चर्चा में

सुशांत और कंगना

 

आज राम लला का दिन है। ऐसे दिन में सुशांत को याद करना मुनासिब नहीं। लेकिन राम लला को जिस अदालत ने न्याय दिया और वे विजयी होकर अयोध्या लौट सके हैं, उसी न्याय व्यवस्था से सुशांत की आत्मा भी न्याय की गुहार लगा रही है। सबको भरोसा है कि जो राम लला को न्याय दे सकता है, वह सुशांत को भी निराश नहीं करेगा। सुशांत के हत्यारों को सजा मिलेगी। चाहे वह नेपोटिज्म ही क्यों न हो या फिर कोई और कॉनसार्टियम ही क्यों न हो!

सुशांत के मरने से इनसाइडर और आउटसाइडर का इश्यू जूम इन हो गया है। वैसे देखें तो आउटसाइडर और प्रवासी शब्द समान अर्थ और संस्कृति की अभिव्यक्ति हैं।

कोरोना काल में जिस शान से प्रवासी शब्द उछाला गया, वह अनायास नहीं था।

एक जमाना वह था जब सिनेमा जगत को कैटर करने के लिए पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में अभिनय की कक्षा होती थी और प्रशिक्षण दिया जाता था। जत्थे के जत्थे वहाँ से मुंबई आए। मौका पाया। कमाया खाया। लेकिन यह सच है कि उसमें से कोई ऐसा समर्थ अभिनेता नहीं आया जो फिल्म को अपने बल पर बॉक्स ऑफिस पर हिट कर दे। शत्रुघ्न सिन्हा अपवाद के एक नाम हो सकते हैं। लेकिन उनकी स्तम्भन क्षमता कमतर ही सिद्ध हुई।

एनएसडी से दर्जनों अभिनेता मुंबई आए। इन्होंने अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवा लिया। लोहा तो मनवाया लेकिन चने चबाने को भी मजबूर रहे। चना चबाते रहे लेकिन बॉलीवुड का दरवाजा इनके लिए कभी नहीं खुला। इन्होंने अपनी समानांतर दुनिया अवश्य बनाई, मगर हाशिए में ही। इज्जत और शोहरत अवश्य कमाई, मगर हाशिए पर ही। इनकी हैसियत बॉलीवुड में किसान की तरह ही रही। मरते नहीं हैं तो क्या हुआ, मरे मरे ही रहते हैं। ये सिनेमा बाजार को प्रभावित नहीं कर पाते। ये उसका हिस्सा नहीं बन पाते। मजदूर भर रह जाते हैं। प्रवासी, बिल्कुल प्रवासी। और इसे ही वे अपनी नियति भी मान लेते हैं।

अगर बॉलीवुड उद्योग है तो उद्योग के नियम और चलन से ही चलेगा। लेकिन चलन हमेशा नियम के अनुकूल नहीं होता। नीयत के अनुकूल होता है। पूरी दुनिया में उद्योग और राजनीति वर्चस्व प्रेरित है। तभी इनकी गांठ आपस में बंधी रहती है। जहाँ वर्चस्व ही प्रेरणा हो वहाँ सब जायज होता है। अपराध भी वर्चस्व की अभिव्यक्ति है। उद्योग, राजनीति और अपराध वह तिकड़ी है जो सब की डोर अपनी अंगुलियों में बाँध कर रखना चाहती है। थ्री इडियट्स। काबू में रखना इनकी पहली आचार संहिता है। उठ तो उठ। बैठ तो बैठ। इनका पहाड़ा ही उठक बैठक से शुरू होता है। उठक बैठक की शुरुआत बैठकी से होती है। चापलूसी से होती है। रिरियाने – मिमयाने से होती है। प्रतिभा और व्यक्तित्व से इनकी फटती है। तभी इन्हें तरह तरह से ठिकाने लगाते रहते हैं। ठोंकते रहते हैं।

सुशांत को ठिकाने लगा दिया गया। मरने से पहले ही उसे मारा गया। क्योंकि वह हाशिए के दायरे में नहीं रह सका। हाशिए से निकल कर बॉलीवुड बाजार में अपना हिस्सा लगातार बढ़ाता गया। वह भी किसी की बदौलत नहीं, अपनी प्रतिभा और अपनी निष्ठा की वजह से। कहते भी हैं कि जिसका कोई नहीं होता उसकी मेहनत उसकी होती है। अपनी मेहनत के बल पर वह अपना मुकाम बना रहा था। सुशांत ऐसा अकेला नहीं था। कंगना भी एक ऐसी ही है। वह भी बॉलीवुड बाजार में डंके की चोट पर खड़ी है। उसका भी बल उसकी समझ और उसकी प्रतिभा है। इसीलिए उसे ठोंका जाता रहता है। ठिकाने लगाने की कोशिश होती रहती है। न जाने कब फाइनली ठोंक ही दी जाए। मारना ही फाइनल ठोंकाई नहीं होती है। जीना मुहाल करना और पाँव  के नीचे से जमीन खींच लेना भी ठिकाने लगाना ही है। सुशांत के साथ ऐसा ही हुआ न?

रामलला विराज चुके हैं। हम राम राज्य की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं।

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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