बिहार

जनतान्त्रिक चेतना मंच द्वारा आयोजित मुंगेरीलाल स्मृति  व्याख्यान – चिंटू कुमारी 

 

  • चिंटू कुमारी 

 

जनतान्त्रिक चेतना मंच द्वारा आयोजित मुंगेरीलाल स्मृति  व्याख्यान जिसका विषय ‘सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन’ है में मुझे मुंगेरीलाल आयोग की रिपोर्ट के एक विशेष पहलु – दलित महिला राजनैतिक चेतना और मुंगेरीलाल रिपोर्ट पर बोलने का मौका देने के लिए मै सबसे पहले आयोजकों को तहे दिल से धन्यवाद देना चाहती हूँ| यह सेमिनार एक बहुत ही ज़रूरी समय में हो रहा है| लगभग 49 साल पहले यानी मंडल कमीशन के गठन से भी पहले इस आयोग का गठन 1971 में हुआ और 1979 में इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी| मुंगेरीलाल आयोग ने अपनी दूरदृष्टि का परिचय देते हुए महिलाओं के लिए भी 3% आरक्षण का प्रावधान किया था| इस आयोग की सिफारिशों को लागु करने के लिए तत्कालीन मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर जी को काफी जातिसूचक गलियाँ दी गयी थी| आज आयोग के रिपोर्ट पर बात करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को संवैधानिक संरक्षण के रूप में प्राप्‍त आरक्षण पर हमले की संस्‍थागत कोशिशें शुरू हो गयी हैं। शायद ये फैसला लेना 50 साल पहले की राजनीति के लिए बड़ा कठिन फैसला हुआ होगा फिर भी एक समावेशी समाज का नजरिया लिए हुए इस आयोग ने समाज में महिलाओं  की राजनीतिक भागीदारी को सुनिश्चित करने का एक नजरिया पेश किया| शायद मुंगेरीलाल जी गाँधी जी के आदर्शों को सतह तक पहुचाने के लिए काफी तत्पर थे तभी इस रिपोर्ट में महिलाओं के सशक्तिकरण के पहलुओं पर भी उन्होंने बात की| हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसको तथाकथित रूप से आधुनिक समाज कहा जाता है और समाज में रहने वाले लोगों को सभ्य माना जाता है| लेकिन यदि हम इस तथाकथित सभ्यता और सभ्य समाज का ईमानदारी से मुल्यांकन करे तो आधुनिक सभ्य समाज का मुखौटा उजागर हो जाये| आज महिलाओं के आरक्षण को लेकर किसी  भी पार्टी में कोई खास उत्सुकता नज़र नहीं आती| संसद और विधानसभा में महिलाओं के 33% आरक्षण पर कुंडली मारकर बैठे लोगों को लगता है ही नहीं कि ये कोई आवश्यक मुद्दा है|

आज हमारे देश की मीडिया इस बात को एक बहुत बड़ी उपलब्धि बता रही है कि आजाद भारत में महिलाओं को पहली बार संसद में सबसे ज्यादा 14% सीट मिला हैं| जबकि  महिलाओं की जनसँख्या के अनुपात में उनको मिला प्रतिनिधित्व काफी कम है| आज के समय में हमारे संसद में 545 में से केवल 78 सीट महिलाओं का है| यह आंकड़ा दर्शाता है की हमारे समाज में महिलाओं की जो सामाजिक हालत है उससे इतर उनकी राजनीतिक हालत नहीं है| बिहार में लाखों की संख्या में दलित महिलाएँ बिहार के भावी भविष्य को सवारने के लिए दिन रात एक मिड डे मील वर्कर के रूप में, आशा वर्कर के रूप में काम करती हैं| इन महिलाओं को 1000-1200 प्रतिमाह के हिसाब से मानदेय पर रखा गया है| महिलाओं के श्रम की चोरी का ये जीता-जागता उदाहरण है जो की बिहार पेश कर रहा है| यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि महिलाओं के श्रम का यदि हिसाब किया जायेगा तो मानव इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी| पूरे बिहार में महिलाओं के साथ बलात्कार, शोषण, दमन का  एक कुचक्र चल रहा है जिसमे पुलिस प्रशाशन और सत्ता के लोगों की मिली भगत दिखाई देती है| मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड एक ताज़ा उदहारण हैं जिसमे CBI जाँच में पाया गया की छोटी -छोटी बच्चियों का नरमुंड राजनैतिक पार्टी से ताल्लुक रखने वाले नेता के घर में मिला है| लेकिन मानवता को शर्मशार करने वाली घटनाओं के बावजूद अभी तक इस विषय पर कोई खास ईमादार कोशिश नहीं हुई है|

एक और ताजा उदहारण पूँजीवाद और पितृसत्ता के मिलेजुले खूंखार दमन का है| यह घटना महाराष्ट्र के बीड जिले की है जहाँ लगभग 5000 महिलाओं के गर्भाशय को इसलिए निकाल  दिया गया ताकि माहवारी के कारन गन्ने की कटाई में कोई बाधा उत्पन्न न हो| महिलाओं के साथ हो रहे अमानवीय हिंसा के के खिलाफ शायद ही कोई सफल सुनवाई हो पाए|

यदि दलित समाज की महिलाएँ किसी ऊँची पद पर कठिन हालातों का सामान करते हुए पहुँच भी जाये तो उनकी हत्या हो जाती  है| पायल तडवी की संस्थानिक हत्या हमारे सभ्य समाज का पोल खोल देता है|

उमा चक्रवर्ती लिखती हैं कि हिन्दू धर्मशास्त्रों में जाति और वर्ण पर  आधरित सामाजिक संरचना का विकास किया गया जिसमे कुछ लोगों को ऊँचा कुछ को नीचा तथा  कुछ को पवित्र और कुछ को अपवित्रता कि श्रेणी में डाला गया| उन्होंने सजातिय ( endogamy) विवाह का रिवाज़ शुरू किया और इस तरह से जातिगत भेद को बनाये रखने में उनको सहयोग मिला| इस प्रकार अरेंज मैरिज एक औजार की तरह था जिसके द्वारा जातिगत भेद और स्तरीकरण को कायम रखा जा सकता था| एक ही जाति में विवाह को बढ़ावा दिया गया ताकि वंश परम्परा को बनाये रखा जा सके और इस तरह से ऊँची जाति की समाज में ऊँची मजबूत और प्रभुत्वशाली पहचान भी बनी रहे| और इस तरह से सजातिय विवाह करके महिलाओं  से ये उम्मीद की गयी कि वो पवित्रता और अपवित्रता के नियमों को बनाये रखे और अपने वंश परम्परा को आगे बढ़ाये| इस पूरी कि पूरी व्यवस्था को “ब्राह्मणवादी पितृसत्ता” का नाम दिया गया| इस तरह की जातिवादी व्यवस्था और “ब्राह्मणवादी पितृसत्ता” ने जाति और वर्ण व्यवस्था के सबसे शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों के लाभ के लिए काम किया| यही कारण है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने महिलाओं कि सेक्सुअलिटी (sexuality) को हमेशा से नियंत्रित करके रखा ताकि उनका शुद्ध ब्लड यानि जाति में उनका ऊँचा स्थान और वर्चस्व बना रहे| एक तरह से उन्होंने ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ करके अपनी तथाकथित शुद्धता का आचरण बनाये रखा| (चक्रवर्ती 2009:25-30)|

अतः ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से निजात सिर्फ महिलाओं को आरक्षण मात्र दे देने से नहीं होगा| बल्कि आरक्षण को पूरी तरह से लागु करने के साथ साथ यह भी ज़रूरी है की हमारे समाज में हर एक इंसान को इंसान मानने की संस्कृति शुरू हो| यदि हम चाहते हैं की आरक्षण केवल राजनितिक सत्ता को प्राप्त करने का साधन न बनकर समाजिक और मनाविय मूल्यों की रक्षा करे तो सही माइने में करे हमें संस्थागत वर्ग और जाती आधारित ढांचे को बदलने की ज़रूरत है| ये संरचनात्मक बदलाव केवल उपरी स्टर पर कुछ एक कदम उठाने से नहीं बल्कि एक अमुलचूक सांस्कृतिक बदलाव से होगा| उसके लिए नई तरह की संस्कृति विकसित करनी होगी| और ये संस्कृति हर क्षेत्र में चाहे वो मीडिया हो, सिनेमा हो, साहित्य हो, गाने हो, लोक गीत हो सबमे दिखना पड़ेगा|

बिहार में पंचायत में महिलाओं को आरक्षण तो मिला, इसकी वजह वजह से महिलाये कुछ हद तक जागरूक भी हुई है| लेकिन हमारी दकियानूस संस्कृति जिसमे महिलाओं का अकेले घर से बाहर बिना घूँघट के निकलना अच्छा नहीं माना जाता अत: महिलाओं के नाम पर कार्यभार मुखियापति और सरपंचपति ने संभाला| ऐसे नामकरण को हटाना तभी संभव होगा जब की सच्चे मायने में महिलाओं को अपनी एजेंसी को इस्तेमाल करने मौका मिलेगा नहीं तो महिलाये दोगुना हाशिए पर होकर रह जाएँगी जिसमे उनको घर और बाहर दोनों काम की जिम्मेवारी एक साथ निभाना होगा| यदि हम कहते हैं कि महिलायें चलती फिरती काम करने की मशीन बनकर न रह जाये, यदि हम चाहते हैं की महिलाओं के श्रम का भी हिसाब हो, यदि हम चाहते हैं की महिलायें और खासकर दलित महिलाएँ गुमनाम न रहकर अपनी पहचान बनाये, यदि हम चाहते हैं की देश की आधी आबादी को मुक्ति मिले तो हमें व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन चलाना होगा जो हर तरह की गुलामी की जड़ों को हिलाकर एक मानव मुक्ति का एक नया मोडल तैयार करे|

लेखिका सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं|

सम्पर्क- +919868066058, chintumkumaril@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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