आदिवासी

विश्व आदिवासी समाज की आदिवासियत

 

लगभग सभी आदिवासी समुदायों में जल जंगल ज़मीन और प्रकृति के साथ अन्य जीवों के प्रति समान रूप से जुड़ाव देखने को मिलता है। इसी समान जीवनशैली को हम ‘आदिवासियत’ शब्द से परिभाषित करते हैं। दुनिया के नक़्शे में जहाँ कहीं भी आदिवासी बचे हैं, वहाँ जंगल बचा हुआ है।

   कनाडा एवं अमेरिका के मूल आदिवासी या ‘फर्स्ट नेशंस’ में एक बहुप्रचलित कहावत है- “यह धरती हमें अपने पूर्वजों से विरासत में नहीं मिली है, बल्कि हमने इसे अपने बच्चों से उधार लिया है। विरासत में मिली वस्तु पर हमारा पूर्ण अधिकार होता है पर उधार ली गयी वस्तु हमें लौटानी पड़ती है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम प्रकृति के संसाधनों का दोहन नियन्त्रित रूप से करें।

   आदिकाल से आदिवासी समाज अस्तित्व में है। मुख्यधारा की प्रौद्योगिकी से दूर, घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने के बावजूद भी, वे अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम कैसे रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर जनजातीय समुदायों के सदस्यों के पास मौजूद जनजातीय ज्ञान प्रणाली में देखने को मिलता है। पूर्वजों को कैसे पता चला कि खेती के लिए जंगल के किस भाग को साफ करना है, कहाँ बसना है, शिकार के लिए जानवरों को कहाँ ढूँढना है- ये सभी देशज ज्ञान का हिस्सा है। यह ज्ञान समुदाय के लोक गीतों, लोक कथाओं, रीति रिवाज़ों और परम्पराओं में समाहित है। विश्व की लगभग सभी जनजातियों का अस्तित्व इसी ज्ञान के आधार पर टिका हुआ है।

   आज भी ऐसे अनेक समुदाय हैं जो शिकार और खाद्य संकलन कर अपना जीवन यापन करते हैं। ऐसे समुदायों के सदस्य प्रायः दिन में करीब दो से ढाई घण्टे ही काम करते हैं और फिर भी खुश व सन्तुष्ट हैं। दूसरी ओर हम लोग दिन रात काम करने के बावजूद भी ‘कमी की भावना’ से ग्रसित हैं। इसी सन्दर्भ में कोलंबिया और वेनेजुएला के कुइवा आदिवासी लोगों को देखा जा सकता है, जो सप्ताह में केवल पन्द्रह बीस घण्टे ही काम करते हैं और बाकी का समय अपने टोलों में परिवार संग व्यतीत करते हैं। अफ्रीका के बंटू एवं झारखण्ड के असुर- बिरहोर जनजाति भी इसी तरह के हैं।

तंज़ानिया के हड्ज़ा जनजाति का मानना है कि यदि समुदाय के किसी सदस्य के पास अपनी ज़रूरत से अधिक व्यक्तिगत सम्पत्ति है तो उस सम्पत्ति पर समाज के अन्य लोगों का भी अधिकार होता है। और परम्परा यह रही है कि जो अतिरिक्त संसाधन हैं उन्हें अन्य जरूरतमन्दों के बीच बाँट दी जाती है। उत्तरी अमरीका के क्वाकिटल आदिवासियों में “पोटलैच” एक सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। समुदाय के लोग अधिक से अधिक धन संसाधन इकट्ठा करते हैं ताकि इस अर्जित संसाधन से सामाजिक भोज दिया जा सके। यह सामाजिक भोज किसी भी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाती है। इस भोज में इतना खर्च होता है कि भोज के अगले दिन उस व्यक्ति के पास कोई अतिरिक्त धन नहीं बचता है। इसी प्रक्रिया को पोटलैच कहते हैं।

   इंडोनेशिया के ओरंग रिम्बा समुदायों में जब एक शिशु जन्म लेता है तो उसकी गर्भनाल को सेंटुबुंग वृक्ष के नीचे गाड़ दिया जाता है। अब वह बच्चा इस ‘जन्म वृक्ष’ के साथ एक पवित्र बंधन में बंध जाता है। इसकी रक्षा उसका दायित्व है। ठीक इसी प्रकार विश्व के विभिन्न जनजातियों में ‘टोटम’ की अवधारणा पाई जाती है। टोटम किसी भी पौधे, पशु-पक्षी या प्राकृतिक इकाई को संदर्भित करता है, जिससे एक समुदाय अपनी उत्पत्ति को जोड़ता है। टोटम के सदस्यों पर उस इकाई की रक्षा का दायित्व है।

   विश्व के अनेक आदिवासी समुदायों में अन्य जीव जन्तुओं को मनुष्य के बराबर समझा जाता है। कर्नाटक के सोलिगा जनजाति के लोग जब ऊँचे पेड़ों से मधु इकट्ठा करते हैं तब कुछ भाग वे स्वयं उपयोग करते हैं और कुछ भाग ज़मीन के पास बाघों के लिए छोड़ देते हैं, जिन्हें वे अपना परिवार मानते हैं। उनके अनुसार आदि शक्ति द्वारा निर्मित संसाधनों पर अन्य जीवों का भी बराबर का अधिकार है। एथियोपिया के बोदी आदिवासी अपने पशुओं के लिए विशेष गीत गाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस समुदाय के लोग कृषि-पशुपालक हैं। उनका समूचा जीवन उनके मवेशियों के इर्द-गिर्द घूमता है। झारखण्ड का सोहराई पर्व समान उदाहरण है। आदिवासी समाज यह मानता है कि उनका अस्तित्व पशुओं से है।

   भारत के बैगा लोग मानते हैं कि ज़मीन जोतना धरती माँ की ‘छाती को चीरने’ के समान है। उनके अनुसार आदि शक्ति ने मनुष्य की ज़रूरत की हर वस्तु प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराने के लिए ही जंगलों का निर्माण किया है। विश्व के अनेक आदिवासी समुदायों में धरती को ‘माँ’ का सम्बोधन प्राप्त है।

आज जहाँ भूमि की उर्वरता में कमी एवं सूखा, विश्व के कई हिस्सों में आम समस्या है, वहाँ जनजातीय समुदायों द्वारा विकसित पद्धतियों से सीखने की आवश्यकता है। दक्षिण अफ्रीका की जनजातियाँ सतह पर 25 सेंटी मीटर व्यास और 20 सेंटी मीटर गहरे गड्ढ़ों को 90 सेंटी मीटर की दूरी पर खोदती हैं। यह प्रक्रिया, मरुभूमि बन चुकी खेतों में सम्पूर्ण क्षेत्र में किया जाता है। इन गड्ढ़ों में वे जवार और बाजरा के बीजों के साथ जैविक खाद डालते हैं। खोदी हुई मिट्टी को वे गड्ढ़े के ढलान की ओर घोड़े की खुर के आकार में मिट्टी का घेरा बना देते हैं। इस प्रक्रिया से वर्षा का जल जो ढलान के कारण बह कर निकल जाता था अब वह उस घेरे के कारण गड्ढे में चला जाता है और जल छाजन को बढ़ाता है। इससे नमी और उर्वरता ठीक बीज के पास केन्द्रित होती है। इस प्रक्रिया को अफ्रीकी आदिवासी “ज़ाई” कहते हैं। विश्व के अन्य भागों में भी जनजातियाँ एक साथ विभिन्न प्रकार के ऐसे बीजों को रोपती हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता लम्बे समय तक बनी रहती है। अफ़्रीका के ज़ाई के भाँति ही झारखण्ड के अनेक आदिवासी खेतों में “तूसा” और “डोभा” देखा जा सकता है।

   औद्योगिक समाजों में स्त्री अधिकारों का हनन एवं वृद्धावस्था में अकेलापन आम बातें हैं। परन्तु ब्राज़ील की आवा जनजाति में महिलाएँ पुरुषों के समान हैं। वे भी शिकार में भाग लेती हैं। इस सन्दर्भ में मेघालय की खासी जनजाति भी एक उदाहरण है जहाँ मात्री सत्तात्मक समाज है। बच्चों को माँ का नाम मिलता है और सम्पत्ति सबसे छोटी बेटी को विरासत में मिलती है। मुख्यधारा की संस्कृति के विपरीत यहाँ माताएँ बेटों का नहीं बल्कि बेटियों का इन्तजार करती हैं।

   झारखण्ड की उराँव जनजाति में करम के बाद समुदाय के वृद्ध जनों के लिए “बूढ़ी करम” का प्रावधान है। यह उराँव समाज में वृद्ध जनों के प्रति सम्मान एवं स्त्री समानता पर प्रकाश डालता है। इसी प्रकार नेपाल के नेवार आदिवासियों में जब किसी व्यक्ति की आयु 66 वर्ष 6 महीने और 6 दिन का होता है तो ईश्वर से उसकी नज़दीकी को सामूहिक भोज देकर मनाया जाता है। अगला भोज 77 वर्ष 7 महीने 7 दिन के होने पर होता है। इस प्रकार स्त्री समानता एवं वृद्धावस्था में सम्मान विश्व के अनेक आदिवासी समुदायों में पाई जाती है।

   आम तौर पर हम कहते हैं कि आपका भविष्य आपके सामने है परन्तु ऐंडीज़ के आयमारा लोगों के अनुसार ‘भविष्य आपके पीछे है और अतीत आपके सामने’। वे कहते हैं कि आँखें सामने स्थित हैं इसलिए हम आगे देख सकते हैं पर पीछे नहीं। चूँकि हम अपना अतीत जानते हैं, उसे देख सकते हैं, इसलिए वह हमारे आगे है। और चूँकि हम भविष्य नहीं देख सकते हैं, इसलिए वह हमारे पीछे है।

आदिवासी जीवनशैली या जिसे हम आदिवासियत कहते हैं वह आदिवासी देशज ज्ञान प्रणाली पर निर्भर करती है। और यह देशज ज्ञान जनजातीय देशज भाषाओं पर आश्रित है। जिस दिन आदिवासी भाषाएँ विलुप्त हो जाएँगी उस दिन आदिवासी ज्ञान विलुप्त हो जाएगा और जिस दिन यह ज्ञान विलुप्त हो जाएगा उस दिन आदिवासियत भी नही बचेगा। इसलिए भाषायी विविधता को संरक्षित करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए न्यू गिनी लगभग 1000 द्वीपों का समूह जहाँ करीब 1000 आदिवासी समुदाय निवास करते हैं जिनकी भाषा प्रत्येक समुदाय में भिन्न है। पूरे विश्व में लगभग 7000 भाषाएँ बोली जाती हैं। ऐसे में एक सीमित क्षेत्र में ही इतनी विविधता अपने आप में अनूठा है। इन समुदायों के भाषा और इनके ज्ञान का संरक्षण ऐसे में निहायत ही अनिवार्य हो जाता है।

विश्व भर की आदिवासी समुदायों में पाई जाने वाली प्रथाओं और मान्यताओं का आधार मौलिकता एवं समानता है। आज की भागा भागी वाली जिन्दगी में हमें इन समुदायों से सीखने एवं उनकी प्रथाओं में व्याप्त मौलिकता को आत्म-साथ करने की आवश्यकता है। तभी हम उधार में ली गई इस पृथ्वी को अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ के जा पाएँगे

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दीक्षा सिंह

लेखिका डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची के अन्तरराष्ट्रीय लुप्तप्राय जनजातीय भाषा एवं संस्कृति प्रलेखन केन्द्र में शोधार्थी हैं। सम्पर्क +916201988919, dikshaa98576@gmail.com
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