थप्पड़ की गूँज
अनुभव सुशीला सिन्हा निर्देशित ‘थप्पड़’ मूवी देख रही थी। सिनेमा मैं अक्सर अकेले ही देखती हूँ। मगर आज ख्यालों में एक प्यारा सा दोस्त साथ चला आया। आधे तक तो मैं मूवी के साथ चली फिर मेरे दिमाग में सुशील ही छाया रहा। परदे पर तापसी पन्नू के गाल पर पड़े थप्पड़ से मेरे भीतर भी कुछ चटक गया था? या तापसी जिस आत्मविश्वास के साथ अपने को कसने वाले शिकंजों को समझ रही थी, उन्हें जिस ईमानदारी से एड्रेस कर रही थी। उस सच्चाई के ताप का असर मुझ पर था कि यह खुद की किरचों को बटोर कर अपना आपा अर्जित कर लेगी तो सुशील भी कर लेगा? फिल्म में नायक अन्त में अलग रहने की नायिका की इच्छा का सहर्ष सम्मान ही नहीं करता बल्कि सुविधाएँ छोड़ कर शून्य से अपनी जिन्दगी शुरू करने का निर्णय लेते हुए नायिका से कहता है कि इस बार मैं तुम्हें अर्न करूँगा। नायिका की सच्चाई और संवेदनशीलता उसके मन में यह बोध जगाती है कि वह उसे आसानी से मिल गयी थी, इसलिए कद्र नहीं कर पाया। अब उसे पाने की पात्रता अर्जित करेगा। उसके काबिल बनेगा।
सुशील के वजूद को जिनके प्रहार ने झकझोरा क्या वे कभी इस बोध तक पहुँच सकेंगे कि उन्होंने उसे उसकी सही जगह नहीं दी? उनकी अपनी पात्रता में ही कमी थी? अपनी गलत कसौटियों से हम ही इतनी बड़ी आबादी के तन-मन को लुहलहुहान कर के रखते हैं। सुशील प्रतिष्ठित सॉफ्टवेयर कम्पनी में कार्यरत स्वस्थ, सुंदर, हँसमुख युवक है। खूब लगन से काम करता है। अवकाश के समय में टेनिस, बैडमिंटन आदि खेलते हुए भी उसकी स्फूर्ति और खेल भावना देखते बनती है। हार-जीत, ऊँच-नीच की तंग कोटियों से उसकी चेतना मुक्त है। मुझे उसका साथ बहुत पसंद है। उसके साथ होने भर से मेरे माथे की सलवटें ढीली पड़ जाती हैं।
पिछली शुक्रवार की शाम को उसके ऑफिस समय के बाद उसके साथ बैडमिंटन खेलने गयी तो उसका चेहरा उतरा हुआ लगा। सोचा शायद काम ज्यादा रहा हो। खेलने से जो पॉजिटिव हार्मोन्स निकलते हैं, वो खुद ही सब ठीक कर देंगे। 15 ही मिनट खेलते हुए गुजरे होंगे कि कॉक बीच रेखा पर गिरी और मुझे लगा कि उसके पाले में है। आज हमने नेट नहीं बाँधा था। उसकी सुस्त चाल को देख कर मुझे भी मन नहीं किया कि उसे असुविधा दूँ। उसने तीखी आवाज में कहा, “हमेशा तुम्हें ही जीतना है? कॉक हो या गेंद, हमारे पाले में हो या तुम्हारे, जीतना तो तुम्हें ही होता है। तो खेलते क्यों हो? या हमारे साथ क्यों खेलते हो?” इतने सारे वाक्य तो सुशील तभी बोल सकता है जब कोई काम की बात हो रही हो या निर्मल परिहास की। मैं हक्की-बक्की रह गयी। उसकी बात में ये ‘हम’ कौन हैं, मुझे जानना था। मगर यह मैं निश्चयपूर्वक जानती थी कि ‘तुम’ में मैं शामिल नहीं हूँ।
ये स्वर जहाँ से आया है, वहीं ‘तुम’ लोग हैं। पर उस वक्त मैं चुप ही रही। खेलना बन्द करके हम पास रखी कुर्सियों में चुपचाप बैठ गए। चलने के लिए भी मैंने नहीं कहा क्योंकि जाना हमें एक ही तरफ था। मेरे पास न कार थी और न मुझे चलानी आती है। इतने लम्बे सम्बन्धों में जिसे पहली बार आवेश में देखा हो, वह इस स्थिति में गाड़ी चलाए, यह ठीक नहीं लगा। बिना मामला समझे बोला कुछ जा नहीं सकता था। शांत बैठ कर इंतजार ही कर सकती थी कि शायद वह कुछ कहना चाहे। काफी समय ऐसे चुपचाप निकलने के बाद उसने चाय पीने के लिए पूछा तो थोड़ी राहत मिली कि वह शायद कुछ ठीक है। मैं चुपचाप उसके पीछे कैंटीन की ओर चल दी। अपनी आदत के विरूद्ध वह कोने की थोड़ी सी अंधेरी वाली टेबल पर जा कर बैठा। थोड़ी देर ठिठकी खड़ी रही। कभी-कभी खिलंदड़े ढंग से मेरे लिए कुर्सी बाहर निकाल कर कहता था कि “विजेता टीम को पराजित टीम की ओर से स्पेशल ट्रीटमेंट।”
उसके अंग-अंग से उसकी खुशमिजाजी तो हमेशा ही टपकती थी। मगर मेरे जीतने पर अतिरिक्त जिंदादिली स्वाभाविक ढंग से फूटती ही होगी क्योंकि वह जानता था कि लड़की होने के कारण बचपन से मैंने कुछ खेला नहीं है। कच्ची खिलाड़ी होने के कारण मेरे भाई और दोस्त मेरे साथ खेलते नहीं हैं। उसकी पूरी कोशिश रहती थी कि मैं अपनी किसी ग्रंथि के कारण खेलना न छोड़ दूँ। महीनों में एक बार सही, पर जीत मेरी वास्तविक होती थी। इतना बेईमान नहीं था वह कि जबरदस्ती हारता। वैसे भी बराबरी का भाव उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था। दया न ले सकता है न दे सकता है। ये सब सोचते हुए मैं खड़ी रह गयी। उसने बैठने के लिए नहीं कहा तो खुद कुरसी खींच कर बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयी।
थोड़ी देर में उसने पूछा कि “क्या मेरी क्षमता औरों से कम है? दो साल से पूरी मेहनत से जो काम कर रहा हूँ। उसका प्रोजेक्ट लीडर फिर किसी और को बना दिया गया। अमित ने मेरे ही दिशानिर्देश में काम सीखा और अब मुझे उसे रिपोर्ट करके उसके निर्देशन में काम करना होगा। पहले भी एकाध बार ऐसा हुआ पर तब मुझे लगा कि जो लोग कम्पनी में इतने सालों से काम कर रहे हैं, वे मुझसे बेहतर जानते हैं कि कब कौनसा काम किससे करवाना है। हमारी पहुँच छोटे से प्रोजेक्ट तक है। वे लोग ऊपर बैठ कर सब कुछ एक साथ देख सकते हैं। उनकी दृष्टि में सबकी बेहतरी होगी। अब जब तीसरी बार यह हुआ तो मेरा माथा ठनका और मैं बॉस से कारण पूछने चला गया। हमेशा की तरह, हर किसी की तरह बॉस ने आमंत्रण देती हुई मीठी आवाज में बिठाया, चाय पिलाई, हाल-चाल पूछे।”
थोड़ी देर शांत हो कर अपने में डूबा सा रहा। चाय रखते हुए गोपाल ने आवाज लगाई तो अचानक बाहर आ कर धीमी सी डूबी-डूबी सी आवाज में बोला “सब कितनी मीठी आवाज में बोलते हैं। कोई सलवट, कोई भेदभाव नहीं होता आवाज में। सामने वाले के लिए आदर ही आदर..।” फिर अचानक पूछ बैठा कि “तुम्हें कुछ पता है कि इतनी मधुरता, इतना आमंत्रण लाते कहाँ से हैं लोग अपनी आवाज में?” उसके सवाल का जवाब तो मुझे क्या पता होता, अभी तक तो सवाल भी ठीक से नहीं समझ पाई थी। पर उसकी आवाज में रोज सी मिठास नहीं थी। मेरी आँखों में नजरें टिका कर आगे बोला “तुम्हें मेरी जाति पता है?” मैं गुस्से से बोल पड़ी कि यह बकवास करने बुलाया था तुमने या चाय पीने दोगे? हल्की व्यंग्यात्मक आवाज में बोला कि “इतना कड़ुवा क्या बोल रही हो, तुम्हें नहीं आता मीठा-मीठा बोलना……ऐसा मीठा कि जिन्दगी भर यहीं चिपका रह जाऊँ चाशनी में…हमें चाशनी से जहाँ का तहाँ चिपका कर ये लोग ही सारी उड़ान भरते रहेंगे। हम संविधान को गीता समझ कर श्लोक पढ़ते रहेंगे कि संविधान ने सबको बराबर अधिकार दिए हैं। सबके पंख बराबर हैं। हमने तो भूला दिया था वह अतीत….
तुम भी बचपन में अपने भाइयों के साथ वो सब खेल खेली हो जिसमें तोते जैसे हरे रंग का एक टिड्डा होता था, उसके पंख धागे से बाँध देते थे? या वो वाला जब गलती से चिड़िया कमरे में घुस जाए तो खिड़की-दरवाजे सब बन्द कर के बाहर निकलने की उसकी बेचैनी देखते रहो या फिर बॉयलॉजी के प्रैक्टिकल में बेहोश होने से पहले ही मेढ़क की चीरफाड़……छोड़ो ये बातें। ये तो बचपन की बातें हैं। अब तो हम बड़े हो गए हैं। बड़ों की बातें करते हैं। तुम भी बोलो बॉस के जैसे मीठा, बॉस के बॉस सा मीठा, सीईओ जैसा मीठा, मंत्री जैसा…” वह बोलते जा रहा था, बोलते जा रहा था। अचानक अपना कप मेरे सामने रख कर फट पड़ा। लो, तुम भी पिलाओ मुझे बॉस की तरह अपने हाथ से बना कर शिष्ट अंदाज में चाय। जब चाय पी लूंगा। तब उससे भी मीठी आवाज में कहना कि देखो अमित अपनी मेहनत से यहाँ तक आया है। उसे इंजीनियरिंग में मेरिट के दम पर प्रवेश मिला था। तुम में और उसमें कुछ तो फर्क होगा ही न?” इतनी मधुर मुस्कान के साथ उन्होंने ये सब बात कही कि मैं उस वक्त प्रतिवाद भी नहीं कर पाया। “मेरी जो मेरिट है उसके बदले तो ये शिष्टाचार ही मिलेगा न। ये राख फाँके हम बैठ कर?”
“वे इतनी निर्दोष शिष्टता के साथ ये सब न कहते तो कम से कम मैं उनकी बात का जवाब तो दे कर आता। अब कल तक का इंतजार करना पड़ेगा। हालांकि मैंने रिजर्वेशन का कोई लाभ लिया नहीं है। हमें घर में समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व को मंत्रों की तरह पढ़ाया गया था। हमने संविधान के साथ लोकतंत्र और बराबरी को आया हुआ मान लिया था। अपनी जाति याद ही नहीं रही, न तुम्हारी पता है, न अमित की न बॉस की। उन सबको मेरी पता थी, यह आज ही पता चला। इस नए सच का करना क्या है, अभी तो यह भी नहीं पता। पर अब चाशनी से चिपकना नहीं है, सच से आँखें मिलानी हैं और प्रतिरोध के…..” मेरे कानों में सुशील के, तापसी पन्नू के, पता नहीं किस-किस के शब्द गड्ड-मड्ड हुए जा रहे हैं। मैं चीख कर अनुभव सिन्हा से कहना चाहती हूँ कि न मौका देखा न वक्त, झट से शान से बिछी कार्पेट उठा दी। आँख-नाक-कान सबमें धूल घुस गयी है। सजे-धजे मॉल के पीवीआर के सोफों में बैठकर धूल फाँकू मैं?
.