सिनेमा

लोकतंत्र के महत्वपूर्ण संदेश वाली शॉर्ट फिल्म ‘बिस्कुट’

 

अमीश श्रीवास्तव की चर्चित शॉर्ट फिल्म ‘बिस्कुट’ देखने का अवसर मिला। फिल्म देश की राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था पर सटीक टिप्पणी है। देश में चुनावों के माहौल के मद्देनजर प्रासंगिक बन पड़ी है। आधे घंटे से कुछ अधिक की यह पेशकश बड़े संदेश दे जाती है। उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहा है। हम सबका ध्यान फिल्हाल उसी ओर है। ऐसे में यह फिल्म अपनी ओर ध्यान खींचती है। अपने विषय एवम क्वालिटी के दम पे कई पुरस्कार अपने नाम कर चुकी सामान्य सी दिखने वाली यह फिल्म जबरदस्त है।

बिस्कुट एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी लेकर आई है। कहानी सपनापुर गाँव की है। देश का कोई भी एक गाँव इस गाँव जैसा हो सकता है। यह सामान्य से एक गाँव की कथा है। वो जगह जहाँ गरीबी एवम जातीय समस्याएं सर उठाए फिरती है। जहाँ सपने बेचकर जनता को भरमाया जाता है। कोविड़ एवम लॉकडाउन के के बाद से रोज़गार की बड़ी समस्याएं सभी जगह देखने को मिली। गाँव भी इससे अछूते नहीं रहे। खेती किसानी की समस्याएं अलग। आसमान छूती महंगाई अलग। सरकार ने हालांकि बहुत से परिवारों को अनाज उपलब्ध कराया। लेकिन यह नाकाफी ही था। राशन के लिए जिनकी पहचान नहीं हो सकी वो सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। सपनापुर में सपना तो सभी के आँख में था लेकिन पूरे सिर्फ़ सरपंच नवरत्न सिंह के होते थे। गाँव में आधारभूत सुविधाएं भी नहीं किन्तु नेताजी लाभ ही लाभ में। गरीबी से जनता बेहाल, युवा बेरोज़गार, शिक्षा व्यवस्था चौपट लेकिन सरपंच साब की इसकी कोई चिंता नहीं। गाँव के असल मुद्दे भटका कर चुनाव जीतते आएं हैं।

लेकिन कहानी असल गाँव वालों की या सरपंच की नहीं। कहानी सरपंच के प्रचारक भूरा की है। भूरा ही इस कहानी की मुख्य धूरी है। नवरत्न सिंह के लिए चुनाव प्रचार करना, घर घर जाकर लोगों से मिलना, नारे लगाना आदि सब भूरा करता है। नवरत्न सिंह गाँव वालों को क्षणिक आकर्षण दिखाकर मजे देकर सहायता देकर सालों से चुनाव से जीतता आ रहा है। इस बार भी वही सब हथकंडे अपना रहा है। लोगों में व्याप्त लाचारी उसे नहीं दिखाई देती। कहानी का नायक भूरे की नज़र गाँव वालों मे गरीबी लाचारी भूख सब देख लेती है। किन्तु उसके पास इतने संसाधन तो थे नहीं कि सबको खाना खिलवा सके। अक्लमंद भूरा को इक आईडिया सूझा।

 नवरत्न सिंह ने जब उसे किसी गलती के लिए बहुत पीटा तो बाद में चाय बिस्कुट खिला के अच्छे से प्रचार करने को कहा। यहीं से बिस्कुट बनने के तत्वों को लेकर जिज्ञासा घर कर गई थी उसमें। इत्तेफ़ाक से गाँव में सुलेमान बेकरी थी। बिस्कुट किस तरह बनाया जाता है वहाँ जाकर अच्छी तरह समझ गया। उसके मन में बिस्कुट बनाने का विचार आया। घर में उपलब्ध दाल चावल को एक साथ पीस कर सुलेमान बेकरी ले जाता है। इसी ख़ास मिश्रण के आटे को बिस्कुट में ढाल दिया जाता है। दाल-चावल के बने सितारे आकार के बिस्कुट में भूख मिटाने का गज़ब का फार्मूला था। भूरा गरीब एवम भूखे ग्रामीणों में यह बिस्कुट बंटवा देता है। आख़िर में यही सितारा बिस्कुट कहानी में जबरदस्त मोड़ लाता है।

अमीश श्रीवास्तव की फ़िल्म आम आदमी की वोट की ताक़त दिखाती है। जनता यदि अक्लमंदी से वोट देने के अधिकार का प्रयोग करे फिर समय की धारा बदलने में देर नहीं लगती। फिल्म यह बड़े संदेश देने में सफल हुई है। जोकि इसकी बड़ी ताक़त है। कथा पटकथा में में तीखा व्यंग्य है। फिल्मकार ने दर्शकों की जिज्ञासा को आख़िर तक बनाए रखा है। वास्तविक लोकेशन में गजब का आकर्षण है। ऑन लोकेशन शूटिंग किसी भी कथा को विश्वसनीय बना देती है।

कलाकारों की बात करें तो सरपंच नवरत्न सिंह के किरदार को चितरंजन त्रिपाठी ने अदा किया है। चितरंजन टीवी एवम फिल्मों के उभरते हुए उम्दा कलाकार हैं। अहंकारी सरपंच के रोल को बखूबी निभाया है। भूरा के लीड रोल में अभिनेता अमरजीत सिंह हैं। अमरजीत वेब सीरीज के उभरते हुए नाम हैं। हिट सीरीज पाताल लोक एवम मिर्जापुर से नाम कमाया है। दोनों ही कलाकारों ने अच्छा काम किया है। बेकरी बॉय के रोल में चेतन ने खूब साथ निभाया है बाक़ी के सभी पात्र ऑन लोकेशन क़िरदार हैं।शानदार फिल्म बन पड़ी बिस्कुट की कहानी गहरा प्रभाव छोड़ती है। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण संदेश के लिए फिल्म को याद रखा जाएगा

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सैयद एस तौहीद

लेखक सिनेमा और संस्कृति विशेषकर हिन्दी फिल्मों पर लेखन करते हैं। सम्पर्क passion4pearl@gmail.com
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