यह धुआँ कहाँ से उठता है?
जोशना बनर्जी आडवाणी की कविता को लेकर पिछले दिनों फेसबुक पर छिड़ा युद्ध बताता है कि किसी एक कविता के पाठ एक-दूसरे से किस हद तक भिन्न हो सकते हैं। एक समूह इसे कविता मानने को तैयार नहीं है, दूसरा समूह इसे स्त्रियों से हमदर्दी और उनके यथार्थ की अप्रतिम कविता बता रहा है और तीसरा समूह इसे पितृसत्तात्मक समाज की ऐसी पैदाइश बता रहा है जिसे बकवास के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता। एक चौथा समूह भी है जिसके हाथ एक फिल्म की क्लिप लग गई है जिसके सहारे वह साबित कर रहा है कि यह कविता ही नक़ल की है। इन प्रतिक्रियाओं में वे कुत्सित और मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रियाएँ शामिल नहीं हैं जिनमें इसे सनसनी और शोहरत के लिए लेखिका का उपक्रम माना जा रहा है या फिर इसके प्रचार के पीछे किसी एक समूह का हाथ बताया जा रहा है।
लेकिन जितनी स्वत: स्फूर्त तीव्रता से यह कविता पसंद या खारिज की गई उससे यह तो समझ में आता है कि कुछ है जो सबको चुभ रहा है, सबके भीतर धंस रहा है। अगर यह ख़राब कविता होती, सिर्फ पितृसत्तात्मकता को बढ़ावा देने वाली कविता होती तो चंद प्रतिक्रियाओं के बाद भुला दी जाती। सवाल है, इस कविता के भीतर यह टीस कहाँ से उठती है (बतर्ज मीर, यह धुआँ कहाँ से उठता है?)
इसका एक जवाब कविता के पाठ की उलझन में है। कविता को बिल्कुल तथ्य की तरह पढ़ने की ज़िद के साथ जो पाठ आ रहे हैं, उनके कुछ मुख्य एतराज़ कुछ इस तरह हैं-
क. पत्नी अपने बीमार-बदमाश पति की सेवा करती रही है।
ख अगर वह वाकई बहादुर या स्वातंत्र्यचेत्ता होती तो पति को जेल भिजवाती, प्रेमिका के घर नहीं भेजती।
ग एक उम्र के बाद बीमारियां सबको घेरती हैं इसलिए पति को इस तरह पेश करना ठीक नहीं।
घ यह कविता पतिव्रता पत्नी और खलनायिका प्रेमिका के स्टीरियोटाइप से निकली है और अंततः उसे बढ़ावा देती है।
च अंततः यह एक स्त्री को दूसरी स्त्री के विरुद्ध खड़ा करती है और इस खेल में पति चुपचाप बच जाता है।
निस्संदेह कविता के प्राथमिक पाठ से यह सारे अर्थ प्रतिध्वनित होते हैं। लेकिन फिर वही सवाल उठता है कि इस तीरे नीमक़श से वह ख़लिश कहाँ से पैदा हो रही है जो जिगर को चाक कर रही है? क्या यह कविता इस तरह सपाट पाठ के लिए बनी है? या इसका किसी और ढंग से पाठ संभव है जो इसका अर्थ-विस्तार करता हो या जिससे पता चलता हो कि कविता की इस पत्ती के हिलने भर से जो आँधी सी चल पड़ी, वह कहाँ छुपी हुई है?
दरअसल इस कविता को तीन कैरीकेचरों के जोड़ की तरह देखना चाहिए। जब आप कैरीकेचर देखते हैं तो यह एतराज़ नहीं करते कि आँख इतनी छोटी और नाक इतनी बड़ी क्यों बना दी, या फिर माथा इतना बड़ा किसका होता है। कैरीकेचर एक प्रवृत्ति का रेखांकन होते हैं। यहाँ भी जो पहला कैरीकेचर है वह एक पुरुष का है। इसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे कौन सी बीमारियां हैं या उसमें कौन सी बुरी आदतें हैं। वह बस इस ओर इशारा है कि हमारे समाज में पुरुष का यथार्थ यह है- वह रुग्ण, अशिष्ट, लंपट या अपराधी है। वह एक व्यक्ति नहीं, चरित्र है। यह चरित्र बहुत सारी स्त्रियों के लिए दुखती हुई रग है। जिस पुरुष के साथ जीवन भर नहीं, सात जन्मों का साथ निभाने के सपने या संकल्प के साथ उन्होंने विवाह किया, वह झूठा है, बेवफ़ा है, उनकी सेवा की क़द्र नहीं करता और किसी परस्त्री के पास चला जाता है। उसने अपने साधनों से बाहर अपनी एक अलग छवि बना रखी है जिसकी वजह से कोई अनजान स्त्री उसे आई लव यू बोल रही है।
दूसरा कैरीकेचर इस पत्नी का है। जब वह पति को प्रेमिका के घर छोड़ आने की बात करती है तो दरअसल वह इसी प्रेम की अवधारणा को चुनौती देती है। मामला पति को प्रेमी के घर छोड़ने का नहीं, छोड़ने की झुंझलाई हुई इच्छा का है। प्रेमिका से ज़्यादा खलनायक वह पति है जिसमें तरह-तरह के अवगुण हैं- गुण एक भी नहीं। यह विमर्श कम से कम उस पुरानी चर्चा से अलग है जिसमें पत्नियां मानती थीं कि उनके सीधे-सादे पति को किसी ने अपने जाल में फंसा लिया है। यहाँ कम से कम पत्नी खुल कर कह रही है कि पति लफंगा है।
लेकिन कविता के पार्श्व में जो बजता हुआ, अनकहा दुख है, वह कुछ और भी है। दरअसल बीमार बस पति नहीं, वह पूरा वैवाहिक संबंध है जिसमें एक पत्नी की स्मृति में पति के भीतर की कोई अच्छी बात नहीं है। इस संबंध में यह सड़ांध अभी नहीं आई है, वह पुरानी है जिसमें पति को पूरी आवारगी की छूट रहती है और पत्नी के लिए वह देवता हुआ करता है। दरअसल इसी स्मृति का आवेग है जो बहुत सारी स्त्रियों को इस कविता से जोड़ रहा है। संभव है जो बीमारियां पति को हैं, उनमें से कुछ पत्नी को भी हो और पति भी लगभग इसी निर्ममता से- या इससे कुछ ज़्यादा निर्ममता से- पत्नी से पेश आता हो (जिसके प्रमाण कविता में एकाधिक हैं।
दरअसल यही अनकहा दुख है जिसे एक झन्नाटेदार गुस्से में लपेट कर कवयित्री प्रस्तुत करती है और बहुत सारी स्त्रियां अनायास अपने-आप को इससे जुड़ा महसूस करती हैं।
तीसरा बहुत हल्का कैरीकेचर प्रेमिका का है। कायदे से प्रेमिका तो कविता में अदृश्य है। संभव है, वह भी किसी की पत्नी हो और अपनी उजाड़ होती गृहस्थी के बीच कुछ लम्हों के लिए प्रेम नाम की वह खुशबू जीना चाहती हो जो अन्यथा दुर्लभ हो चली है। एक स्तर पर कविता के भीतर यह परीक्षण भी दिखता है कि क्या यह परस्त्री प्रेमिका है? क्या दोनों के बीच जो घट रहा है वह प्रेम है? प्रेमिका जिस पुरुष को पहचानती है, वह उसकी एक कृत्रिम छवि भर है वास्तविक पुरुष नहीं। जिसे वह प्रेम समझती है, वह शायद उसकी अपनी गृहस्थी की सड़ांध से भी एक तरह की राहत है। हम सब अपनी सामाजिकता छोड़ एक तरह के असह्य एकांत में हैं और हर किसी को जैसे सहारे के लिए एक कंधा चाहिए।
बेशक, यह पाठ कुछ अतिरंजित लग सकता है, लेकिन अगर इस कविता के समर्थन में बाढ़ की तरह उफन आई प्रतिक्रियाओं को समझना हो तो कविता की मार्फ़त यहाँ तक का रास्ता तय करना ही होगा।
मगर बाढ़ अगर समर्थन की है तो विरोध की भी है। यह विरोध क्योंकर है? क्योंकि कविता का एक पाठ निश्चय ही समस्यामूलक है। वह पति-पत्नी-प्रेमिका के त्रिकोण में चुपचाप पत्नी और प्रेमिका को एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी की तरह खड़ा कर देता है और बताता है कि पति चाहे जितना भी बीमार-बदमाश हो, किसी न किसी को उसकी सेवा करनी है। लेकिन मेरे लिए यह बहुत स्थूल पाठ है- वह शाब्दिक पाठ, जिसकी वजह से लोग इस कविता को कविता तक मानने को तैयार नहीं हैं। वे शायद भूल गए हैं कि कविता अपने शिल्प से नहीं, अंततः अपने प्रभाव से कविता बनती है। नितान्त गद्यमय पंक्तियों में लिखी गई कविताएँ भी होती हैं और बिल्कुल गद्य कविता भी होती है।
बेशक, इस कविता को किसी क्रांतिकारी कविता की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। प्रेमिका के पास पति को छोड़ देने का विचार भी बस एक झुंझलाहट की तरह आता है, किसी ठोस प्रस्ताव की तरह नहीं- बल्कि वह प्रेमिका को यह बताने भर का जरिया है कि ऐसे प्रेमी को तुम संभाल नहीं सकोगी।
कुल मिलाकर यह कविता पति-प्रेमियों की पोल खोलती, पत्नियों की खीझ को सामने लाती और प्रेमिकाओं की नासमझी को उजागर करती कविता हो जाती है- लेकिन जो चीज़ यह कविता छोड़ देती है वह यह कि अक्सर प्रेम के इस खेल में पत्नी जितना घाटे में रहती है- उससे कहीं ज़्यादा प्रेमिका रहती है। वह बिल्कुल पार्ट टाइम मामला हो जाती है, जब कोई देख-जान न रहा हो, जब बच्चे और बीवी अपने काम में व्यस्त हों। फिर इस प्रेमिका का अपराध बोध अलग होता है जो चाहती है कि वह अपने प्रेमी की पत्नी के प्रति सदय या कृतज्ञ हो।
इस ठगी गई प्रेमिका को लेकर कुछ बहुत अच्छी कविताएँ पिछले दिनों आती रही हैं और इस बहस के दौरान भी उनका ज़िक्र होता रहा है। श्रुति कुशवाहा और ममता जयंत की दो अलग-अलग कविताएँ किन्हीं परिसरों में उद्धृत की गई हैं। लेकिन वे कविताएँ जोशना बनर्जी आडवाणी की कविता का विलोम नहीं हैं, भले उसके पूरक की तरह पढ़ी जाएँ। जोशना बनर्जी आडवाणी की कविता में बहुत हल्का इशारा यह भी है कि वास्तविक प्रेम इतना आसान नहीं होता- वह पत्नी करे या प्रेमिका। पत्नी का प्रेम नि:शेष हो चुका है और प्रेमिका के प्रेम की परीक्षा बाक़ी है। फिर याद आता है मीर- ‘इश्क़ मीर इक भारी पत्थर है / कब तुझ नातवां से उठता है।‘
बहरहाल इस कविता पर चल रही बहस ने कविता के भीतर पाठ-बहुलता की जो संभावना होती है, उसकी ओर दिलचस्प ढंग से ध्यान खींचा है। इस कविता का एक बड़ा मोल यह भी है।