शिक्षा

शिक्षा और शिक्षक के गिरते साख के बीच शिक्षक दिवस

 

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि “शिक्षा शेरनी का दूध है जो इसे जितना ज्यादा पीएगा, वह उतना ज्यादा दहाड़ेगा।” लेकिन आज के समय, काल, परिस्थिति के मद्देनजर यह सबकुछ उल्टा प्रतीत हो रहा है, जो जितना शिक्षित हो रहा है वह उतना ही खामोश होता जा रहा है। पिछले लगभग 20 सालों से मैं उच्च शिक्षा से जुड़ी हुई हूँ और दिन-ब-दिन इसकी गिरती साख को बहुत ही नजदीक से महसूस कर रही हूँ। हर बार मुझे लगता कि इस संस्था में ऐसा हो रहा है, दूसरी जगह शायद ऐसा न हो लेकिन हर बार मैं बहुत हद तक गलत ही साबित हुई। शिक्षा और शिक्षक दोनों की स्थिति बद्-से-बद्तर ही होती जा रही है। आज पूरे देश में शिक्षक दिवस बेहद उत्साह के साथ मनाया जा रहा है और यह हमारे देश में सदियों पुरानी गुरु-शिष्य परंपरा की ही एक कड़ी है। शिक्षक के सम्मान में मनाया जाने वाला यह दिन क्या सच में आज भी प्रासंगिक है? यह एक बेहद गंभीर सवाल है और मेरे मन में यह बात लगातार कौंधती रहती है। बचपन के दिनों से ही मैं शिक्षक दिवस पर बेहद उत्साहित रहा करती थी।

साल भर तक मैं एक-एक रुपया जमा करती थी कि अपने शिक्षकों को कोई भेंट दे सकूं, उस ज्ञान के बदले जिससे मेरी अंधेरी जिंदगी में रौशनी हो रही थी। लेकिन इन छोटी भेंटों के बीच बड़ा था उन शिक्षकों के प्रति मेरे मन में पनपा हुआ सम्मान, जो मेरे संस्कार और भारतीय मूल्य का परिचायक था। लेकिन जैसे ही मैं उच्च शिक्षा से जुड़ी यह भाव मेरे मन से पता नहीं कहाँ खोता जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि पूरा शिक्षा जगत भ्रष्टाचार के समुंद्र में गोते लगा रहा है। ज्यादातर शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही स्वार्थ में अंधे हो चुके हैं। एक समय था, जब विचारवान शिक्षकों के साथ-साथ छात्र नेताओं द्वारा भी शिक्षा को नये-नये आयाम देने के प्रयास किए जाते थे। किन्तु, आज के विचारविहीन शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा को गर्त में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। अधिकांश शिक्षकों और विद्यार्थियों की अपनी न तो कोई विचारधारा बची है और न ही पह्चान। वह सत्ता के हिसाब से अपने विचार और पहचान दोनों ही बदल ले रहे हैं। इस देश में जयप्रकाश नारायण जैसे छात्र नेता हुए, जिन्होंने पूरे देश की दशा और दिशा को बदल कर रख दी। परन्तु आज के छात्र नेताओं के पास न तो खुद की सही दशा है और न समाज के लिए कोई दिशा।

अभी कुछ विद्यार्थियों से एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में रूबरू होने का मौका मिला जिनके पास एम.ए. और बीए की कई-कई डिग्रियां थी, किन्तु ज्ञान रत्ती भर भी नहीं। ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों विद्यार्थी मिले जिनकी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी। लेकिन ये कोई आम विद्यार्थी नहीं थे, बल्कि तथाकथित छात्र नेता थें, बिल्कुल मुन्ना भाई एमबीबीएस के तर्ज पर। इनमें इतनी भी समझ नहीं बची है कि एक शिक्षक के साथ कैसे पेश आया जाता है और कैसे उनका सम्मान किया जाता है। होगा भी कैसे? इन्हें बड़े-बड़े शिक्षकों और अधिकारियों का सानिध्य जो प्राप्त है, जिनसे इन्हें भारी भरकम फंडिंग मिलती है, जिसके बदले वे अपने मतलब के लिए विद्यार्थियों का दुरूपयोग कर उनके भविष्य से खेलते हैं। अचंभा तब और बढ़ जाता है जब शिक्षक इनके साथ बैठकर शराब का शेवन करते हैं और अश्लील गानों पर थिरकते हैं। इस तरह विद्यार्थियों के भविष्य को संवारने वाले शिक्षक उनके भविष्य को बिगाड़ने में लग जाते हैं।

अभी हाल ही में उच्च शिक्षा का एक बेहद जीवंत अनुभव देखने को मिला, जहाँ एक भ्रष्टाचारी और दुराचारी शिक्षक अपने विभाग के दो महिला शिक्षकों से दुर्व्यवहार करता है, उन्हें मानसिक तौर पर परेशान करता है, यहाँ तक की वेतन तक काट देता है, लेकिन ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के देश में संचालित इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में महिला शिक्षकों द्वारा शिकायत करने पर झूठे आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। ये कोई छोटे-मोटे शिक्षक नहीं हैं, इनके ऊपर लम्बे समय से भ्रष्टाचार और दुराचार के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इनकी बहन, बेटी और पत्नी भी इसी व्यवस्था की भेंट चढ़ेंगी, इस बात को यह भूल जाते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि दोषियों को भरपूर सह और सुविधा दे दी जाती है। सुविधा भी कोई छोटी-मोटी नहीं है। इन दोषियों को महीनों बिना सूचना और अनुमति के विभाग से गायब रहने पर पूरे वेतन का भुगतान कर दिया जाता है और छुट्टियाँ बची न होने पर एडवांस में छुट्टियाँ तक दे दी जाती है। अब शिक्षक ऐसे हों तो इनके शोधार्थी भी कहाँ पीछे हटने वाले हैं, वे भी महीनों बाद घूमते-फिरते आते हैं और एक ही दिन में महीने भर की उपस्थिति दर्ज करके चले जाते हैं।

सरकारी तंत्र में जंगल राज होता है ऐसा सुना तो था, लेकिन उच्च शिक्षा में भी यह जंगल राज इतना हावी हो सकता है, यह नहीं सोचा था। होगा भी क्यों नहीं, जिसकी लाठी, उसकी भैंस जो ठहरी। ये लोग ठीक उसी तर्ज पर कुल के पति को अपना भगवान मानते हैं जैसे भारतीय परंपरा में पत्नी अपने पति को मानती आ रही हैं। कुलपति इनकी गलतियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं और ये कुलपति के। जरा सोचिए जिस देश में कुलपतियों पर आये दिन भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न और चरित्र हनन का मामला लग रहा हो, वहाँ शैक्षणिक संस्थानों की क्या स्थिति होगी और यह होना लाजमी भी है क्योंकि इनकी नियुक्ति योग्यता देखकर नहीं बल्कि राजनितिक रुझान, पैसा कमाने और चापलूसी का हुनर देखकर हो रहा है। ऐसे तो नियुक्तियों में घुस लेने की ख़बरें हम पढ़ते रहते हैं, लेकिन कुछ समय पूर्व तो एक ऐसे भी कुलपति से भेंट हुई जो अपने विश्वविद्यालय में कैस, प्रमोशन और छुट्टियों तक में पैसा लेने लगे और इसे घुस का नाम न देकर डोनेशन का नाम दे दिया। यह जबरन लिया जाने वाला डोनेशन जिसने भी देने से इंकार किया वह वहीं ठहरा रह गया, जहाँ वह था। इन्होंने शिक्षकों को लैपटॉप भी दिया तो डोनेशन का फंडा लगा दिया गया। वैसे इस कार्य कुशलता और परिवारवाद का सफलतापूर्वक निर्वहन करने के कारण लोग इन्हें भगवान का दर्जा दे चुके हैं।

बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड के साथ-साथ देश के अन्य कई संस्थानों से किसी-न किसी रूप में जुड़ने का मौका मिल ही रहा है और स्थितियां कमोबेश एक जैसी ही मिल रही है। शिक्षक प्रायः मोटी-मोटी तनख्वाह लेकर अपने जीवन में तमाम सुख-सुविधायें तो खरीद लेते हैं, लेकिन अपने दायित्वों से पूरी तरह से विमुख हो जाते हैं। दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहाँ सबसे ज्यादा सम्मान शिक्षकों का ही होता है। लेकिन हमारे देश में एक हवालदार भी आ जाये तो शिक्षक को किनारे लगा दिया जाता है। यहाँ किसी भी शैक्षणिक कार्यक्रम का आगाज तब तक नहीं होता जब तक कोई मंत्री, विधायक आकर उसका शुभारंभ न करे। नेताओं के स्वागत में बड़े-बड़े शिक्षाविद् फूल-माला लेकर घंटों लाइन में खड़े रहते हैं, जिसमें विद्यार्थियों की भी भरपूर सहभागिता होती है। जबकि दूसरे देशों में शायद ही ऐसा होता है जो मैंने सिंगापुर में भी अनुभव किया।

आज के अधिकांश शिक्षक अध्ययन-अध्यापन छोड़ कर सब करते हैं। शोधार्थी भी शोध की अर्थी निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। विद्यार्थियों का उद्देश्य भी साम-दाम-दंड-भेद अपनाकर सिर्फ डिग्री प्राप्त करना रह गया है, जिसके कारण वह भी गंदी राजनीति का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

सौभाग्य से मैं उस धरती से हूँ, जिसने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिया। नालंदा जैसा विश्वविद्यालय दिया, जिसने भारत को विश्वगुरु बनाया। शायद इसीलिए ज्ञान के महत्व को बचपन से ही महसूस करती रही हूँ। इत्तेफाक से जन्म गया में हुआ, जिसे मोक्ष नगरी कहा जाता है और ज्ञान ही मोक्ष का उत्तम मार्ग है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन जब ज्ञान के नाम पर गोरख धंधा होने लगे, उसके निजीकरण और व्यवसायीकरण को प्राथमिकता दी जाने लगे तब उसका पतन तय हो जाता है। आज के शिक्षक इवेंट मेनेजर और डाटा इंट्री ऑपरेटर बनकर रह गए हैं। जनगणना हो या चुनाव हर जगह इन्हें ड्यूटी पर तैनात कर दिया जाता है। पीएच.डी. धारकों अथवा बेरोजगारों को 10-15 हजार रूपये में विभाग के सारे काम कराये जा रहे हैं। इनकी स्थिति मजदूरों से भी बुरी हो चुकी है। इस देश में शिक्षा के लिए बजट न्यूनतम प्रदान किया जाता है। पाठ्यक्रम सरकारी घोषणापत्र बनता जा रहा है। शैक्षणिक संस्थानों में कार्यक्रमों के दौरान शिक्षाविद् भाषण ऐसे देते हैं जैसे चुनाव में नेता। आज वैसे शिक्षक कहाँ और कितने हैं, जिसके व्यक्तित्व से स्वतः ही समाज में आदर्श मूल्य स्थापित हो जाया करता था। क्या ऐसी स्थिति में भारत सच में विश्वगुरु बन पायेगा? या फिर हम ऐसे समय, काल और परिस्थिति में शिक्षक दिवस के मायने समाज में स्थापित कर पाएंगे? इस पर विचार करना आवश्यक है। समाज के लिए जो विद्यार्थी और शिक्षक त्याग और समर्पण के प्रतिमूर्ति हुआ करते थे, आज वही लालच और स्वार्थ के दूत बनकर रह गए हैं

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अमिता

लेखिका स्वतंत्र लेखक एवं शिक्षाविद हैं। सम्पर्क +919406009605, amitamasscom@gmail.com
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