखते ही थे, कास्टिंग भी खुद ही करते थे। मेकअप,संगीत और एडिटिंग भी खुद ही करते। फिल्म बनाने की प्रक्रिया में 80% उनका ही योगदान रहता था। सत्यजीत रे के काम को बहुत से फिल्म विशेषज्ञों ने चार्ली चैपलिन के काम करने के तरीके की तरह देखा है क्योंकि चार्ली चैपलिन भी अपनी फिल्मों का अधिकतर काम खुद करते थे। सत्यजीत रे फिल्मकार के अलावा कहानीकार, चित्रकार और फिल्म आलोचक भी थे। सत्यजीत रे को बाल–मनोविज्ञान की बड़ी समझ थी। शायद इसलिए भी वे अपनी फिल्म ‘टू’ में दो अलग-अलग परिवेश में पले-बढ़े बच्चों के मनोविज्ञान को बड़ी खूबसूरती से दर्शाने में सफल रहे।
अमर सिनेमा बनाने वाले इस फिल्मकार ने कभी बेहतरीन किताबों के आवरण भी बनाये थे। किसे पता था कि किताबों का कवर बनाने वाला यह शख्स कभी अन्तराष्ट्रीय सिनेमा में न मिटने वाला अपना नाम बनायगा। उनके बेहतरीन किताबों के आवरण में से है – जिम कार्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमायूँ’ और जवाहरलाल नेहरु की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’। महान जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरासोवा ने ‘रे’ के बारे में कहा था, ‘यदि आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी हैं तो इसका मतलब आप दुनिया में बिना सूरज या चाँद देखे रह रहे हैं।’
भारतीय सिनेमा को एक आधुनिक सोच सत्यजित रे ने ही दी। वो अपने समय से आगे सोचते थे या यूँ कह सकते है वो एक मात्र ऐसे फिल्मकार थे जो भविष्य देख सकते थे। उनकी फिल्मों के विषय हर काल या युग के लिए प्रासंगिक हैं। जैसे लघु फिल्म ‘टू’ की कहानी आज की परिस्थिति, आज के बच्चों के मनोविज्ञान को भी दर्शाती है। एक बच्चा अगर बड़े गर्व से अपने दोस्तों को सुनाता है कि मेरे घर नयी कार आई है तो आज के समय में ऐसे भी मासूम बच्चे हैं जो इठला कर कहते हैं मेरे घर में भी अचार है।
चार्ली चैपलिन के बाद सत्यजीत रे को ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविधालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया है। उन्हें भारत रत्न ,दादा साहेब फालके,ऑस्कर और भी कई पुरस्कारों से देश -विदेश में सम्मानित किया गया है। ‘फेलुदा तोपसे’ और ‘प्रो.शंकु जैसे किरदारों की लोकप्रियता ने सत्यजीत रे को भारत का शरलक होम्स बना दिया। उस दौर में भारत के किसी भी लेखक,फ़िल्मकार या साहित्यकार की कृति अन्तराष्ट्रीय स्तर पर इतनी प्रशंसित नहीं हुई थी। उनकी फिल्में धीमी नदी की तरह दर्शकों के मन में बहती है परन्तु दर्शकों के मन में समन्दर जैसे ख्याल छोड़ जाती हैं।