मुद्दा

शाकाहार बनाम मांसाहार का बवंडर

 

खानपान की संस्कृति में शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस में बवंडर हो गया है। दरअसल, एक वह लोग हैं जो शाकाहार ही नहीं उसके आगे वीगन हो चुके हैं। जीव दया के प्रबल समर्थक। वह मांसाहार नहीं करते। जैन लोग तो अंकुरित चना तक नहीं खाते।

एक वह हैं जो मांसाहारी हैं। इनमें सब कसाई ही नहीं हैं। अधिकांश मांस क्रय करते हैं या किसी माध्यम से प्राप्त करते हैं। वह जीव हत्या आदि पर विचार नहीं करते। उन्हें खाना अच्छा लगता है और वह खाते हैं। वह कहते हैं कि खानपान में मांसाहार पीढ़ियों से चला आ रहा है। वह कहते हैं कि समूचे यूरोप, अरब और चीन में मांसाहार का खपत बहुत है तो क्या वह देश और वहां के लोग कमजोर हैं… आदि-आदि।

यहां तक तो ठीक है। अब इन वर्गों में ग़ज़ब का विरोधाभास भी है। जीव दया के अनेक उपासक लोग भी भयंकर किस्म के मानवद्रोही निकल आते हैं। वह अपने तर्कजाल और “मैं-मैं-मैं…” के श्रेष्ठता बोध में खतरनाक किस्म के नफरती भी होते जाते हैं। वह जीव दया की बात करते हैं लेकिन अपने पास-पड़ोस एवं अपने सगे-संबंधियों की वेदना, दुःख, पीड़ा आदि से कोई सरोकार नहीं रखते। परम असामाजिक। विद्वता के मद में चूर एवं एकाकीपन के शिकार होते हैं। जो जैनी लोग अंकुरित चना तक नहीं खाते, वह लड़की पैदा होने पर भ्रूण हत्या करा देते हैं। इस श्रेणी के लोगों में शाकाहार का आग्रह इतना कटु और हिंसक प्रकृति का हो जाता है कि यह अपनी प्रकृति में मांसाहारी ही हो जाते हैं।

वहीं तमाम मांसाहारी मनुष्य, मांसाहार के वक्त जीव दया की बात पर विचार तक नहीं करते, बस भोग एवं स्वाद को सर्वोपरि मानते हैं और उन्हीं में से अधिकांश आश्चर्यजनक रूप से जनपक्षधर, परहितकारी और सामाजिक मनुष्य होते हैं। सुख-दुःख में अपने को विलीन कर देते हैं। वह तालाब, पोखरे, पेड़ बचाते हैं। जरूरतमंदों की मदद करते हैं। कई तो जनहितकारी कार्यों के पीछे घर फूंक कर तमाशा देखते हैं। हालांकि, इसका मतलब यह भी नहीं कि सभी मांसाहारी श्रेष्ठ और उत्तम आचरण वाले हैं। सभी परहितकारी हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ख़ुद एक वक्त के बाद पूरी तरह शाकाहारी हो गए। 2 अक्टूबर 2019 को इंडिया टुडे वेबपोर्टल पर प्रकाशित ‘गांधी जयंतीः आहार से उनके प्रयोग‘ नामक आलेख में इतिहास के प्रोफ़ेसर निको स्लेट कार्नेगी ने लिखा है, गांधी का जन्म शाकाहारी परिवार में हुआ था। युवा के रूप में, उनका मानना था कि अंग्रेजों को मांस खाने के कारण ही भारत पर विजय प्राप्त करने की शक्ति मिली थी. अगर उन्हें मजबूत होना है तो उन्हें भी मांस खाना होगा। चुपके से, एक दिन उन्होंने बकरे के मांस के कुछ टुकड़े खाए थे। वह एक दु:स्वप्न जैसा था। बाद में उस बात को याद करते हुए उन्होंने कहा था, ”जब भी मुझे नींद का झोंका आता, ऐसा लगता जैसे जीवित बकरा मेरे अंदर मिमिया रहा था, और मैं पश्चाताप से भर उठता।”

फिलहाल सुशोभित की किताब ‘मैं वीगन क्यों हूं’ से शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस बवंडर में तब्दील हो चुकी है। बवंडर दो वजहों से है। एक तो यह कि सुशोभित सांप्रदायिक चेतना से संपृक्त लेखक हैं। वह पूर्व में मुस्लिम धर्म के लिए कई खराब टिप्पणियां कर चुके हैं। यह भी कि यह पुस्तक बकरीद के समय आई। दूसरा विरोध इस वजह से है कि खानपान को लेकर ताकझाकी, लानत-मलानत ठीक नहीं। इस बहस में सुशोभित को लेकर कथाकार चंदन पांडेय ने अपने फेसबुक पोस्ट में बड़ी तीखी टिप्पणियां दर्ज़ की हैं। उन्होंने लिखा, उसकी कोई नई किताब आई है। शाकाहार से संबंधित। वह भी ठीक बक़रीद से पहले। इसका मतलब था कि सिर्फ़ किताब बेचने के मक़सद से नहीं बल्कि एक पूरे प्रॉपगैंडा के तहत उस किताब को इस ख़ास मौक़े पर लेकर आए। शाकाहार का प्रवर्तन तो पूरे वर्ष हो सकता है। ये कौन लोग हैं जो सिर्फ़ इस त्योहार के मौक़े पर शाकाहार का माला जपते हैं। और ख़ासा भद्दी भाषा में जपते हैं। सम्भव है कि वह किसी और के जरिये अपनी यह इच्छा पूरी करे। प्रकाशक को भी टाइमिंग का ध्यान तो रहा ही होगा और न रहा हो तो रखना चाहिए था। ये बराबर की भागीदारी कही जाएगी।… इसलिए मैंने तय किया कि किसी इस्लामोफ़ॉबिक वजहों से संचालित सवालों का जवाब नहीं देना है। जवाब देना कई बार उसे वैलिडेट करना है। उसे स्थापित करना है। अपनी सारी सदाशयता के साथ कहूँ तब भी उसके लेखन से कहीं नहीं लगता कि वह सभी धर्मों का आलोचक है जैसा वह दावा करता है।”

इसका जवाब देते हुए सुशोभित ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा, “वीगनिज़्म और एनिमल-राइट्स पर लिखी किताब कब ‘इस्लाम’ के प्रश्न से जा जुड़ी, समझ नहीं आया। इस्लाम का इससे कोई लेना-देना नहीं है। पूरी दुनिया की तरह इस्लाम भी ‘एनिमल-एब्यूज़र’ है। यक़ीनन वह ऐसा करने वाला अकेला नहीं है, और न ही अकेले उसी पर प्रश्न उठाए गए हैं। मैं ‘एथीस्ट’ हूँ, और आज कल का नहीं, किशोरावस्था से ही संगठित धर्मों के प्रति मुझमें वितृष्णा है।… मैंने इसी फ़ेसबुक पर हिन्दू-धर्म की कुरीतियों पर बहुत लिखा है। मालूम होता है वह सारा लेखन लिबरल-कम्युनिटी के द्वारा नज़रंदाज़ कर दिया गया है, मानो उन्हें उससे कोई वास्ता न हो और उन्हें केवल इस्लाम-विरोधी इबारतें ही मोटे अक्षरों में दिखलाई देती हों।

मैंने यहाँ पर ‘हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम् का छल’, ‘सीता का परित्याग’, ‘विवाह-संस्कार’, ‘कन्यादान’, ‘घूँघट’, ‘पत्नी द्वारा पति के पैर छूने की कुप्रथा’, ‘राष्ट्रवाद में निहित जातीय गौरव’, ‘आर्य जाति का दम्भ’, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ आदि पर अनेक लेख लिखे हैं। इसी क्रम में मैंने इस्लाम में निहित ‘संरक्षणवाद’, ‘फिरकापरस्ती’, उनका ‘अलगाववाद’, ‘बुर्क़ा-हिज़ाब’, ‘जानवरों की क़ुर्बानी’ आदि मसलों पर लेख लिखे हैं। पहले वाली शर्त (हिन्दू धर्म में निहित बुराइयों की आलोचना) पूरी करने के बाद मुझे स्वत: ही यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि मैं उसी बल से इस्लाम की बुराइयों की भी आलोचना करूँ, क्योंकि तब मैं हिन्दुत्व के पर्सपेक्टिव से वह आलोचना नहीं कर रहा होता, एथीस्ट के पर्सपेक्टिव से वह आलोचना कर रहा होता हूँ।… हम वीगन लोगों के मन में एक सवाल हमेशा रहता है कि आदमी और जानवर की जान की क़ीमत में इतना फ़र्क़ क्यों समझा जाता है? मेरी किताब में एक चैप्टर इसी पर है। क्या कारण है कि करोड़ों जानवरों के क़त्लेआम के बाद अगर एक प्राकृतिक-हादसे में कुछ सौ मनुष्यों की मृत्यु होती है तो इस पर हायतौबा मच जाती है, जबकि मनुष्यों की मृत्यु मनुष्यों के ही द्वारा रची गई या चुनी गई परिस्थितियों में हुई होती है, उन जानवरों के उलट जिनका कि उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ क़त्ल किया गया था।”

अपनी किताब को लेकर सुशोभित ने लिखा है, “यह पुस्तक पूरे बल से कहती है कि मांसाहार या शाकाहार का प्रश्न खानपान या जीवन-शैली का नहीं, बल्कि जीवहत्या या जीवदया का प्रश्न है!” कोई भी ऐसा नैतिक, न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ व्यक्ति नहीं हो सकता, जो जीवहत्या को जीवदया से अधिक महत्त्व देता हो। जीवदया इस परिप्रेक्ष्य में हमेशा नैतिक रूप से बाध्यकारी होगी, जैसे संविधान के नियम सभी पर समान रूप से उनकी रुचि-अरुचि के बावजूद लागू होते हैं।”

शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस में शामिल होते हुए जंगल कथा के लेखक के रूप में मशहूर कबीर संजय लिखते हैं, होमो सेपियंस के लिए मीट खाना कोई गुनाह नहीं है। हां, अगर भैंस मीट खाती तो जरूर गुनाह होता। हिरण अगर किसी का शिकार करने लगते तो जरूर उलटबांसी होती। लेकिन, बिल्लियों को तो कुदरत ने मांस खाने के लिए ही बनाया है।… हम होमो सेपियंस भी सर्वाहारी रहे हैं। बल्कि, यह ध्यान देने की बात है कि होमो सेपियंस से भी एक श्रेणी पहले यानी ग्रेट एप भी सर्वाहारी होते हैं। ग्रेट ऐप हम इंसानों के सबसे ज्यादा करीबी रिश्तेदार हैं। ग्रेट एप यानी ओरांग उटान, चिंपैंजी, गिब्बन, बोनोबो, गुरिल्ला आदि के भोजन का एक हिस्सा एनीमल प्रोटीन का जरूर होता है। ये सभी मुख्य तौर पर फल और शाक-पात खाते हैं। लेकिन, भोजन का कुछ हिस्सा कीटों, अंडों व छोटे जीवों आदि का होता है। इनमें से चिंपैंजी तो ऐसे ग्रेट ऐप होते हैं जो कि समूह में शिकार भी करते हैं। हालांकि, अक्सर ऐसा नहीं होता है। पर वे कुछ नियमित अंतराल पर शिकार करते हैं और एनीमल प्रोटीन की अपनी जरूरतें पूरी करते हैं।”

युवा अध्येता रमाशंकर सिंह ने इस संदर्भ में अपनी फेसबुक पोस्ट पर लिखा है, “गाँव और शहर के बीच इस देश की छह से आठ प्रतिशत जनसंख्या घूमंतू जनों की है। उनके पास जमीन नहीं है जहाँ रामदाना, अरहर, चावल पैदा होता है। वे मांसाहार के लिए मजबूर हैं। वे शाकाहारी चाहकर नहीं हो सकते हैं। सुशोभित जैसे लोगों ने उन महिलाओं को नहीं देखा है जो कसाई के यहाँ सबसे बाद में जाती हैं और मुर्गे का पंजा, बकरे का खुर लेकर आती हैं और बिना तेल-मसाले के अपना भोजन बनाती हैं। बच्चे को पालती-पोसती हैं।… उत्तर भारत में ही नदियों का विशाल परितंत्र हैं। जहाँ मछुआरे हैं। भारत की एक लंबी समुद्र तट रेखा है। वहाँ मछलियों की भरमार है। शाकाहार एक जीवन पद्धति के साथ विलासिता भी है।”

अब सेहत के लिए मांस खाना या गरीबी और भूखमरी की स्थिति में मांस/हड्डी/खुर पकाकर खाने का रिश्ता कितना ज़रूरी है, यह पता नहीं कितना वैज्ञानिक और उपयोगी है। गरीबी की स्थिति में यदि मांस अनाज के मुकाबले सस्ता पड़ता है तो गरीबी के आगे शायद यही विकल्प सर्वोत्तम है।

शाकाहार बनाम मांसाहार

दुनिया में मांस का एक बड़ा उद्योग भी है। मछली, बकरी, मुर्गा या अंडा फार्मिंग यदि आजीविका का सवाल है तो इसे बलपूर्वक या तब तक नहीं बंद किया जा सकता, जब तक कि इसका कोई ठोस विकल्प तैयार नहीं हो जाता। यह सही है कि यदि समुद्री/नदी मछलियों से आजीविका का सवाल जुड़ा है तो इससे जुड़े लोग कहां जायेंगे? जब तक उनके सामने रोजगार का अन्य अवसर उपलब्ध नहीं होगा। यह अवसर उन समुदायों के बच्चों की अच्छी शिक्षा और सरकारी सेवा में रोजगार की उपलब्धता से बढ़ेगा।

प्रकृति, जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के लिहाज से मांसाहार को लेकर आंकड़ें चौंकाते भी हैं और सचेत भी करते हैं। आंकड़ों की बात करें तो दुनिया की 85 फीसदी से अधिक आबादी मांसाहारी है। भारत में यह संख्या 70 से 73 प्रतिशत तक है। मांसाहार को लेकर स्वास्थ्य बुलेटिन बताते हैं कि अगर हम सभी मांस खाना छोड़ दें, तो हर साल लगभग आठ मिलियन कम लोग मरेंगे, क्योंकि हृदय रोग, स्ट्रोक और कैंसर के मामले कम होंगे।

 

पारिस्थितिकी या पर्यावरणीय दृष्टि से देखें तो PETA INDIA के एक आलेख के मुताबिक, पिछले 50 वर्षों में, मछली उद्योग ने बड़ी मछलियों की 90 प्रतिशत आबादी को समाप्त कर दिया है। आज, दुनिया के 17 प्रमुख मछली क्षेत्रों में से 13 क्षेत्र खत्म हो गए हैं या जल्द ही खत्म होने की कगार पर हैं।… अकेले विश्व के मवेशी ही 870 करोड़ लोगों की कैलोरी की जरूरत के बराबर जितना भोजन खाते हैं, जो घरती पर संपूर्ण मानव आबादी से अधिक है।… 1 किलोग्राम मांस का उत्पादन करने के लिए 20,940 लीटर पानी की खपत होती है, जबकि 1 किलोग्राम गेहूं का उत्पादन करने के लिए केवल 503 लीटर पानी ही चाहिए होता है। शुद्ध शाकाहारी भोजन के लिए प्रतिदिन केवल 1,137 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जबकि मांसाहार के लिए प्रतिदिन 15,160 लीटर से अधिक पानी की आवश्यकता होती है।… एफएओ के आंकड़ों के मुताबिक, इंसानी गतिविधियों की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का जितना उत्सर्जन होता है उसके 14.5 फीसदी हिस्से के लिए पशुपालन क्षेत्र जिम्मेदार है।

अब रही बात शाकाहार, मांसाहार या वीगन के चुनाव का तो इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क आने ही चाहिए, इस दवाब के बिना पर नहीं कि आपको केवल विकल्प 1, 2 या 3 ही चुनना है। जिसका तर्क प्रभावी होगा, उसकी स्वीकार्यता एक न एक दिन अपना आकार ले ही लेगी।

.

Show More

धीरेंद्र प्रताप सिंह

धीरेंद्र प्रताप सिंह, युवा अध्येता हैं। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च के अंतर्गत इक्कीसवीं सदी में भोजपुरी भाषी लोकजीवन विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधरत हैं। धीरेंद्र धवल के नाम से कविताएं भी लिखते हैं। सम्पर्क- academicdhirendra@gmail.com
4.1 9 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

5 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
5
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x