हाँ और ना के बीच

यह और वह नशा

 

सूर्य अस्त, पहाड़ मस्त’इस वाक्य में पर्वतीय जीवन की सच्चाई का एक महत्त्वपूर्ण पहलू छुपा है। अन्य सब बच्चों की तरह पहाड़ के बच्चे भी कंधों पर बस्ते डालकर उछलते-कूदते स्कूल जाते। खेलते-पढ़ते घर के छोटे-मोटे काम करते। न जाने कैसे और कब इन्हें कच्ची उम्र में ही नशे की आदत ने घेर लिया। शायद अपने पिताओं-काकाओं-मामाओं-दादाओं की जिन्दगी से इन्होंने समझ लिया हो कि लड़का होने भर से सख्त कसौटियों पर खरा उतरने की मजबूरी खत्म हो जाती है। उन मासूस शक्लों को देखकर माँ-बाप भी नहीं समझ सके कि यह ढील उन्हें किन अंधेरे रास्तों की ओर ले जा रही है। जब तक यह समझ आये, इतनी देर हो चुकी होती है कि नशे को एक बुरी आदत भर समझने और लड़के को इंसान समझ कर उससे मानवीय गरिमा से बातें कर पाने की समझदारी भी उनमें शेष नहीं रहती।

इन युवाओं पर ‘नशेड़ी’ की चिप्पी चिपका दी जाती है। सबके मन में उनके लिए सिर्फ हिकारत और शिकायतें बचती हैं। इससे कच्ची उम्र के किशोर पहले पढ़ाई से, फिर समाज से, फिर अपनों और अंततः अपने आप से ही बेगाने होकर नशे तक पहुँचाने वालों की मीठी जुबान और नशे की खुमारी को ही जीने का सहारा बना लेते हैं। ऐसे कुछ बच्चों ने क्लास बंक करके जुआ खेलना शुरू किया, फिर धीरे धीरे बड़ों और एक-दूसरे की  देखा-देखी शराब, चरस और स्मैक्स जैसे नशों की गिरफ्त में आ गए। तथाकथित सभ्य समाज तो फिसलन के पहले कदम से ही उनसे कतराने लगा था, परिवार वालों की नजरें बदलने पर उनसे दूर रहने की विवशता भी नशेड़ियों और नशा मुहैया कराने वालों को आपस में अधिकाधिक जोड़ती गयी। वह एक ऐसा समूह बन गया, जिसके सदस्यों का अस्तित्व एक-दूसरे पर आश्रित था। कोई निजी प्रेरणा या किसी आत्मीय जन के विवेकपूर्ण दखल से इस लत से बाहर जाकर घर लौटना, पढ़ाई जारी रखना चाहता भी तो अन्य सदस्य इन चीज़ों को ‘औरताना’ कहकर उपहास उड़ाते और समूह में वापस खींच लेते। समाज की राय को अपनी राय बनाकर जीने की परवरिश तो हमारे समाज में सभी को बालपन से ही मिल जाती है। उनके एक साथ होने से मिलने वाली सामूहिक ताकत के चलते गाँववासी उनसे खौफ से ही सही, मगर ठीक व्यवहार करते तो इससे उन युवाओं का दरकता आत्मसम्मान थोड़ा बहुत बचा रहता।

उनकी इस जीवन-गति का नतीजा यह हुआ कि वे हाई स्कूल तक भी शिक्षा पूरी न कर सके। उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती ताकत को अनर्गल कामों और नए नए नशों में नष्ट करना ही उनके लिए शेष रहा। अनियमित रूप से किसी छोटे मोटे धंधे से वे मामूली कमाई कर लेते। पुरुष होने भर से परंपरा-प्रदत्त विशेषाधिकारों के चलते जीवन की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी होती रहीं। भाई का रौब दिखाकर बहनों से काम कराये ही जा सकते हैं। पिता की वंशबेल बढ़ाने का साधन होना भी तमाम अधिकार दिलाता है। इसलिए घर की दशा थोड़ी भी ठीक हो तो विवाह में बाधा नहीं आती।

इसी तरह के एक समूह के नीरज की शादी सीमा से कर दी गयी थी। वह दसवीं में इनकी क्लासमेट हुआ करती थी। नीरज लगातार फेल होता रहा और अंत में हार कर उसने पढ़ाई छोड़ ही दी। घरवालों ने जमीन का एक टुकड़ा बेच कर उसके लिए दो टैक्सियाँ खरीद दीं। खुद भी कभी गाड़ी चला लेता अन्यथा ड्राइवर के भरोसे उसका काम चलता। स्कूल के उन दिनों में भी वह सीमा को पसंद करता था जो पढ़ने में तेज, आचार-व्यवहार में मधुर होने के कारण सभी की चहेती थी। उस समय वह नीरज जैसे बैक-बैंचर्स के लिए ‘आकाश-कुसुम’ सरीखी थी।

कुछ सालों बाद नीरज ट्रांसपोर्ट के काम से कुछ कमाने जब लगा तो उसने दबी हुई इच्छा माँ के सामने रखी और मनभायी लड़की से उसकी शादी हो गयी। उस समय सीमा बी.एस.सी के अन्तिम वर्ष में थी और आगे पढ़ाई के बाद बॉटनी में पीएचडी करना चाहती थी। मगर घर-परिवार ने ऐसा चक्कर चलाया कि बात पक्की करने के लिए सपरिवार पहुंचे नीरज से वह इतना ही कह सकी कि कम से कम अन्तिम वर्ष की परीक्षा तो देने दें। दोनों परिवारों के बीच रजामंदी हुई कि शादी के बाद सीमा को परीक्षा देने मायके भेजा जाएगा। घर वालों को ही नहीं, नीरज के दोस्तों को भी सीमा जैसी सहचर मिलने पर हैरानी थी और उम्मीद भी कि अब उसके साहचर्य में वह सुधर जाएगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। हमारे समाज में जिसे ‘प्रेम’ कहा जाता है, वह तो पति होने के अधिकार से मिल ही जाता है। उसके लिए पात्रता अर्जित करने के लिए सही दिशा लेने की जरुरत ही कहाँ होती है। कभी-कभी नीरज सुधरने का संकल्प लेता और कुछ दिन नशे और समूह से दूर रहता। चंद दिन नवदम्पत्ति के बड़े खुशनुमा गुज़रते मगर फिर उसकी जिन्दगी पुरानी ढब में आ जाती। सीमा ने उसे सही डगर पर लाने के लिए आगे पढ़ने और काम करने के अपने सब अरमान छोड़ दिए। उसके गर्भवती होने पर भी नशे की गिरफ्त से वह बाहर नहीं आ पाया। सास-बहू ने सपने देखने शुरु किए ही थे कि शायद बच्चे का मुँह देखकर उसे कोई फर्क पड़े कि उन पर कहर टूट पड़ा। पी कर गाड़ी चलाने की आदत नीरज को जिन्दगी से इतना दूर ले गयी जहाँ न पीने की लत बाकी बची, न सुधरने की गुंजाइश।

  नीरज का करीबी मित्र प्रदीप इस हादसे से हतप्रभ रह गया। सीमा उसकी भी बैचमेट रही थी। उसकी और नीरज के माँ-पिता की हालत देखकर उसका कलेजा मुँह को आता था। इस पल से पहले तक वह भी अपने लिए नीरज जैसी जिन्दगी की कामना और उम्मीद करता था। अब उसे सामान्य नज़र आती स्थिति के भीतर का भयानक सत्य दिखने लगा। नतीजतन उससे नशा और जुआ छूट गए। नशा त्यागने से उसे बहुत तकलीफ हुई लेकिन नीरज औऱ सीमा का चेहरा ध्यान आता तो गले के नीचे शराब उतरती ही न थी। समूह के लोगों के ताने और उपहास उसके लिए बेअसर हो गए इसलिए समूह से जोड़े रखने वाली ताकत भी नि:शेष हो गयी।

आघात से कुछ उबरने के बाद उसने छूटी हुई पढ़ाई दोबारा शुरू की। ओपन स्कूल से पहले हाईस्कूल, फिर इंटर पास किया। गलत राह त्यागने और मेहनत की ईमानदार कमाई खाने का मजबूत संकल्प उसके भीतर पैदा हुआ। घर वाले पढ़ाई का खर्चा उठा सकने या उसके लिए किसी काम का बंदोबस्त करने में समर्थ न थे। इसलिए पढ़ाई के साथ वह कौशल प्रशिक्षण की एक सरकारी योजना के तहत प्लंबरिंग का काम भी सीखता था।

पूरी लगन से काम सीखने, कुशल कारीगर बनने के बाद भी ‘नशेड़ी’, ‘उचक्का’, ‘आवारा’ जैसी पहचानों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसे कोई काम न देता, न उस पर भरोसा करता। घरों के भीतर उसका प्रवेश वर्जित रहा। समूह से बिछड़ कर अकेला होने के कारण गाँव भर के लड़कों की आवारगी का दोष उस पर ही मढ़ा जाता। अपनी भड़ास निकालने और कोसने के लिए वह सबको नर्म चारा लगता।

मेहनत की रोटी खाने की कोशिशें फेल होने लगीं तो वक्त के जरूरतमंद नाजुक मोड़ में उसे याद आया कि उसके बालपन में जब उसकी दीदियाँ मेहँदी लगाती थीं, तब वह भी उनकी देखा-देखी अपनी नन्ही कोमल मुट्ठी में मेहंदी का ‘कोन’ भींचकर ऐसे-ऐसे खूबसूरत डिजाइन उकेरता कि वे उसकी कला पर मुग्ध होकर उसी से मेहंदी लगवाने के लिए आपस में होड़ करने लगतीं। पिता-काका लोग गुस्से से आँखें तरेर कर कहते, “दीपू मर्द बन, मर्द। चार लड़कियों के बाद पैदा होने के कारण तू भी लड़की होता जा रहा।”

प्रदीप को लगा कि शायद उसका यही हुनर उसे और उसके माँ-बाप को रोटी दे सके। मेहँदी का ‘कोन’ लेकर उसने नजदीकी गाँव के बाजार के एक छोटे से कोने को अपनी कर्मस्थली बना लिया और अपने सामने फैली हथेलियों में खूबसूरत बेल-बूटे बनाने लगा। विवाह, तीज-त्योहार आदि त्योहारों से धड़कते उत्सवधर्मिता वाले जन-जीवन में यह काम चल पड़ा और वह घर पैसे भेजने के साथ अपना कोई काम शुरू करने के लिए भी धन जोड़ने लगा। प्रदीप नाम के इस किरदार की यह गहरी त्रासदी में घुली सच्ची कहानी एक सुखद अंत के साथ पूरी हो सकती होती अगर मैंने उसके माँ-बाप को माथा पीटते हुए यह कहते न सुना होता कि “खानदान की नाक कटा डाली इस मुए दीपू ने। इससे तो पैदा ही न हुआ होता या इसी गाँव में नशेड़ी बन के ही पड़ा रहता, कम से कम लड़कियों जैसी हरकत तो न करता

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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