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सआदत हसन मंटो क़ब्र
साहित्य

एक बेपरवाह अफसाना निगार

 

सआदत हसन मंटो की क़ब्र के कुत्बा (समाधि लेख) से माख़ूज़..

‘यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़्न हैं, उसके सीने में फ़न-ए-अफ़साना निगारी के सारे असरार-व-रमूज़ दफ़्न हैं। वो अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफ़साना निगार है या ख़ुदा?’….  झूठी दुनिया का सच्चा अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो की यौमे पैदाइश पर ख़ाकसार अब्दुल ग़फ़्फ़ार उन्हें ख़िराजे अक़ीदत पेश करता है – 

मंटो की ज़िंदगी उनके अफ़सानों की तरह न सिर्फ़ ये कि दिलचस्प बल्कि मुख़्तसर भी थी। सिर्फ़ 42 साल 8 माह और चार दिन की छोटी सी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा मंटो ने अपनी शर्तों पर, निहायत लापरवाई और लाउबालीपन से गुज़ारा। उन्होंने ज़िंदगी को एक बाज़ी की तरह खेला और हार कर भी जीत गए। 

मंटो की बेलाग और निष्ठुर यथार्थवाद ने अनगिनत आस्थाओं और परिकल्पनाओं को तोड़ा और हमेशा ज़िंदगी के अंगारों को नंगी उंगलियों से छूने की जुरअत की। उन्होंने अफ़साने को हक़ीक़त और ज़िंदगी से बिल्कुल क़रीब कर दिया और उसे ख़ास पहलूओं और ज़ावियों से पाठकों तक पहुंचाया। अवाम को ही किरदार बनाया और अवाम ही के अंदाज़ में अवाम की बातें कीं। इसमें शक नहीं कि फ़िक्शन में प्रेम चंद और मंटो की वही हैसियत है जो शायरी में मीर और ग़ालिब की। 

वरिष्ठ पत्रकार रफ़ीक़ बग़दादी लिखते हैं- “मंटो की कहानियां गुरुदत्त की ‘प्यासा’ फ़िल्म की तरह हैं। जब मंटो ज़िंदा थे तब किसी ने उनकी तारीफ़ नहीं की और जब वो दुनिया में नहीं रहे तब सब उनका बख़ान कर रहे हैं।” 

वो आगे लिखते हैं – “पुरानी पीढ़ी मंटो को नहीं पढ़ा करती थी। एक टैबू था। उस दौर में बहुत पाबंदियां थीं जो आज नहीं हैं। आज शिक्षा प्रणाली बदल गई है। आज की पीढ़ी को दिक़्क़त नहीं होती समझने के लिए कि मंटो ने ऐसा क्यों लिखा।”

रंगकर्मी और कथा-कथन के संचालक जमील गुलरेज़ का कहना है कि ”मंटो के बार में ये ग़लतफ़हमी है कि वो सिर्फ़ तवायफ़ों के बारे में लिखते थे जबकि उन्होंने हर चीज़ पर लिखा है।” 

उनका ये भी कहना है कि ”मंटो में युवा पीढ़ी की दिलचस्पी है क्योंकि उनकी कुछ कहानियां सेक्स की बात करती हैं जो उत्तेजित करती हैं। पर असली मंटो को कोई नहीं जानता।”

मंटो की कहानियाँ जितने विवाद और शोर खड़ा करती थीं उतनी ही लोकप्रिय भी होती थीं। 1945 में उन्होंने एक कहानी के बारे में अली सरदार जाफ़री से कहा था, ये कहानी लिखने में मुझे मज़ा नहीं आया। न ही किसी ने मुझे गाली दी और न ही किसी ने मेरे ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया। 

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मंटो का पसंदीदा तकिया कलाम होता था ‘फ़्रॉड’। अली सरदार जाफ़री लिखते हैं, ‘हमेशा क़रीने की ज़बान बोलने वाले लोगों को मंटो की ज़बान चुभ सकती थी। लेकिन मंटो ही जानते थे कि ज़बान के काँटों को फूल किस तरह बनाया जाता है। उन्होंने अपशब्दों को उस ऊँचाई तक पहुंचा दिया था कि वो उनके मुंह से साहित्य और कला का सबसे बड़ा नमूना लगते थे। जब भी कोई पत्रिका प्रकाशित होती थी, हम उसमें सबसे पहले मंटो का लिखा पढ़ते थे। हमारी दिलचस्पी ये जानने में होती थी कि मंटो ने किसको गाली दी है या किसको अपना निशाना बनाया है और समाज के किस छिपे हुए पहलू को उन्होंने उजागर किया है।’

एक रोज़ देवेंद्र सत्यार्थी ने मंटो को टेलीफ़ोन किया। उधर से मंटो जब लाइन पर आए तो उन्होंने फ़ोन पर उन्हें जमकर खरी खोटी सुनाई। ऐसी-ऐसी कड़वी बातें बोलीं, ऐसे-ऐसे उलाहने दिए कि कोई और होता तो ग़ुस्से से आग बबूला हो जाता। मगर देवेंद्र ने उनकी खरी खोटी का कोई जवाब नहीं दिया। ख़ौफ़नाक ग़ुस्से में मंटो आग उगलते रहे और देवेंद्र फोन पर मीठी-मीठी बातें करते रहे। आख़िरकार ग़ुस्से में मंटो ने फ़ोन रख दिया।

मंटो की बीवी सफ़िया तब उनके बग़ल में ही बैठी थीं। वह मंटो पर बिगड़ीं कि देवेंद्र को फ़ोन पर इस तरह से नहीं बोलना चाहिए था। तब सआदत हसन मंटो ने कहा, ‘सफ़िया, अगर देवेंद्र भी मुझे गाली देता, मुझ पर ग़ुस्सा करता, तो मुझे बुरा नहीं लगता। बल्कि तब तो मैं उसके पास पहुंचकर, लपककर उसे सीने से लगा लेता। मगर उसने जवाब में सिर्फ़ सादी और सीधी बातें की, जो उसके दिल से अलग थीं। उसके दिल और ज़बान में हमेशा तज़ाद रहता है और मुझे दिल और ज़ुबान में फ़र्क़ रखने वालों से इन्तेहाई नफ़रत होती है।’

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मंटो की न सिर्फ़ नज़र बारीक थी, बल्कि वो दूर की भी सोचते थे। एक बार मंटो, कृष्ण चंदर और अहमद नसीम क़ासिमी ने मिलकर एक फ़िल्म ‘बंजारा’ की कहानी, डॉयलॉग और गीत लिखे। इन सबको मनोरंजन पिक्चर्स की तरफ़ से सब कामों के लिए 2,000 रुपए का एकमुश्त भुगतान होना था। 

अहमद नदीम क़ासिमी लिखते हैं, ‘जब हम पैसे लेने गए तो मंटो ने मुझे सलाह दी कि अगर सेठ किसी शब्द को बदलने के लिए कहे तो उस पर तुरंत राज़ी हो जाना। तुम शायर लोगों का अहम बहुत बड़ा होता है। उससे किसी बात पर बहस मत करना, नहीं तो हमारा भुगतान रुक जाएगा। सेठ ने मेरे एक गीत में नुक़्स निकालते हुए कहा, आप ‘तमन्ना’ शब्द को बदल कर ‘आशा’ कर दीजिए। मैं ऐसा करने ही वाला था कि मंटो बीच में बोले, सेठ जी! ‘तमन्ना’ यहाँ सबसे मुनासिब लफ़्ज़ है। हम कोई लफ़्ज़ नहीं बदलेंगे। अगर आप इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते तो हमें जाने की इजाज़त दें। सेठ नर्वस हो गया, उसने कहा – अच्छा ठीक है ‘तमन्ना’ शब्द को न बदला जाए।’

ये तीनों शख़्स सेठ के बंगले से 2,000 रुपए का चेक लेकर बाहर निकले। मंटो ने कहा हमें ये चेक फ़ौरन भुना लेना चाहिए। कृष्ण चंद्र ने कहा इतनी जल्दी क्या है? हम इसे कल भी भुना सकते हैं। लेकिन मंटो ने कहा तुम इन फ़िल्म वाले सेठों के बारे में नहीं जानते। पता नहीं कब इनका दिमाग़ फिर जाए। बहरहाल चाँदनी चौक के एक बैंक में उस चेक को भुनाया गया। 

अहमद नदीम क़ासमी आगे लिखते हैं, ‘जब हम मंटो के घर पहुंचे तो देखते क्या हैं कि सेठ का मुंशी वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहा था। उसने कहा कि सेठ ने फ़िल्म बनाने का इरादा तर्क कर दिया है। आप वो चेक वापस कर दें। मंटो ने हमारी तरफ़ जीत के अंदाज़ में देखा और मुंशी की तरफ़ मुड़कर बोले, अपने सेठ से जाकर कह दो कि चेक को भुना लिया गया है और अब वो रक़म वापस नहीं की जा सकती। मैं और कृष्ण चंदर मंटो की दूरदृष्टि की दाद दिए बग़ैर नहीं रह सके।’

पाकिस्तान पहुंचने के कुछ ही दिनों बाद उनकी कहानी “ठंडा गोश्त” पर अश्लीलता का आरोप लगा और मंटो को 3 माह की क़ैद और 300 रूपये जुर्माने की सज़ा हुई। सज़ा के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की साहित्य मंडली से कोई विरोध नहीं हुआ, उल्टे कुछ लोग ख़ुश हुए कि अब मंटो का दिमाग़ ठीक हो जाएगा। इससे पहले भी उन पर इसी इल्ज़ाम में कई मुक़द्दमे चल चुके थे लेकिन मंटो सब में बच जाते थे। सज़ा के बाद मंटो का दिमाग़ ठीक तो नहीं हुआ, अलबत्ता सच-मुच ख़राब हो गया। यार लोग उन्हें पागलखाने छोड़ आए। इस बेकसी, अपमान के बाद मंटो ने एक तरह से ज़िंदगी से हार मान ली। शराबनोशी हद से ज़्यादा बढ़ गई। कहानियां बेचने के सिवा आमदनी का और कोई माध्यम नहीं था। अख़बार वाले 20 रुपये दे कर और सामने बिठा कर कहानियां लिखवाते। हर परिचित और अपरिचित से शराब के लिए पैसे मांगते हैं। बच्ची को टायफ़ॉइड हो गया, बुख़ार में तप रही थी। घर में दवा के लिए पैसे नहीं थे, बीवी पड़ोसी से उधार मांग कर पैसे लाईं और उनको दिए कि दवा ले आएं, वो दवा की बजाए अपनी बोतल लेकर आ गए। सेहत दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी लेकिन शराब छोड़ना तो दूर, कम भी नहीं हो रही थी।

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43 साल की उम्र में मरने से एक दिन पहले मंटो काफ़ी देर से अपने घर लौटे और ख़ून की उल्टी करने लगे। जब उनके छह साल के नाती ने उस तरफ़ उनका ध्यान दिलाया तो उन्होंने उसे पान की पीक कहकर टालने की कोशिश की। उन्होंने उस बच्चे से ये भी वादा ले लिया कि वो इसका ज़िक्र किसी से भी नहीं करेगा। रात के आख़िरी पहर में उन्होंने अपनी बीवी सफ़िया को जगाकर कहा, मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है, लगता है मेरा लिवर फट गया है। सुबह ऐंबुलेंस में लादकर उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा था कि उन्होंने रस्ते में ही दम तोड़ दिया। 

मंटो ने एक जगह लिखा, “अगर मेरी मौत के बाद मेरी तहरीरों पर रेडियो, लाइब्रेरीयों के दरवाज़े खोल दिए जाएं और मेरे अफ़सानों को वही रुत्बा दिया जाए जो इक़बाल मरहूम के शे’रों को दिया जा रहा है तो मेरी रूह सख़्त बेचैन होगी, और मैं उस बेचैनी के बरक्स उस सुलूक से बेहद मुतमईन हूँ जो मुझसे जीते जी रवा रखा गया है। 

मतलब मंटो कह रहे थे, ज़लीलों मुझे मालूम है कि मेरे मरने के बाद तुम मेरी तहरीरों को उसी तरह चूमोगे और आँखों से लगाओगे जैसे पवित्र ग्रंथों को लगाते हो। लेकिन मैं लानत भेजता हूँ तुम्हारी इस क़दरदानी पर, मुझे उसकी कोई ज़रूरत नहीं।

अपने 20 साल के लेखन में मंटो ने 270 अफ़साने 100 से ज़्यादा ड्रामे, कई फिल्मों की कहानियां, पटकथा व संवाद और ढेरों नामवर और गुमनाम शख़्सियात के रेखा चित्र लिख डाले। भारत ने तो नहीं लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें आख़िर में “निशान-ए-इम्तियाज़” से नवाज़ा

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