कविताघर

क्योंकि कविता उपभोग का सामान नहीं होती

 

आपको कैसी कविता पसंद आती है? या आपको कौन से कवि पसंद आते हैं? ये दोनों सवाल पूछने वाले और इनके बहुत सटीक जवाब दे सकने वाले लोग दरअसल जाने-अनजाने कविता को उसके न्यूनतम इस्तेमाल की ओर ले जाते हैं। निस्संदेह वे कविता के रसिक और पाठक होते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते कि कविता किसी के उपयोग या उपभोग का सामान भर नहीं है। वह इसलिए नहीं लिखी जाती कि उससे एक चमकदार पंक्तियों का पैकेज बनाया जाए, जिसे याद कर लिया जाए और हर उपयुक्त मौक़े पर एक रस्म की तरह इस्तेमाल किया जाए। इसलिए वे प्रेम कविता या वीर रस की कविता या किसी और तरह की कविता को पसंद करने की बात करते हैं या कुछ कवियों को अपनी पसंद बताते हैं।

लेकिन ऐसा करते ही शब्द बच जाते हैं और कविता नष्ट हो जाती है- या कम से कम वह अपने अर्थों में बहुत सीमित हो जाती है। यह कुछ वैसा ही कृत्य है जैसा इन दिनों संगीत की बहुत सारी यादगार धुनों या सिंफनियों के साथ हो रहा है- वे मोबाइल फोन के कॉलर ट्यून का हिस्सा हैं और अपना जादू खो चुकी हैं।

हालांकि कविता के संदर्भ में यह कोई अंतिम सत्य नहीं है। यह सच है कि हम सबके कुछ प्रिय कवि होते हैं और कुछ पसंदीदा कविताएं होती हैं- ऐसी कविताएं जो उम्र भर हमारा पीछा नहीं छोड़तीं, हमारी स्मृति में कुछ इस तरह गड़ी रहती हैं कि जब हम सब कुछ भूल रहे होते हैं तब भी कुछ हिलती-डुलती पंक्तियां हमारे अवचेतन को आकार दे रही होती हैं।

दरअसल समझने की जरूरत यह है कि कविता का कोई एक प्रकार या कुछ प्रकार नहीं होते। वह बस कविता होती है- बेशक हम उसे अपनी सुविधा के हिसाब से अलग-अलग ख़ानों में बांट लेते हैं, कुछ उसी तरह जैसे समय विभाजित नहीं होता, वह एक निरंतर प्रवाहमान अदृश्य उपस्थिति है, लेकिन हमने उसे बिल्कुल ठोस रूप में इस तरह बांट डाला है कि हम एक-एक क्षण पर उंगली रखकर बता सकते हैं कि यह वह घड़ी थी जब सांस अटकी थी और यह वह घड़ी थी जब जीवन नि:शेष हुआ था।

निस्संदेह समय के ऐसे विभाजन की तरह कविता का विभाजन संभव नहीं। लेकिन दरअसल कविता भी समय की तरह एक अदृश्य उपस्थिति ही है जिसे हम शब्दों के कल-कांटों से पकड़ने की कोशिश करते हैं। कविता लिखने की कोशिश अपने भीतर-बाहर को समझने, व्यक्त करने और कभी-कभी अनजान या सचेत ढंग से बदलने की कोशिश भी है। यह बात कुछ अमूर्त या उलझी हुई सी लग सकती है, लेकिन इस पर कुछ ठहर कर विचार करने की ज़रूरत है। कुंवर नारायण लिखते हैं- ‘घर रहेंगे, हमीं उनमें न रह पाएंगे / समय होगा, हम अचानक बीत जाएंगे।‘ जीवन की व्यर्थता और मृत्यु की अपरिहार्यता के बीच ठिठकी यह कविता क्यों छूती है? क्योंकि वह मजबूर करती है कि हम इन पंक्तियों पर रुकें, इन्हें देखें और समझने की कोशिश करें कि इनमें कितना हमारा सच है और कितना हमारा समय। आख़िर वे कौन से घर हैं जो हमसे छूट जाएंगे? और यह ‘हम” कौन हैं जो समय के रहते भी बीत जाएंगे? अचानक यह कविता एक बड़े प्रश्न और बड़े यथार्थ के सामने हमें खड़ा कर देती है- उस अस्तित्ववादी प्रश्न के आगे, जिसमें अपने होने का अर्थ भी समझ में आता है और अपने बीतने का अर्थ भी।

ऐसी कविताएं ढेर सारी हैं। ऐसा नहीं कि सब अस्तित्ववादी प्रश्नों से जूझती हों। लेकिन सबके अपने प्रश्न होते हैं, सबके भीतर उनका समय और समाज होता है, उसकी स्मृति होती है। कुंवर नारायण की कविता एक तरह से समय को संबोधित करती है तो केदारनाथ सिंह की कविता दूसरी तरह से। धूमिल अगर विस्फोट की तरह अपने समय पर टूटते हैं तो मुक्तिबोध में किसी अंतःस्फोट की तरह एक मानवीय चीख अपना समय ढूढ़ती है। रघुवीर सहाय का बौद्धिक चौकन्नापन अलग तरह की कविता रचता है और श्रीकांत वर्मा की संवेदनशील चुप्पी अलग तरह की। आलोकधन्वा के कांपते बिंब अगर एक उदात्त कविता बनाते हैं कि मंगलेश डबराल की सहज ऊष्मा एक अलग मानवीय चेतना का स्पर्श करती है। यह बहुत संभव है कि (मेरी तरह के) किसी पाठक को कुंवर नारायण भी अच्छे लगें और केदारनाथ सिंह भी, रघुवीर सहाय भी अच्छे लगें और श्रीकांत वर्मा भी, धूमिल भी खींचें और मुक्तिबोध भी छुएं और मंगलेश डबराल और आलोकधन्वा दोनों अलग-अलग ढंग से प्रभावित करें।

हालांकि यह फिर इतना आसान नहीं है। पसंद करना एक बात है और सीमाओं को पहचानना दूसरी बात। यानी कोई सजग पाठक कुंवर नारायण की कविता की बहुत मार्मिक और मानवीय ध्वनियों से परिचित होते हुए भी कभी-कभी सूक्तियों की ओर बढ़ने और किसी स्थूल सत्य को किसी चमकीली भाषा में कहने की उनकी शैली को पहचान सकता है, या फिर केदारनाथ सिंह की ग्रामगंधी स्मृतिजीविता पर प्रश्न खड़े कर सकता है या फिर धूमिल की अराजकता और मुक्तिबोध के उलझाव को लेकर असंतुष्ट रह सकता है या फिर आलोकधन्वा और मंगलेश डबराल की राजनीतिक चेतना को लेकर गंभीर ढंग से विचार कर सकता है।

तो कविता कोई इकहरी चीज़ नहीं होती। उसके कई रूप होते हैं। वह हर रूप में पसंद आ सकती है। लेकिन इसकी दो शर्तें हैं- एक तो यह कि वह अपने अनुभव और अपनी अभिव्यक्ति में उस आंतरिक सत्य को व्यक्त करे जिसे कवि ने अपने श्रम से, अपनी संवेदना से अर्जित किया है। दिए हुए सत्य को नई भाषा में लिख देना एक विचार को कविता में डाल देने जैसा है, उस वास्तविक कविता जैसा नहीं जो कुछ विचार को बदल सकती है और कुछ व्यक्ति को।

दूसरी बात यह कि वह अपनी विधागत प्रवृत्ति में कविता होने की शर्त पूरी करे। किसी एक बड़े अनुभव या सत्य को लेख में भी लिखा जा सकता है, कहानी में भी ढाला जा सकता है, लेकिन हम फिर कविता क्यों लिखते हैं? क्योंकि कविता में ही यह संभव है कि वह अनुभूत सत्य अपनी तरलता में लगभग सुरक्षित रहते हुए हुए कवि से पाठक तक चला आए, उसके अपने अनुभव में ढल जाए, बल्कि वहां जाकर वह और विस्तारित हो। इस प्रक्रिया में शब्द जितने ज़रूरी होते हैं, चुप्पियों के अंतराल भी उतने ही अपरिहार्य होते हैं। लगातार बोलते रहने से तुकबंदी हो सकती है, लगातार घोषणाओं से नारे बन सकते हैं, सूक्तियां बन सकती हैं, लेकिन कविता नहीं बन सकती। कविता धीरे-धीरे बढ़ती है, जहां वह बहुत तेज़ गति से बढ़ती है, वहां भी अपने लिए एक अंतराल बचाए रखती है।

इन दोनों बातों के अलावा एक तीसरी बात भी है। कविता दुनिया को एक नई आंख से देखने की कोशिश भी है। वह असंभव की कल्पना है और कल्पनातीत का संभवीकरण है। वह विस्मय से जन्म लेती है और अंतर्दृष्टि से बड़ी होती है। जब रघुवीर सहाय कहते हैं, ‘देखो वृक्ष को, वह कुछ कर रहा है / किताबी होगा जो कवि जो कहेगा हाय पत्ता झर रहा है’ तो वह ऐसी ही नई आंख का सृजन कर रहे होते हैं। पेड़ को कर्ता के रूप में देखने का एक बड़ा मतलब है- अपने पर्यावरणीय लोकतंत्र के प्रति बहुत सूक्ष्म क़िस्म के संवेदनशील प्रस्ताव का। दिलचस्प यह है कि ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की’ लिखने वाले कवि केदारनाथ सिंह अपने अंतिम संग्रह ‘मतदान केंद्र में झपकी’ तक आते-आते घास को अपने लोकतंत्र का प्रतिनिधि घोषित करते हुए उसके पक्ष में मतदान करने की अपील करते नज़र आते हैं।

यह होती है कवि दृष्टि जो कभी-कभी कविता के भीतर इतनी छुपी हुई होती है कि उसे एक पाठक को डूब कर निकालना पड़ता है। इस प्रयत्न से पाठक ही समृद्ध नहीं होता, कविता भी समृद्ध और सार्थक होती है।

बेशक, यह दोनों काम आसान नहीं हैं- ऐसा कवि बनना जो असंभव में भी संभव की तलाश करता दिखे और ऐसा पाठक होना जो दिए हुए संभव कोनों में उस असंभव को खोज निकाले जो उसके छू लेने से ही अस्तित्व में आया है। कविता बहुत दूर तक अपने शब्दों और अर्थों के परे उस स्पर्श का भी मामला है जिसमें उसके कई अर्थ प्रकाशित होते हैं और कई नए अर्थ सृजित होते हैं।

फिर दुहराना होगा- इसके लिए कविता को बनाने से पहले खुद को तोड़ना पड़ता है। मुक्तिबोध ताउम्र जैसे ख़ुद को तोड़-तोड़ कर कविता में बदलते रहे, अपनी यातना और अपनी हंसी दोनों के बहुत मार्मिक योग से वह असंभव-अधूरी कविता लिखते रहे जिसे हम आज तक पढ़ने और समझने में लगे हुए हैं। रघुवीर सहाय पर लौटते हैं जिन्होंने इस बात को कुछ स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘अपनी एक मूर्ति बनाता और ढहाता हूं /  और आप कहते हैं कि कविता की है।‘

तो अपनी मूर्ति बनाने और ढहाने के बीच संभव होती कविता और उसके पाठ के विभिन्न पहलुओं पर यह चर्चा जारी रहेगी

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प्रियदर्शन

लेखक प्रसिद्ध कथाकार और पत्रकार हैं। सम्पर्क +919811901398, priydarshan.parag@gmail.com
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