एक नये आन्दोलन का इन्तजार
18 मार्च का दिन आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, जब मैं शास्त्री नगर स्थित अपने फ्लैट की छत पर खड़ा होकर पटना को धू-धू कर जलते देख रहा था। यह मेरे जीवन का अनोखा दृश्य था, एक अविस्मरणीय घटना थी और सच पूछा जाए तो यह मेरी याददाश्त का वह पहला दृश्य था जो मेरी स्मृति में आज भी फ़िल्म की चलती हुई रीलों की तरह कैद है। 18 मार्च याद करते ही वे सारे घटनाक्रम एक बार फिर जेहन में कौन्ध जाते हैं। 18 मार्च से 5 जून सम्पूर्ण क्रान्ति के उद्घोष और 25 जून आपातकाल की घोषणा तक।
पहली बार किसी शहर में इस तरह इमारतों को जलते हुए देखा था और गोलियों की आवाज़ को सुना था। वैसे तो यह एक हिंसक आन्दोलन था और जो लोग हिंसा में विश्वास नहीं करते हैं, वे इसकी आलोचना आज भी करते हैं लेकिन तब देश में ऐसी स्थितियाँ क्यों पैदा हुईं, इसके बारे में भी हमें बार बार विचार करना पड़ेगा। 18 मार्च,1974 को गुजरे 50 साल बीत चुके हैं लेकिन वह दृश्य मैं ही नहीं बल्कि उस घटना के साक्षी आज भी भूले नहीं होंगे। यह दृश्य आज मुझे इसलिए भी याद आता है क्योंकि देश के हालात आज भी बिल्कुल वैसे ही हैं या सच पूछिये तो उससे भी बदतर हैं। हम एक तानाशाह के चंगुल से निकलकर एक दूसरे तानाशाह के चंगुल में फँसते जा रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि इस दूसरे तानाशाह का जन्म पहले तानाशाह के विरोध में हुआ था यानी एक तानाशाह का विरोध करते हुए राजनीतिक शक्तियाँ आज फिर उसी तानाशाही के रास्ते पर अग्रसर हैं। लेकिन यह तानाशाह उस तानाशाह से अधिक चालाक तिकडमी, झूठ और बेईमान है। इन पाँच दशकों में देश की आर्थिक स्थिति से लेकर सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति में भी बहुत बड़ा बदलाव हुआ है। तब वेलफेयर स्टेट का जमाना था मिश्रित अर्थव्यस्था थी। आज आवारा पूँजी का जमाना है। कॉरपोरेटीकरण का, अन्धाधुन्ध निजीकरण का ज़माना है। दूसरी बड़ी बात यह है कि देश की आबादी भी आज 140 करोड़ हो गयी है, इसलिए समस्याएँ पहले से बहुत अधिक बढ़ गयी हैं। तब भारत एक कृषि प्रधान देश था। आज कारपोरेट प्रधान देश है। तब एक उपभोक्तावादी मध्यवर्ग नहीं था जबकि आज एक अधिक सम्पन्न पर सांस्कृतिक रूप से विपन्न मध्यवर्ग फैल चुका है। उसका ‘हिन्दूकरण’ हो रहा है। वह जातीय और साम्प्रदायिक उन्माद में और फँस गया है। इससे देश का लोकतन्त्र, संविधान सभी खतरे में हैं।
जब जय प्रकाश नारायण ने 18 मार्च 74 के छात्र आन्दोलन को अपने नेतृत्व में लिया तो उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का सपना देखा लेकिन देखते-देखते उनका यह सपना धराशायी होता चला गया। इसके पीछे एक वजह यह भी रही की जेपी आन्दोलन के नेतृत्व में जो राजनीतिक शक्तियाँ सत्ता में काबिज हुईं उन्होंने खुद ही जेपी के मूल्यों और आदर्श की हत्या करनी शुरू कर दी। कई बार तो यह भी लगता है कि अगर जयप्रकाश नारायण ने संघ परिवार को अपने आन्दोलन में शामिल नहीं किया होता तो आज संघ परिवार को वह वैधानिकता और विश्वसनीयता नहीं मिलती और वह जिस तेजी से आगे बढ़कर देश पर काबिज हो गया, वह शायद नहीं होता। उस समय जेपी को काँग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए संघ परिवार को साथ लेने की ऐतिहासिक मजबूरी थी क्योंकि तब सीपीआई काँग्रेस के साथ थी। वह जे पी को फासिस्ट बता रही थी। लेकिन अगर काँग्रेस बाद में भी भ्रष्टाचार परिवारवाद का शिकार नहीं होती जनता से दूर नहीं हुई होती तो तो शायद भारतीय जनता पार्टी का आज इस तरह उद्भव नहीं होता। सच पूछा जाए तो काँग्रेस की विफलता के स्मारक पर आज भारतीय जनता पार्टी खड़ी है। लेकिन इसमें सामाजिक न्याय की शक्तियों का भी हाथ है। उनक़ा आचरण उनकी शैली उनके अहंकार ने भी जनता को निराश किया।
आज 74 के आन्दोलन के पाँच दशक बाद एक बार फिर देश को यह सोचना है कि वह तानाशाही के रास्ते पर जाएगा या लोकतन्त्र के रास्ते पर। लेकिन सच्चाई यह है कि इस तानाशाह को इन्दिरा गाँधी जैसे तानाशाह के मुकाबले हटाना अधिक मुश्किल है क्योंकि आज की तानाशाही थोड़ी जटिल और पेंचदार है। 74 की तानाशाही के पीछे ‘हिन्दुत्व’ का आधार नहीं था लेकिन इस तानाशाही के पीछे ‘हिन्दुत्व’ का आधार है और यह तानाशाही फासीवाद के रूप में नजर आ रही है और यह फासीवाद भी लोकतन्त्र का मुखौटा लगाए हुए आ रही है। 74 की तानाशाही राजनैतिक तानाशाही थी। वह किसी धर्म सम्प्रदाय या बहुसंख्यकवाद पर नहीं टिकी थी। लेकिन आज तो 74 की तुलना में अधिक गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी अपने चरम पर है। देश की अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह चरमरा गयी है। विदेशी कर्ज पिछले सत्तर साल में लिए गये कर्ज से अधिक है। स्वास्थ्य व्यवस्था का बुरा हाल है। शिक्षा लगातार महँगी होती जा रही है। ऐसे में एक सामान्य परिवार का लड़का उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकता है। एक निम्न मध्यवर्ग का व्यक्ति अपना इलाज नहीं कर सकता है। एक आम आदमी अपनी दो जून की रोटी के लिए नून तेल का इन्तजाम नहीं कर सकता है।
ऐसे में हमें जयप्रकाश नारायण की बहुत याद आ रही है, लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि 50 सालों में कोई ऐसा नायक हमें नहीं मिला जो देश को दिशा दे सके। हर चुनाव में कुछ ऐसे नायक उभरते जरूर हैं जो जनता को अपने भाषणों से प्रभावित करते हैं और उन्हें लगता है कि यह व्यक्ति हमारा नायक होगा लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन नायकों के चेहरे से मुखोटे उतर जाते हैं। अन्ना आन्दोलन की तुलना जे पी आन्दोलन से की गयी पर उसकी कलई भी अन्त मे खुल गयी। पिछले पाँच दशकों में दलित राजनीति क्षेत्रीय दलों की राजनीति ने भी अन्ततः हमें निराश ही किया है। आज हम 18वीं लोकसभा के चुनाव के दौर से गुजर रहे हैं और हम इंडिया गठबन्धन से उम्मीद कर रहे हैं कि वह इस तरह की तानाशाही को उखाड़ फेंकने के लिए एक बार फिर सत्ता में आए। पता नहीं चुनाव के नतीजे क्या निकलेंगे और अगर भाजपा हार भी जाती है तो क्या आने वाले दिनों में हमारा लोकतन्त्र बचा रहेगा?
जे पी आन्दोलन के साथी बिखर चुके हैं और उनमें से कई हमारे बीच नहीं रहे। कई बूढ़े और अशक्त हो चुके हैं। अब देश की नयी पीढ़ी ही कुछ कर सकती है। इस नयी पीढ़ी को कौन दिशा देगा? क्या राहुल और तेजस्वी देंगे? क्या अखिलेश देंगे? क्या केजरीवाल देंगे?
पर राहुल को छोड़कर कोई दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत नहीं है। राहुल भी जे पी नहीं हैं, वे किशन पटनायक नहीं हैं, मधु लिमये नहीं हैं। जे पी आन्दोलन अब सम्भव नहीं लगता। कोई नायक नहीं है जिसे जे पी जैसी छवि हासिल हो। भारतीय राजनीति अब एक दूसरे युग और चरण में पहुँच चुकी है। इससे निबटना मुश्किल है। छात्र युवा संघर्ष वाहिनी जैसी इकाइयों से भी लड़ाई जीती नहीं जा सकती है। लेकिन समाज में गहरा असन्तोष है। भीतर भीतर एक आग फैली है पर उसकी आँच बाहर कैसे आए? क्या अब वही काँग्रेस ही एक मात्र विकल्प है जिसके खिलाफ जे पी ने आवाज़ उठाई थी? पूरे देश को इस पर सोचना होगा। जब तक जनता नहीं जागेगी परिवर्तन सम्भव नहीं। जे पी आन्दोलन में जनता सड़क पर थी पर आज नहीं। आज राहुल की चुनावी रैलियों में भीड़ है, उनकी भारत यात्रा में भी भीड़ उमड़ी, क्या वे नये नायक बनेंगे। क्या वे जे पी के आदर्शों पर चलेंगे या तेजस्वी जैसे नये नेता नायक बनेंगे? क्या देश की जनता उन्हें स्वीकार करेगी? जे पी आन्दोलन के 50 साल बाद हम 74 की स्थिति में एक बार फिर लौट गये हैं जहाँ एक नये जे पी का इन्तजार है जिसमें अम्बेडकर और लोहिया की आत्मा भी हो।