सिनेमा

बॉलीवुड पर दक्षिण और दक्षिणपन्थ का साया

 

साल 2013 में ही हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री ने अपने सौ साल पूरे कर लिए थे। यह एक लम्बा और उतार  चढ़ाव भरा सफर रहा है। लेकिन आज इस मुकाम पर पहुंच कर ऐसा लगता है कि बॉलीवुड अपने अस्तित्व  और पहचान के संकट के दौर से गुजर रहा है। यह खतरा दो तरफ से है एक दक्षिण सिनेमा का बढ़ता दबदबा और दूसरा है दक्षिणपन्थी विचारधारा का दबाव। अभी तक अमूमन बॉलीवुड या हिन्दी सिनेमा की “अखिल भारतीय सिनेमा” के रूप में पहचान रही है जबकि अन्य भाषाओं की फिल्मों को “क्षेत्रीय फिल्म”के रूप में वर्गीकृत किया गया था लेकिन अब हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री का यह रुतबा बहुत तेजी से छिनता जा रहा है और उसके स्थान पर क्षेत्रीय विशेषकर दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्में क्षेत्रीय बाधाओं को तोड़ते हुए पैन इण्डिया स्तर पर अपना परचम फहरा रही हैं। बॉलीवुड पहले से ही कोविड महामारी, ओटीटी, अपने खिलाफ दुष्प्रचार, नये सितारों की अभाव और रचनात्मकता की कमी से जूझ रहा था, ऊपर से दक्षिण भाषाओं की फिल्मों ने उसके ताज को हिलाकर रख दिया है। 

अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बॉलीवुड की पहचान उन चन्द पेशेवर स्थानों में है जो समावेशी और धर्मनिरपेक्ष हैं और यह बहुसंख्यक दक्षिणपन्थियों को हमेशा से ही खटकता रहा है। आज यह विचारधारा देश के तकरीबन हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुकी है तो जाहिर तौर पर उसका निशाना बॉलीवुड पर भी है। वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकण्डा अपना रहे हैं। नतीजे के तौर पर आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बँट गया है, यहाँ भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इण्डस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।  

पिछले दिनों कन्नड़ स्टार किच्चा सुदीप का एक बयान बहुत चर्चित हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘बॉलीवुड पैन इण्डिया फिल्में बनाने में संघर्ष कर रहा है, जबकि दक्षिण भाषाओं की फिल्म इण्डस्ट्री के लोग ऐसी फिल्में बना रहे हैं, जो हर जगह देखी और सराही जा रही हैं’। जाहिर तौर पर किच्चा सुदीप सच लेकिन कडवी बात कर रहे थे। इसलिए इसके जवाब में बॉलीवुड स्टार अजय देवगन हिन्दी फिल्मों की जगह हिन्दी भाषा का भावनात्मक बचाव करते तो नजर आये और लेकिन वे किच्चा सुदीप के कड़वे तंज का जवाब देने में नाकाम रहे। दरअसल किच्चा सुदीप एक ऐसी हकीकत को बयां कर रहे थे जो हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री और सितारों को असुरक्षित महसूस कराने के लिए काफी है। आंकड़े भी इसी हकीकत को बयां करते हैं, इस साल टॉलीवुड (तेलुगू फिल्म इण्डस्ट्री) देश की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म इण्डस्ट्री बन गई है, जिसने करीब 1300 करोड़ रुपए की कमाई की है, जबकि कॉलीवुड (तमिल फिल्म इण्डस्ट्री) इस मामले में दूसरे पायदान पर रही है, इन सबके बीच देश की सबसे बड़ी फिल्म इण्डस्ट्री माने जाने वाली बॉलीवुड (हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री) इस सूची में तीसरे स्थान पर है।

इसकी शुरुआत “बाहुबली”से हुई थी जिसने भारतीय सिनेमा के क्षेत्रीय और भाषाई अन्तर को पाट दिया था। बाहुबली एक ऐसी अखिल भारतीय फिल्म थी जिसको लेकर पूरे भारत में एक समान दीवानगी देखी गई। तेलगू सिनेमा जिसे टॉलीवुड भी कहा जाता है की एक फिल्म ने बॉलीवुड को झकझोर दिया था। एक रीजनल भाषा की फिल्म के लिए पूरे देश भर में एक समान दीवानगी का देखा जाना सचमुच अद्भुत था बाहुबली की सफलता बॉलीवुड के सूरमाओं के लिए यक़ीनन आंखें खोल देने वाली होगी। राजामौली के निर्देशन में बनी यह देसी फैंटेसी से भरपूर एक भव्य फिल्म थी जिसने अपने प्रस्तुतिकरण, बेहतरीन टेक्नोलॉजी, विजुअल इफेक्ट्स और सिनेमाई कल्पनाशीलता से दर्शकों को विस्मित कर दिया था। इसके बाद “पुष्पा: द राइज़” और “केजीएफ 2” और राजामौली की फिल्म “आरआरआर” जैसी फिल्मों ने अपने वर्चस्व को स्थापित कर दिया है। निश्चित रूप से यह बॉलीवुड के लिए खतरे की घंटी और पासा पलट जाने का इशारा है।

इस स्थिति के कई कारण हैं। इस सम्बन्ध में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का बयान काबिलेगौर है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछले कुछ समय से बॉलीवुड में ओरिजिनल फिल्में नहीं बनायीं जा रही है और हालिया दिनों की अधिकतर फिल्में दक्षिण के फिल्मों की रीमेक रही हैं। दूसरी तरफ बॉलीवुड में अब मसाला या “लार्जर दैन लाइफ”फिल्में बहुत कम बनायीं जा रही हैं, इसलिए सलमान खान की शिकायत जायज है जब वे कहते हैं कि “हमारी फिल्मों का साउथ वालों की तरह नहीं चलने का एक कारण ये भी है कि वो लोग हीरोगिरी को खूब बढ़ावा देते हैं।” यकीनन पिछले कुछ सालों से सलमान खान अकेले ऐसे बॉलीवुड सितारे हैं जो मसाला और “लार्जर दैन लाइफ” फ़िल्में बना रहे हैं हालांकि उनकी दबंग जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ कर अधिकतर साउथ की फिल्मों का रीमेक या उनसे प्रभावित हैं।

कोविड के बाद अब दर्शकों को सिनेमा घरों की तरफ वापस लाना आसान नहीं है, अब उनके पास घर पर ही कई विकल्प हैं ऐसे में उन्हें दोबारा वापस लाने के लिए भव्यता और “लार्जर दैन लाइफ’ महानायकों” की जरूरत है। जो फिलहाल हिन्दी सिनेमा नहीं कर पा रहा है। इसके बरक्स दक्षिण भाषाओं की फिल्में यह काम बखूबी कर रही हैं।

एक दूसरा कारण हिन्दी सिनेमा में नये और उभरते सितारों का अभाव भी है। पिछले तीन दशकों से बॉलीवुड अपने तीन खान सितारों और अक्षय कुमार व अजय देवगन से परे नहीं जा सका है। रनबीर कपूर और रणवीर सिंह जैसी नये सितारे अभी भी अपना मुकाम नहीं बना पाये हैं। पिछले कुछ सालों से खान सितारे भी सुस्त पड़े हुए हैं, शाहरुख़ सालों से अपने रोमांटिक हीरो की छवि से बाहर निकलने की जद्दोजहद कर रहे हैं, आमिर खान की “लाल सिंह चड्ढा”तो जैसे बीरबल की खिचड़ी हो गयी है, सलमान खान भी लम्बे समय से कोई बड़ी फिल्म नहीं दे सके हैं।     

यह भारतीय राजनीति और समाज के लिये भारी उठापटक भरा दौर है, एक राष्ट्र और समाज के तौर पर भारत को पुनर्परिभाषित करने की कोशिशें हो रहीं हैं,जाहिर है इससे फिल्में भी अछूती नहीं हैं। इसका जुड़ाव 2014 के भगवा उभार, बॉलीवुड में खान सितारों के वर्चस्व व फिल्मी दुनिया की धर्मनिरपेक्षता से है जो हिन्दू कट्टरपंथियों को कभी भी रास नहीं आती है। बॉलीवुड के शीर्ष तीन सुपरस्टार शाहरुख, सलमान और आमिर मुस्लिम हैं, वे करीब तीन दशकों से बॉलीवुड और दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं और आज अधेड़ हो जाने के बावजूद उनका असीमित आकर्षण बना हुआ है। आज भी वे ना केवल बॉलीवुड के शीर्ष बनाए हुए हैं बल्कि दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं। और अगली पीढ़ी को अपनी जगह बनाने में भी कड़ी चुनौती दे रहे है। इन तीन सितारों की अभूतपूर्व लोकप्रियता हैरान कर देने वाली है और वे हमें पुरानी सुपरस्टार तिकड़ी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं।

गौरतलब है कि नब्बे का दशक जो भारतीय समाज के साम्प्रदायिक विभाजन का दौर है जिसकी परिणिति बाबरी मस्जिद ढाँचे के टूटने से 2002 में हुए गुजरात दंगे और 2014 के बाद से सामाजिक राजनीतिक रूप से दक्षिणपन्थियों के हावी होते जाने का दौर है लेकिन इसी के साथ ही विरोधाभास भी देखिये नब्बे के दशक में अपने आगमन के बाद से “खान त्रयी” (सलमान, शाहरुख, आमिर) भी लगातार बॉक्स आफिस पर राज कर रही है। वे अपने मूल नाम से फिल्मों में हैं और दर्शक भी उन्हें अपने मुस्लिम नामों के साथ भरपूर प्यार दे रहे हैं। इतने व्यापक ध्रुवीकरण वाले समय में भी हिन्दी सिनेमा के इस अनोखी स्थिति को लेकर हिन्दुत्ववादी की  चिढ़ समझी जा सकती है। इसलिए खान सितारे लगातार उनके  निशाने पर बने रहते हैं। आज सोशल मीडिया पर खान सितारों को ट्रोल किया जाना या उनकी फिल्मों के बहिष्कार की मांग बहुत आम हो गयी है

दिवगंत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मौत के बाद तो बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित अभियान चलाया गया जिसमें पूरी फिल्म इण्डस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों का नेटवर्क के तौर पर पेश करने को कोशिश की गयी। इस दौरान भी तीनों खान सितारे ही ख़ास निशाने पर रहे। इस सम्बन्ध में बीबीसी द्वारा किये गये पड़ताल में पाया गया कि बॉलीवुड और उसके कलाकारों के ख़िलाफ़ किसी योजना के तहत एक नकारात्मक अभियान चलाया गया, बॉलीवुड के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार फैलाने वाले अधिकतर लोग बहुसंख्यक दक्षिणपन्थी विचारधारा के हैं और उनका जुड़ाव सत्ताधारी पार्टी से भी है।

जाहिर है बॉलीवुड के लिए इन दोतरफा खतरों से निकलना आसन नहीं होगा लेकिन अपनी पहचान और आस्तित्व बनाये रखने के लिए उसके पास कोई और चारा भी तो नहीं है

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जावेद अनीस

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +919424401459, javed4media@gmail.com
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