
उनका हिस्सा
लॉकडाउन हुए लगभग महीना भर हुआ। अन्दर रहते-रहते जी उकता गया। बाहर जा नहीं सकती तो याद आया कि अपार्टमेंट में भी तो छत होती होगी। महानगरों की बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले मध्यवर्ग की न जमीन अपनी होती है न आसमान। बीच में कहीं घर टँगा होता है। अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार बालकोनी के आकार का या खिड़की के चौखटे जितना आकाश का टुकड़ा उनके हिस्से आ जाता है। हाँ! हाँ! मध्य वर्ग अपनी जिम्मेदारी भूलकर सिर्फ अपने विकास के लिए निम्न वर्ग को खाद की तरह इस्तेमाल करता है और उच्च वर्ग में शामिल होने की कोशिश में जुटा रहता है। भूल जाता है कि उसके हित बहुसंख्य निम्न वर्ग के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर आया संकट देश को भयावह मुसीबत में डाल देगा और अंततः उन्हें भी। संसाधन ऊपर ही सिमटते जाएंगे और मध्यवर्ग निम्नवर्ग की ओर धकेला जाता जाएगा।
मगर अभी मैं धरती को ही जमीन बोल रही हूँ और आसमान को ही आसमान। बात सिर्फ इतनी है कि टीवी में लोगों की बदहाली देख-देख कर अपनी असहायता और सामर्थ्य दोनों को ही बरदाश्त करना मुश्किल हो रहा है। जो जीवन शैली अब तक जी है। दोनों का प्रयोग खुद पर ही होना है। खुद से बाहर जा के बहुजन के साथ मिलकर कुछ करने-कराने का तो प्रशिक्षण ही नहीं है। हाथ-पैर मार कर कुछ सीखा भी कैसे जाए ऐसी अनोखी स्थिति में जब आदमी का आदमी से दूर रहना वांछित मूल्य बन चुका है।
यह शायद पहली बार हो रहा होगा कि विपदा की स्थिति में लोगों को एक-दूसरे का साथ नहीं बल्कि दूरी कायम रखनी है। आदमी-आदमी के पास रह कर आदमियत नहीं सीख पाया। एक-दूसरे से कट कर आदमियत कैसे सीखे? उलझा दिया न आखिर? सिर्फ इतना कहना चाहिए था मुझे कि पहली बार अपार्टमेंट की छत पर गयी।
यह भी पढ़ें- जहाँ हम रुकें, वहाँ से तुम चलो
छत तक पहुँचने से पहले ही बच्चों की आवाजें आने लगी थीं। पहुँचने पर पाया कि उनके लिए थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गोले का निशान बना कर प्रत्येक बच्चे के बैठने की जगह नियत कर के उनकी मम्मियाँ नीचे चली गयी थीं। एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी बना कर बच्चे बैठे हुए थे। पानी की टंकियाँ, लोहे के सरिया और सीमेंट की पट्टियाँ रखीं होने के कारण दौड़ने वाले खेल खेले नहीं जा सकते थे। बात ही कर सकते थे। दूर-दूर थे इसलिए ऊँचा बोल रहे थे। वर्ना आजकल तो बहुत कम उम्र के बच्चे ‘पर्सनल स्पेस’ खोजते हैं। उनकी बातों से पता चला उन्हें भी ऊपर आने का विचार आज ही आया और यहाँ होने का उनका भी यह पहला दिन है।
फिलहाल मम्मियों की दिन-भर की किच-किच से राहत पा कर सब खुश थे। उनके सीरियल्स रिकॉर्डिंग खत्म होने के कारण इन दिनों नहीं आ रहे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि एपिसोड खत्म भी होते हैं। एक-दूसरे से आइडिया ले रहे थे कि क्या देख सकते हैं। एक मुँह लटका कर बोला – वैसे भी पापा घर पर हों तो टीवी होना न होना एक बराबर है। रिमोट पापा के ही हाथ में रहता है। जब देखो तब समाचार या बड़ों के ऊटपटाँग प्रोग्राम चलते रहते हैं।
खबरों के बाबत सुनकर एक बच्चे को कुछ याद आया तो अचानक बोल पड़ा “यार, तूने कुछ सुना? समाचार में दिखा रहे थे कि एक बच्ची पैदल चलते-चलते भूख से मर गयी। पता है उसके दर्द हो रहा था पेट में भूख से?
यह भी पढ़ें- कोरोना: महामारी या सामाजिक संकट
कम आयु वाला दूसरा बच्चा बोला, “बड़ी केयरलेस थी उसकी मम्मी। खाने के लिए भी नहीं बोला उसे। चलती जा रही थी धूप में। दिन में भी चलो। रात में भी चलते जाओ। तीन दिन में 100 किमी चल ली थी। हमारी मम्मियों को देखो धूप में बाहर एक कदम भी रख लें तो कितना चिल्लाती हैं। खाना तो भूल ही नहीं सकते। कभी–कभी खेलने के चक्कर में भूल जाता हूँ तो आवाज दे कर खिलाती हैं। मेरा खेल छोड़ने का मन न हो तो मेरे पीछे दौड़-दौड़ कर कौर मेरे मुँह में डालती हैं।”
बीच में बात काट कर एक और बच्चा माथे पर हाथ मार कर बोला कि “आजकल तो खा-खा के जी ऊब गया। मम्मी ऑफिस जाती नहीं हैं। दिन भर बस यूट्यूब और फेसबुक में देख कर नयी नयी डिश बनाना, खिलाना, बस यही काम रह गया है। फिर उनकी तस्वीरें डालना फेसबुक में। घर में बॉल खेलो तो पैर सामान से टकराते रहते हैं। इतना सारा खाने का सामान पापा ने घर में ला कर रख दिया है कि घर न हो मॉल हो जैसे। मम्मा सुबह लंच बनाए बिना ऑफिस जाती थीं कभी तो पिज्जा के लिए पैसे बता कर जाती थी, उससे भी गए अब तो। फिर जेब से मुट्ठी में पैसे निकाल कर दिखाए कि पैसे हैं मेरे पास पर खर्च करने का कोई मौका ही नहीं मिलता आजकल।
“पैसे कहाँ से आए, चोरी की तूने?”
“चोर लगता हूँ क्या? “बुरा सा मुँह बना कर वह बोला “चोर नहीं हूँ स्मार्ट हूँ। पिज्जा बॉय को एड्रेस कन्फयूजिंग ढंग से बताया। फिर गेटकीपर से भी कह दिया उसे लम्बे वाले रास्ते से भेजने के लिए। लिफ्ट के भी सब बटन दबा कर छोड़ दिए। जब उसने मेरे घर की घंटी बजाई। मैंने उसे घड़ी दिखाई पूरा 5 मिनट लेट था। फिर उसे फ्री में देना पड़ा तो ये 400 रपए मेरे हो गए।”
सब बड़े प्रशंसा भाव से उसे सुन रहे थे।
जिसने अपनी आँख से बच्ची के मरने की खबर देखी थी, उसके मन में यह बात कहीं अटक गयी थी। कहने लगा – जैसे मम्मी लंच बनाए बिना जाती हैं तो पिज्जा के पैसे दे जाती हैं, उसकी मम्मी ने इसके लिए कोई इंतजाम नहीं किया होगा ?
थोड़े बड़े बच्चे ने बताया कि “उसकी मम्मी थोड़ी उसके साथ रही होगी। सुना नहीं कि अपने घर (छत्तीसगढ़) से दूर 115 किमी दूर कहीं काम करने चली गयी थी वो। लॉकडाउन हो गया तो अचानक घर जाना पड़ा। पूरे के पूरे 100 किमी पैदल चलने के बाद गिरी वह। कितनी बहादुर थी। हमारे स्कूल में होती तो हर चीज में वहीं फर्स्ट आती। वो तो शायद खुद ही खाना बनाती होगी।”
यह भी पढ़ें- कोरोना महामारी क्या प्रकृति की चेतावनी है?
“जिनके लिए बनाती होगी या शायद कुछ और काम करती होगी, उन्होंने नहीं खाना दिया? उसे जाने क्यों दिया जब मोदी अंकल ने सबको घर में रहने के लिए कहा था तो?”
“तो वह अकेली थोड़ी थी, और भी तो लोग थे साथ में। देखा नहीं था टी.वी में? कितने सारे लोग सड़कों में पैदल चलते हुए नजर आते हैं।”
“तो इन लोग को कोई कुछ क्यों नहीं कहता? हमें तो बाहर भी नहीं निकलने दे रहे। अपार्टमेंट के अन्दर भी दोस्तों से मिलने की मनाही है। इनके कारण नहीं फैलेगी करोना बीमारी? इनको पुलिस पकड़कर जेल में क्यों नहीं डाल देती? इन्हें क्या शौक लगा है लॉकडाउन में चलने का। जा कहाँ रहे ये? घर में नहीं रह सकते?”
“घर ही तो जा रहे हैं अपने। कोई बिहार, कोई बंगाल, कोई यू.पी…”
“दादा-दादी वाले घर की बात थोड़ी कही मोदी अंकल ने। वहाँ तो हम भी जाने वाले थे छुट्टियों में। कितना तो मजा आता है वहाँ। पर अब थोड़ी जा पाएंगे। ट्रेन तो कैंसिल हो गयीं। और फिर ये कैसे जा रहे हैं।”
“ये तो पैदल ही जा रहे हैं।”
“ओए ! पागल हो गया क्या? इतनी दूर कोई कैसे पैदल जा सकता है? पता भी है ट्रेन से भी पूरा एक दिन लगता है। इनको उधर जाने की ऐसी क्या पड़ी है?”
“यहाँ तो सारे काम बंद हो गए। काम नहीं है तो पैसे नहीं हैं तो अपने घर जा रहे हैं”
“काम तो पापा-मम्मी का भी बंद हुआ। उनके पास तो हैं पैसे। काम बंद हुआ तो क्या घर तो होगा।”
“ये गरीब लोग हैं न। इन्हें सिर्फ काम करने पर ही पैसा मिलता है और खूब सारा काम करने पर थोड़ा सा पैसा। और थोड़ी सी जगह मिल जाती है कहीं। जैसे तैसे रह लेते हैं किसी तरह। हमारे अपने ही घर देख ले न, न मेड आ रही है, न माली। तो उन्हें थोड़ी पैसा मिलेगा। हो सकता है उनके पास भी खाने की चीजें न हों। ”
एकदम रूँआसा होकर पहला बच्चा बोला “मम्मी-पापा को भी नहीं मिलेंगे पैसे? तो मेरे स्केटिंग किट और एडिडास वाली फुटबॉल कहाँ से आएगी?”
“अबे, इतना क्या हाइपर हो रहा? तेरे मम्मी –पापा गरीब कोई हैं जो उनका कोई पैसा मारेगा और बैंक में भी होगा हमारे पापा लोग के पास बहुत सारा पैसा।”
यह भी पढ़ें- इन मजदूरों की मौत का जिम्मेदार कौन?
“इन मजदूरों के पास बैंक में पैसा नहीं है तब तो इन्हें इनके मालिक जरूर ही पैसा देंगे। वर्ना मालिक लोग को पुलिस जेल में नहीं डाल देगी ? यहाँ इनके पास घर ही नहीं है। कमाल है काम यहाँ पर करें और कुछ मुसीबत होने पर कहीं और जाएँ।”
पहला बच्चा जो शुरू से बच्ची की शरारत और उसकी माँ की लापरवाही पर झुँझलाया हुआ था, पूछने लगा कि “तो क्या वह बच्ची इसलिए मर गयी कि उनके पास खाने के लिए कुछ था ही नहीं? तो घर से ले कर निकलते। उनके पापा भी तो लाए होंगे 2-4 महीने का सामान।”
“उनके पास थोड़ी इतने सामान के पैसे होते हैं। तभी तो हमारे पास फ़ालतू सामान है। सब ले पाते तो खत्म न हो जाता ?”
“तो हमारे पास जो सामान है वह उनके हिस्से का भी है ?”
“अगर हम इतना नहीं लाते तो उनके लिए बचता न?”
“ये तो पापा ने ठीक नहीं किया। इतने सारे का हम क्या करेंगे ? पापा के बैंक में भी हैं उनके हिस्से के पैसे? ’
मुट्ठी में पैसों को भींचते हुए उदास सी धीमी आवाज में पहले बच्चे ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, “तूझे तो इतना कुछ पता है तो तू ये भी जानता होगा कि डिलीवरी बॉय गरीब होते हैं कि नहीं, उनके पास होगा घर?”
“पता नहीं यार। अमीर तो नहीं होते होंगे जब हर ऑर्डर पर घर-घर दौड़ कर जाते हैं तो।”
“उस दिन वह बोल भी रहा था कि भैया 5 मिनट ही तो लेट हुआ। आप पैसे नहीं दोगे तो हमारी सैलरी से कटेगा और महीने का खर्च निकालना मुश्किल पड़ जाएगा।” वह रुआंसा होने लगा था “ मुझे थोड़ी पता था कि खर्च पूरा नहीं होने का मतलब भूखे रहना और भूख से मरना होता है। मुझे तो कभी भूख लगती भी नहीं।”
यह भी पढ़ें- कोरोना वायरस की विध्वंस कथा
काफी देर तक सब बच्चे जाने क्या-क्या बोलते रहे आपस में। अन्त में सब बड़े उदास हो गये। उन्हें लग रहा था उनके घर में चोरी का सामान पड़ा है। किसी और के हिस्से का। पैसे वापस देने के लिए बच्चा इतना बेचैन हो रहा था कि मुँह ढाँप कर फफकने ही लगा। उन्हें आज पता चला था कि इण्डिया जब घरों में लॉकडाउन हुआ तब भारत के भूखे-प्यासे लोगों को सड़कों पर उतरना पड़ा जो अन्दर वालों के लिए ही काम करते थे और उनकी न इण्डिया को परवाह थी न सरकार को। वे सोच रहे थे कि सौतेली माँ की कहानियाँ तो पढ़ी थीं पर क्या सौतेली जनता भी होती है? कौन लोग सरकार के अपने होते हैं और कौन पराये? बच्चों के माथे पर उभरी इस शिकन से कोई रास्ता फूटेगा क्या जो दोनों को जोड़ सके?
.