आदिवासियत

आदिवासियों की मुखर राजनैतिक पहचान 

 

9 अगस्त 1982 को प्रथम बार संयुक्त राष्ट्र संघ के एकनॉमिक एण्ड सोशल काउन्सिल (ईकोसोक) ने आदिवासियों से सम्बन्धित एक कार्यकारी समूह का गठन किया जिसे वर्किंग ग्रूप ऑन इण्डिजेनस पॉप्युलेशन कहा गया। 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा गठित आदिवासियों से सम्बन्धित कार्यकारी समूह ने आदिवासियों के अधिकार के घोषणा पत्र का एक प्रारम्भिक ड्राफ़्ट प्रस्तुत किया था। अन्ततः 13 सितम्बर 2007 को, लगभग 25 वर्षों के अथक परिश्रम और सतत संघर्ष के पश्चात आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत कर लिया। 

       संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर-राष्ट्रीय सम्मेलनों में विश्व के अनेक देशों से आए आदिवासी मित्रों से चर्चा में आम सा प्रश्न होता था कि आपने अपने देश में ‘आदिवासी दिवस’ किस प्रकार मनाया? इस प्रासंगिक प्रश्न को अब लगभग दो दशक होने को आये हैं और आज यह कहा जा सकता है कि आदिवासियों की दखल राजनीति के केन्द्र में दिखाई पड़ रही है। वैश्विक स्तर पर भी अब उनकी पहचान मुखर हो कर सामने आयी है।

       बीते दशक के शुरुआत से आदिवासियों की राजनैतिक पहचान को एक नया आयाम मिला है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक घटक इकाइयों में आदिवासी आवाज प्रखर हुई है। जलवायु परिवर्तन, संसाधनों का अनियन्त्रित दोहन, संयुक्त राष्ट्र संघ सतत विकास एजेण्डा 2030, इन सब मंचों पर यह अवधारणा बहुत तेज़ी से विकसित हुई है कि आदिवासी ही जल, जंगल, पृथ्वी को बचा सकते हैं। मौखिक परम्परा पर जीवित यह आबादी, आज विश्व के अस्तित्व के लिए एक विकल्प के रूप में उभर रही है। उनकी जीवन शैली, सोच और आदिवासियत का अब वृहद् समाज अध्ययन कर रहा है और उनके ज्ञान को व्यावहारिक रूप से अपनाने का प्रयास कर रहा है। 

बड़े राष्ट्रीय राजनैतिक दल अब ‘आदिवासी’ मुद्दे को शामिल कर रहे हैं। आदिवासी इस दशक की शुरुआत से ही ‘संगठित’ नजर आ रहे हैं। राजनैतिक दल इस संगठित समूह की महत्ता भी अब भली भाँति समझ रहे हैं। अभी 2021 की जनगणना बाक़ी है, लेकिन यदि हम 2001 की जनगणना की बात करें तो भारत में अनुसूचित जनजातियों की जो जनसंख्या 8.43 करोड़ थी वह 2011 में 10.45 करोड़ हो गयी।यहाँ 23% की वृद्धि दर हमें देखने को मिलती है। अन्य घटकों को यदि हम छोड़ दें और यही 23% की वृद्धि दर 2021 की जनगणना में लगाएँ तो यह जनसंख्या 12.50 करोड़ के आस पास होगी। यह आँकड़ा भी कम ही होगा क्योंकि पश्चिमी भारत- विशेषकर राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के आदिवासी बीते दशक में अधिक सचेत हुए हैं। इसलिए वे भी इस जनसंख्या में जुड़ेंगे जो पहले स्वयं को आदिवासी कहने में झिझकते थे। आश्चर्य नहीं होगा यदि यह जनसंख्या 2021 में 14 करोड़ के आँकड़े को छू ले। बीते दशक और वर्तमान में स्वयं को आदिवासी दर्ज कराने में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अब लोग आदिवासी कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। विभिन्न राजनैतिक दल भी अब आदिवासी समुदाय की महत्ता को समझने लगे हैं।

आज आदिवासी समाज सचेत है। वह अनेक मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। हर क्षेत्र में उनका प्रवेश हो रहा है। देश के अग्रणी श्रेणी के नेता अब आदिवासी बनाम वनवासी जैसे ‘तर्क’ पर ज़ोर डाल रहे हैं। अब नेतृत्व, आदिवासियों के हितैषी के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहता है। जल, जंगल जमीन की सतही एवं छद्म लड़ाई लड़ने के लिए ही सही, आदिवासियों के साथ दिखने के लिए आतुर है।

अब आदिवासी समाज में लेखनी भी मजबूती के साथ उभर रही है। लोग बातें कर रहे हैं, मुद्दों पर चर्चा हो रही है। ‘नेटिव राइटर्स’ इस मौखिक परम्परा वाले समाज की आवाज बन रहे हैं। ‘द पोलिटकल लाइफ ऑफ मेमोरी’ के लेखक डॉ राहुल रंजन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक में लिखा है कि ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के पास आवाज नहीं है, हम वृहद् समाज के लोगों के पास उसे सुनने के लिए शायद श्रुति तन्त्र ही नहीं है। पर धीमी गति से ही सही, यह श्रुति तन्त्र अब विकसित हो रहा है। भगवान बिरसा मुण्डा की प्रतिमा के हाथों से हथकड़ी पिछले दशक में हटा दी गयी, जो आजादी का संकेत है। लेकिन राहुल को एक साक्षात्कार के दौरान, आदिवासियों ने कहा था- “हथकड़ी तो हटा दिये हो, लेकिन वर्तमान में झारखण्ड क्या सच में विषम परिस्थितियों से आज़ाद हो गया है?”

 आदिवासी पारम्परिक न्याय व्यवस्था जो उराव समुदाय में पड़हा के नाम से, मुण्डाओं में मानकी व्यवस्था और संथालों में परगना के नाम से जानी जाती है, प्रजातन्त्र की गूढ़ परिभाषा को सच्चे अर्थों में जीती है। भारतीय संविधान में भी इनकी मान्यता है। आज विश्व की अनेक अग्रणी संस्थाएँ इनका तुलनात्मक अध्ययन कर रहीं हैं। लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए बनाया गया यह तन्त्र कठिन से कठिन मामले का निष्पादन समाज स्वयं करने में सक्षम था। आज यह व्यवस्था धूमिल हो रही है।

       तमाम उपलब्धियों के बावजूद, आदिवासी समाज राष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाया है। इनका मूल कारण सांस्कृतिक विविधता है। यह सांस्कृतिक विविधता पुनः अनेक विभाजक कारकों को जन्म देती है। आदिवासियों के बीच राजनैतिक चेतना में एक नयी ऊर्जा का संचार तो हुआ है, लेकिन दिशा की कमी दिखाई पड़ती है इसलिए जहाँ कहीं भी आदिवासी समूह राजनैतिक रूप से मुखर हआ है, कहीं ना कहीं वृहद् राजनैतिक पार्टियों की कठपुतली बना हुआ है। 

       राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर एक स्पष्ट एकता की घोर कमी है, और इसे पाटना अति आवश्यक है। यह कमी अनेक कारण कारणों से हैं। कारक बाह्य भी हैं और आन्तरिक भी। 1832, 1855 और 1857 की आदिवासी क्रान्तियाँ शायद उपरोक्त कारणों से ही विफल हुई थीं, क्योंकि आधी लड़ाई ‘अपनों’ से थी, जो दूसरी ओर थे। आदिवासी समाज अभी भी राजनीतिक रूप से अपनी बात अपनी शर्तों पर मनवाने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि, राजनैतिक दलों को इसका एहसास है कि आदिवासी स्वयं छोटे छोटे दलों में बँटे हुए हैं। राजनैतिक दल आदिवासियों की महत्ता को तो समझते हैं, पर उन्हें गम्भीरता से नहीं लेते। आदिवासी समाज में ऐसे अनेक छद्दमवेशी हैं जो बड़े राजनैतिक दलों के लिए कार्यरत हैं, लेकिन समाज के हित से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। समय रहते ऐसे लोगों को पहचानने की आवश्यकता है

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अभय सागर मिंज

लेखक श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। *लुप्तप्राय देशज भाषा प्रलेखन केन्द्र के निदेशक हैं। सम्पर्क- +91 9939304234, minz.abhaysagar@gmail.com
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