एक स्त्री ने रचा मुक्ति का आख्यान
- सुधीर विद्यार्थी
यह जानना कितना रोमांचकारी है कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के समय काकोरी कांड के मुकदमे की पैरवी के लिए सुशीला दीदी ने अपनी शादी के लिए रखा हुआ दस तोला सोना उठाकर दान में दे दिया था। साइमन कमीशन का विरोध करते समय लाला लाजपतराय पर लाठियां बरसाने वाले ब्रिटिश पुलिस अफसर साण्डर्स को मारने के बाद भगतसिंह जब दुर्गा भाभी के साथ छद्म वेश में कलकत्ता पहुंचे तब वहां रेलवे स्टेशन पर उनका स्वागत करने सुशीला दीदी और भाभी के पति (शहीद) भगवतीचरण ही पहुंचे थे। भाभी ने एक बार अपनी स्मृतियों को कुरेदते हुए बताया था–‘मैं और भगतसिंह जब लखनऊ पहुंच गए तो वहीं प्लेटफार्म से सुशीला दीदी को कलकत्ता तार दे दिया था ताकि वे स्टेशन पर मिल सकें। तार में मेरे नाम की जगह भगतसिंह ने ‘दुर्गावती’ लिख दिया था जिससे कि खुफिया पुलिस को पता न चले। सुशीला दीदी सोचती रहीं कि–ये दुर्गावती कौन है? यद्यपि यही सुशीला दीदी थीं जिन्होंने मुझे पहले-पहल ‘भाभी’ कहना शुरू किया था।’
उस समय सुशीला दीदी कलकत्ता में सेठ सर छाजूराम चैधरी की बेटी सावित्री की गृहशिक्षिका थीं। छाजूराम बहुत बड़े आदमी थे जिन्हें अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि थी। पर वे थे राष्ट्रीय विचारों के। उन्होंने अपनी बेटी को मिशनरी स्कूल न भेज कर जालंधर कन्या महाविद्यालय से ऐसी अध्यापिका की मांग की जो उनके घर पर रह कर उसे राष्ट्रीय संस्कारों की शिक्षा दे सके। वहां की प्रधानाचार्या श्रीमती शन्नोदेवी ने सुशीला दीदी को अपने विद्यालय की नौकरी छुड़वा कर इस कार्य के लिए कलकत्ता छाजूराम जी के घर भेज दिया। वे सेठ जी के परिवार के साथ ही सेन्ट्रल एवेन्यू वाले मकान में रहती थीं उनका अपना कमरा अलग था। सुशीला दीदी ने थोड़े ही दिनों में उस परिवार का मन जीत लिया। भगतसिंह जब फरार होकर कलकत्ता आए तो दीदी ने उन्हीं के घर ठहराना उचित समझा। उन्होंने सेठ जी पत्नी लक्ष्मीदेवी को सब कुछ बताकर इस जोखिम भरे कार्य के लिए तैयार कर लिया था। ऐसा था दीदी का प्रभाव और व्यक्तित्व। क्या यह कम अचरज की बात है कि साण्डर्स को मार कर आए भगतसिंह ब्रिटिश सरकार से ’सर’ का खिताब पाए रईस के घर में शरण पाएं। कहा जाता है कि लक्ष्मीदेवी ने दीदी को भगतसिंह की सुरक्षा का वचन देते हुए कहा था–‘वह (भगतसिंह) हमारे बेटे की तरह रहेगा।’ और यह वचन पूरा भी किया सेठ जी के परिवार ने। एक रोज यह हुआ भी कि सशस्त्र पुलिस ने सेठ छाजूराम की कोठी को घेर लिया। भगतसिंह ने तय कर लिया कि वे पुलिस को दिखा देंगे कि एक क्रांतिकारी किस तरह लड़ता है। उन्होंने मोर्चा संभाल लिया। रिवाल्वर भर कर वे जीने के पास तन कर खड़े हो गए। पर दीदी उन्हें धकियाते हुए कमरे के भीतर ले गईं। बोली–‘उताबली करना ठीक नहीं। षांत होकर यहां बैठो। मैं देखती हूं कि आखिर बात क्या है, पुलिस क्यों आई है।’ दीदी बाहर आईं तो मालूम हुआ कि मामला कुुछ और ही है। पुलिस वहीं ठहरे हुए प्रसिद्ध आर्यसमाजी देशभक्त भवानी दयाल सन्यासी की तलाश में आई है जिन पर सरकार के विरूद्ध भाषण देने का आरोप है। स्वामी जी कोठी में नहीं मिले तो पुलिस वापस चली गई। अब भगतसिंह ने राहत की सांस ली और दीदी ने भी।
सुशीला दीदी ने कभी लिखा था–‘……..जुग-जुग गगन लहरावे झण्डा भारत दा।’
यह उस समय की बात है जब 1921 गांधी जी को छह साल की सजा हुई थी। देशबंधु चितरंजन दास एक बार लाहौर आए तो दीदी ने एक सार्वजनिक सभा में अपना यह पंजाबी गीत सुनाया जिस पर देशबंधु रो पड़े। भारत-कोकिला सरोजनी नायडू भी उनका गीत सुनकर भाव विभोर हो उठी थीं। राष्ट्रभक्ति की कविताएं लिखना उन्होंने छोटी उम्र से शुरू कर दिया था। 5 मार्च 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ (अब पाकिस्तान) में जन्मीं दीदी की शिक्षा जालंधर के आर्य कन्या महाविद्यालय में हुई जहां वे 1921 से 1927 तक रहीं। पिता डॉ. कर्मचन्द सेना में चिकित्साधिकारी थे पर उनके ऊपर आर्यसमाजी विचारों का गहरा प्रभाव था। सुशीला दीदी भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। पिता फौज की नौकरी में थे। मां बचपन में ही नहीं रहीं इसलिए सभी बच्चे गुजरांवाला में अपने चाचा के यहां रहते थे और बड़े होने के कारण भाई-बहनों की जिम्मेदारी सुशीला दीदी पर ही अधिक थी। अपने दो भाइयों और तीन बहनों को स्कूल भेजने लायक बड़ा करने तक उन्होंने घर का कामकाज ही संभाला। यही कारण था कि उनकी शिक्षा देर से शुरू हुई। इसी दौरान पंजाब से कुछ छात्राओं का एक दल देहरादून हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिस्सेदारी करने गया। इसमें सुशीला दीदी भी थीं। वहां उनकी मुलाकात लाहौर के नेशनल कालेज से आए कुछ छात्रों से हुई जो क्रांतिकारी दल से जुड़े थे और वे भगतसिंह आदि से परिचित थे। इसके बाद दीदी भगवतीचरण और उनकी क्रांतिकारिणी पत्नी दुर्गा देवी (भाभी) से मिलीं।
19 दिसम्बर 1927 को काकोरी के चार क्रांतिकारियों की फांसी की सजा का समाचार जब दीदी को मिला तो वे बेहोश हो गईं। उस रोज उनका बीए का पहला पर्चा था और वे परीक्षा हॉल में बैठी हुई थीं।
पिता को यह सब खबर लगी तो उन्होंने बेटी को समझाया कि पढ़े और राजनीति से दूर रहे। यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो उनकी नौकरी पर भी बात आ सकती है। पर दीदी को यह कहां सुहाता। पहली बगावत उन्होंने घर से ही की। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि उनके लिए देश का ध्येय जीवन से छूटेगा नहीं, घर छूटे तो छूटे। इस तरह दीदी ने अपने जीवन की लकीर स्वयं खींच डाली। वे दो साल तक लौटी ही नहीं। देश का काम करने के लिए उन्होंने क्रांतिकारी मार्ग का अनुसरण कर लिया। सेना से अवकाश के पश्चात पिता भी नौकरी की ओर से मुक्त हो गए। अब उनके भीतर भी बड़ा परिवर्तन आया। वे भी ‘रायसाहबी’ और ‘युद्ध-सेवा मेडल’ ठुकरा कर राष्ट्रवादी बन बैठे। लेकिन बेटी तो इस रास्ते पर बहुत दूर जा चुकी थी। वह वहां पहुंच गईं जिस जगह देश के शीर्षस्थ क्रांतिकारी देश की आजादी के लिए जीवन और मरण का खेल खेल रहे थे। अब चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह की सहयोगिनी थीं सुशीला दीदी।
जब क्रांतिकारी दल ने 8 अपै्रल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को केन्द्रीय असेम्बली में बमों का विस्फोट करने के लिए भेजना तय किया उस समय भी भाभी लाहौर में थीं। एक्शन से एक दिन पहले दोपहर बाद सुखदेव ने भगवती भाई को तलाश किया। बोले–‘भगतसिंह से अंतिम बार मिल लेना चाहते हो तो आज रात की गाड़ी से दिल्ली चलो।……भाभी को भी साथ ले लो।’ उस समय सुशीला दीदी भी लाहौर में भगवती भाई के यहां ठहरी हुई थीं। वे भी साथ गईं। लाहौर से कलकत्ता तक की यात्रा में भाभी का तीन वर्ष का पुत्र शची भगतसिंह से बहुत हिल गया था। भगवती भाई के साथ भाभी और सुशीला दीदी को दिल्ली चले तो शची भी साथ में था। 8 को प्रातः दिल्ली पहुंचकर सुखदेव ने उन लोगों से कश्मीरी गेट के पास निकलसन पार्क में प्रतीक्षा करने को कहा और स्वयं कहीं और चले गए। कुछ ही समय बीता कि सुखदेव के साथ भगतसिंह वहां आ गए। इस पर कोई चर्चा नहीं हुई कि क्या होने जा रहा है। भगतसिंह को रसगुल्ले और संतरे बहुत पसंद थे इसलिए दीदी और भाभी ये सब साथ लेकर आई थीं। विदा करने से पहले दोनों क्रांतिकारी महिलाएं भगतसिंह को उनकी मनपसंद चीजें खिला रही हैं। दीदी ने भगतसिंह से बहुत कहा–‘तुम इस काम के लिए न जाओ। भैया (आजाद) का कहना मान जाओ। अभी देश को बहुत जरूरत है तुम्हारी।’ परन्तु भगतसिंह नहीं माने। बोले–‘दीदी, अब विदा करो।’ फिर भगतसिंह ने झुककर उनके पांव छुए। कहा–‘आशीर्वाद न दोगी?’ दीदी और भाभी ने अपने अंगूठे को चीर कर रक्त से भगतसिंह के माथे पर तिलक किया और उन्हें अश्रुपर्ण विदाई दी।
भगतसिंह और उनके साथियों पर जब ‘लाहौर षड्यन्त्र केस’ चला तो दीदी भगतसिंह के बचाव के लिए चंदा जमा करने कलकत्ता पहुंचीं। सुभाष बाबू ने भवानीपुर में एक सभा करके दीदी को मंच पर बैठाया और जनता से ‘भगतसिंह डिफेन्स फंड’ के लिए धन देने की अपील की। कलकत्ता में दीदी ने अपने इस अभियान के लिए अपनी महिला टोली के साथ ‘मेवाड़ पतन’ नाटक का मंचन करके भी 12 हजार रूपए जमा किए थे।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को जेल से छुड़ाने की योजना बनी तो सुशीला दीदी कलकत्ता की अपनी नौकरी छोड़कर पूरे समय दल के काम में लग गईं। वे अपनी जगह छोटी बहन शांता (विवाह के बाद शांता बल्देव) को अपनी जगह नौकरी पर लगाकर कलकत्ता से लाहौर आ गईं। भगतसिंह और दत्त को जेल से छुड़ाने के लिए आजाद के नेतृत्व में दल के सदस्य रवाना हुए तब भी सुशीला दीदी ने ही अपनी उंगली काटकर रक्त से उनके माथे पर टीका किया था। पर यह योजना कामयाब नहीं हुई। अज्ञातवास में जाने से पहले दीदी ने भगतसिंह को जेल के भीतर अपनी राखी के साथ जो पत्र भेजा उसके प्रकाशन पर एक ‘स्वतंत्र भारत’ के संपादक श्री भागवत को राजद्रोह के आरोप में दस हजार रूपए जुर्माना और छह साल की कैद की सजा हुई थी।
सुशीला दीदी के नाम तब दो गिरफ्तारी वारन्ट थे। उन्हें पकड़वाने के लिए ईनाम भी घोषित किया गया था। फिर भी 1932 में प्रतिबंधित कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में वे ’इन्दु’ नाम से एक महिला टोली का नेतृत्व करते हुए जेल पहुंच गईं और छह महीने की पूरी सजा काटकर बाहर आईं लेकिन सरकार को असलियत को पता भी न चला कि यह ‘इन्दु’ ही सुशीला दीदी हैं। आगे चल कर दीदी भी एक दिन पुलिस के हाथ आ गईं। पार्लियामेन्ट स्ट्रीट वाले थाने में ले जाकर रखा गया उन्हें। पर उन पर मुकदमा चलाने का आधार नहीं मिला पुलिस वालों को। इसके बाद दीदी को आदेश मिला कि वे 24 घंटे के अंदर दिल्ली छोड़ दें।
अब दीदी अपने घर पंजाब चली गईं। वहीं 1933 में उन्होंने दिल्ली के अपने सहयोगी वकील श्याम मोहन से विवाह कर लिया। इसके बाद वे ’सुशीला मोहन’ बन गईं। बयालिस आया तो दीदी ने इस बार पति के साथ ही 24 अक्टूबर 1942 को जेल यात्रा की। सरकार ने श्याम मोहन को दिल्ली और दीदी लाहौर की जेल में रखा।
कई वर्ष पहले मुझे दिल्ली के एक मित्र ने बताया कि दीदी आजादी के बाद पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में एक शिल्प विद्यालय का संचालन करने लगी थीं। उन्होंने यह भी जानकारी दी उस विद्यालय के प्रधानाचार्य कक्ष में सुशीला दीदी का एक चित्र लगा हुआ है पर वहां उनके बारे में कोई नहीं जानता।
अपने जीवन के बाद के दिनों में दीदी लगभग मौन रहने लगी थीं। कोई कुछ कहता या पूछता तो वे खामोश रह जातीं। कभी बोल फूटता भी तो यही कि जब देश को जरूरत थी, मैंने अपना फर्ज पूरा किया। अब कुछ कहूंगी तो लोग समझेंगे कि उन सेवाओं का बदला चाहती हूं मैं। कभी झांसी वाले इसी अनोखे क्रांतिकारी ने सुशीला दीदी को ‘भारत की जोन ऑफ़ आर्क’ कहा था। सचमुच दीदी थीं भी इसी जीवट की। उनका निधन 3 जनवरी 1963 को हुआ।
दिल्ली में फतेहपुरी से चांदनी चैक घंटाघर तक जाने वाली सड़क का नाम ’सुशीला मोहन मार्ग’ रखा गया था, पर वहां सुशीला (दीदी) मोहन के नाम और काम से कोई परिचित नहीं।