मधयप्रदेश के इंदौर के किसी इलाके का एक मध्यवर्गीय परिवार जिसमें मां,बाप, बेटा बहू के अलावा मामा मामी भी रहने आ गए हैं। ऐसे में उनका बेटा कपिल दुबे और बहू सौम्या चावला दुबे को शादी के दो साल बाद भी घर में रोमांस के लिए दो पल नहीं मिल पा रहे हैं। अब सौम्या खुद का मकान लेने का सोचती है। लेकिन इसी सपने को पूरा करने के चक्कर में कुछ अलग ही रास्ता चुनते हैं और फिर ऐसे करके अपने परिवार से ही अलग होते चले जाते हैं। नौबत तो उनके तलाक तक आ पहुंचती है। लेकिन क्या इन्हें अपना मकान मिल पाया? क्या दोनों में तलाक हो गया?
ऐसी अजब ढंग की मध्यवर्गीय परिवारों को लुभाने वाली कहानियां सत्तर एम एम के पर्दे पर कई बार आई है और उनमें भी निर्देशक लक्ष्मण उतेकर को ऐसी कहानियों को कहने का ढंग बढ़िया तरीके से आता है। इससे पहले उन्होंने ‘लुका छुपी’ और ‘मिमी’ में कमोबेश इसी तरह की कहानी सुनाई, दिखाई थी।
एक आम भारतीय मध्यवर्गीय परिवार की बेसिक सी जरूरतों वाली किंतु बड़ी समस्या को दिखाने की एक बार फिर से उन्होंने अच्छी कोशिश की है। आधे से ज्यादा समय तक मनोरंजन करती हुई फिर कुछ क्षण के लिए गंभीर होकर वापस उसी पटरी पर लौट कर आ जाने वाली यह फिल्म बस तब तक अच्छी लगती है जब तक सिनेमाघर में आप इसे देख रहे हैं।
मध्यमवर्गीय परिवार इससे ज्यादा जुड़ाव भी महसूस कर पाएगा। लेकिन यह फिल्म ‘घर’ और ‘मकान’ का छोटा सा समझे जाने वाला लेकिन बड़ा अंतर भी बताती है। फिल्म के कुछ दृश्यों को देखते हुए लगता है कि उनका मोड़ कुछ दूसरी तरफ होना चाहिए था। रोम-कॉम फिल्म के तौर पर फिल्म लुभाएगी दर्शक वर्ग खास करके अच्छा मनोरंजन करके सीट से उठेगा लेकिन उसमें मैसेज सिर्फ रिश्तों का देखकर वह खुद के सपनों को भी शायद एक बार के लिए छोड़ देगा। इसलिए भी इसे बनाने वालों को या ऐसी फ़िल्में बनाने वालों को इस बात का भी ख्याल किया जाना चाहिए।
कुछ जगह स्क्रिप्ट में हल्कापन नजर आता है तो कुछ दृश्यों में गलतियां भी साफ खोजी, पकड़ी जा सकती हैं। जैसे मामी के रोल में कनु प्रिया पंडित बिस्तर पर मरने वाली है एक मशीन में सांसे चलती नजर आती है तो दूसरी में नहीं। और इसी तरह एक गाने में भी लिप्सिंग अखरती है।
इसी के साथ कुछ एक बेवजह के सीन और फिल्म को लंबा खींचना भी कुछ पल के लिए महसूस कराता है कि कब खत्म होगी फिल्म। लगातार हंसाए रखने और साफ सुथरी पारिवारिक फिल्म देखने वालों को यह जरूर अच्छी लगेगी।
फिल्म में कुछ अतरंगे किरदार भी नजर आते हैं जो इसे रोचक बनाने में मदद करते हैं। संवाद क्लाइमेक्स में ही ठीक हैं बाकी जगह फिल्म की कहानी के अनुरूप ही नज़र आते हैं लेकिन थोड़े से हल्के भी। फिल्म में असली इंदौरीपन इसके किरदारों और बुंदेली भाषा के उम्दा इस्तेमाल के चलते फिट बैठा है।
फिल्म एक जगह भ्रष्टाचार की बात भी करती दिखाई देती है लेकिन उस पर किसी तरह का भाषण नहीं पेलती। एक्टिंग के मामले में विक्की कौशल और सारा अली खान की कैमिस्ट्री जमती है। एक आध जगह देखकर लगता है कि विक्की वाकई में वर्सेटाइल एक्टर है। हां सारा अली खान कुछ एक सीन में अपने किरदार को संभालनेमें चूकी हैं।
‘जरा हटके’ ‘जरा बचके’ के सहायक कलाकार मिलकर फिल्म को लगातार वो रवानगी देने में कामयाब रहे जिसके चलते यह फिल्म हिट फिल्म की कैटेगरी में जा पहुंचेगी। किसी फिल्म में कुछ जाने पहचाने चेहरे हों और साथ में ऐसे उम्दा सहायक कलाकार तो बात जम ही जाती है।
आकाश खुराना, सुष्मिता मुखर्जी, अनुभा फतेहपुरिया, नीरज सूद, राकेश बेदी, शारिब हाशमी, हिमांशु कोहली, सृष्टि रिंदानी, डिंपी मिश्रा, इनामुल हक़ आदि बढ़िया अभिनय करते नजर आये। मामी के रुप में कनुप्रिया पंडित एकदम ही हिट और फिट लगीं हैं। जिस तरह के मामी के किरदार की फिल्म को जरूरत थी उसमें वे खरी उतरी हैं। इसी तरह बीच-बीच में कुछ समय के लिए आने वाले शारिब हाशमी भी जमें।
लोकेशन, कैमरावर्क, कुछ अच्छे गुनगुनाने लायक तोकुछ ठीक से गानों, अच्छे वी एफ एक्स और उम्दा बैकग्राउंड स्कोर के साथ एक बार देखने दिखाने लायक मनोरंजन से भरपूर फिल्म आई है देख आइए।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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