नागालैंड एकबार फिर सुर्ख़ियों में है। इसकी असल वजह हिंसावादी संगठन एन.एस.सी.एन.(आईएम) की नयी माँगें हैं। उसने न सिर्फ शान्ति-वार्ताकार श्री आर.एन.रवि को हटाने की माँग की है, बल्कि नागालैंड के लिए अलग ध्वज और संविधान की माँग भी की है। जम्मू-कश्मीर के पृथक ध्वज और संविधान की समाप्ति की पहली वर्षगाँठ पर की गयी यह माँग बेतुकी न होकर रणनीतिक है। दरअसल, यह संगठन इस माँग की आड़ में न सिर्फ ‘सौदेबाजी’ करना चाहता है, बल्कि अपनी क्रमशः क्षीण होती प्रतिष्ठा और प्रासंगिकता बहाल करना चाहता है। उल्लेखनीय है कि शान्ति-वार्ताकार श्री आर.एन. रवि और मुइवा के बीच अविश्वास और दूरियाँ क्रमशः बढ़ती जा रही हैं। आपसी विश्वास और दूरियाँ पैदा होने की वजहें बड़ी साफ़ हैं। एन.एस.सी.एन. (आईएम) स्वयं को नागा हितों का एकमात्र प्रहरी और पोषक संगठन मानता है, जबकि शान्ति-वार्ताकार श्री आर.एन.रवि की समझ और अनुभव इससे बिल्कुल अलग है।
उनके अनुसार व्यापक नागा समाज के बीच इस संगठन की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता संदिग्ध है। अपनी दुर्दान्तता और नृशंसता के बावजूद अब यह संगठन नागा समुदाय की आशा-आकांक्षाओं की प्रतिनिधि या एकमात्र आवाज़ नहीं है। इसलिए केवल उससे शान्ति-वार्ता करके नागा-समस्या का समग्र और स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। उनके द्वारा नागाओं के अन्य संगठनों और समूहों के साथ भी शान्ति-वार्ता शुरू करने से एन.एस.सी.एन.(आईएम) भड़क उठा है। परिणामस्वरूप उसने शान्ति-वार्ता और संघर्ष-विराम से कदम खींचना और पुनः जंगलों में लौटकर सशस्त्र संघर्ष शुरू करने की धमकी देना शुरू कर दिया है। यह उसका रणनीतिक कदम है और इसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय उसके वास्तविक मंसूबों को जानना बेहद जरूरी है।
सन् 2014 में मोदी सरकार और एन.एस.सी.एन.(आईएम) के बीच हुए समझौते और संघर्ष-विराम की शर्तों में भी इस गतिरोध के बीज देखे जा सकते हैं। इस समझौते में इस हिंसावादी संगठन ने कई अनुचित मांगों को डलवाया था। उसने सुनिश्चित किया कि संघर्ष-विराम केवल भारत सरकार के सुरक्षा-बलों और एन.एस.सी.एन.(आईएम) के बीच हो, ताकि अन्य सशस्त्र नागा संगठनों और शान्ति-प्रिय नागा-समूहों के खिलाफ उसकी हिंसा और दहशतगर्दी निर्विघ्न जारी रह सके। नागालैंड में कुल 14 नागा समुदाय रहते हैं। उनकी संख्या कुल नागा जनसंख्या का 80 फीसद है। इन समुदायों के अलग-अलग छात्र संगठन, महिला संगठन और गाँव बूढ़ा संगठन,नागा ट्राइब्स कौंसिल और नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप जैसे अनेक प्रभावी संगठन हैं, जोकि नागा अस्मिता और अधिकारों के लिए शान्तिपूर्ण ढंग से कार्यरत हैं। इसके अलावा 7 सशस्त्र संगठन भी हैं जो भूमिगत सक्रिय हैं।
इन संगठनों के साथ एन.एस.सी.एन.(आईएम) की हिंसक प्रतिद्वंद्विता है। भारतीय सेना और सुरक्षा बलों के साथ संघर्ष-विराम का फायदा उठाकर इस संगठन ने अपने प्रतिद्वंद्वी संगठनों और नागरिक समाज के हजारों लोगों को मार डाला है। इसके अलावा उसने अपने कैडर की कैम्पों में वापसी सुनिश्चित न करते हुए न सिर्फ संघर्ष-विराम की शर्त का उल्लंघन किया है, बल्कि अपनी शक्ति और संगठन को निरंतर बढ़ा रहा है। हिंसा और दहशत के बलबूते अपनी समानांतर सरकार संचालित कर रहा है। यह समानांतर सरकार तमाम आपराधिक गतिविधियों और गैर-कानूनी वसूली में संलिप्त रहती है। 1 अगस्त, 2007 से लगातार जारी संघर्ष-विराम ने एन.एस.सी.एन. (आईएम) की समानांतर सरकार को स्थायित्व और मजबूती प्रदान की है। इसलिए इस संगठन की रुचि शान्ति-वार्ता की प्रगति और समस्या के समाधान में न होकर येन–केन-प्रकारेण शान्ति-प्रक्रिया के लम्बा खिंचने और संघर्ष-विराम के जारी रहने में है। संभवतः, केन्द्र सरकार और उसके रणनीतिक सलाहकार संघर्ष-विराम के इस ‘अवांछित और अयाचित फलागम’ का अनुमान लगाने में असफल रहे हैं।
समझौते के दौरान इस संगठन द्वारा रखी गयी एक और शर्त उल्लेखनीय है। इस संगठन ने समझौते में यह शर्त भी रखी थी कि शान्ति-वार्ता केवल भारत सरकार के शान्ति-वार्ताकार और एन.एस.सी.एन.(आईएम) के बीच ही हो। उसमें अन्य सशस्त्र संगठनों, शान्ति-समूहों या व्यापक नागरिक समाज की कोई भागीदारी न हो। इस शर्त के माध्यम से इस संगठन ने अन्य सभी ‘स्टेकहोल्डर्स’ को हाशिये पर कर दिया है और अपनी केन्द्रीय भूमिका और स्थिति सुनिश्चित कर ली है। इस शर्त का मूल कारण यह है कि यह संगठन नागा-समस्या के समाधान की प्रक्रिया पर अपना एकाधिकार और वर्चस्व बनाये रखना चाहता है। केन्द्र की सरकारों द्वारा शान्ति-वार्ता और संघर्ष-विराम के दौरान इस संगठन को दिए अत्यधिक महत्व ने उत्तरोत्तर इसका भाव बढ़ाया है। बारीकी से देखें तो केन्द्र सरकार ने इस हिंसावादी संगठन को नागा हितों का ‘कॉपी राइट’ देकर इसकी शक्ति और महत्व को अनायास बढ़ाया है। इस संगठन को नागा हितों का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन मानना और सिर्फ इसके साथ ही शान्ति-वार्ता करना ऐतिहासिक रणनीतिक भूल है।
सन् 1975 के शिलोंग समझौते की प्रतिक्रियास्वरूप बने इस हिंसावादी संगठन के निर्माण में एस.एस. खापलांग, आइजैक चिशी स्वू और थुंगालेंग मुइबा जैसे चरमपंथियों की केन्द्रीय भूमिका थी। इन लोगों ने सन् 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम (NSCN) का गठन किया था। इस संगठन ने “शिलोंग समझौते” को ‘नागा आन्दोलन के साथ छल’ और ‘नागा-संघर्ष की नीलामी’ करार दिया था। इस संगठन ने सभी नागा समुदायों की व्यापक एकता और साझा संघर्ष का आह्वान किया। चेयरमैन माओ की कार्यशैली से प्रभावित और प्रेरित इस संगठन के कर्ताधर्ता ‘सत्ता के बंदूक की नली से निकलने’ में भरोसा करते आये हैं। इसलिए ये लोग खून की होली खेलते आये हैं। सन् 1988 में एन.एस.सी.एन. में विभाजन हो गया और विभाजित संगठन एन.एस.सी.एन.(आईएम) में आइजैक चिशी स्वू अध्यक्ष और थुंगालेंग मुइवा महासचिव बन बैठे।
तब से लेकर आजतक एन.एस.सी.एन.(आईएम) और उसका स्वयंभू कमांडर-इन-चीफ थुंगालेंग मुइवा अलगाववादी हिंसा, अराजकता और असंतोष की जड़ है। इस संगठन ने बेहिसाब खून-खराबे और दहशतगर्दी के बल पर खूब राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोरीं। यह उसकी कुटिल रणनीति थी जो बेहद कामयाब हुई। उसने न सिर्फ सुरक्षा बलों, पुलिसवालों, उद्योग-धंधे चलाने वालों और राजनेताओं की नृशंस हत्याएं कीं, बल्कि अपने असंख्य नागा भाई-बहिनों को भी बेरहमी से मौत के घाट उतारा। इस खून-ख़राबे और दहशत के बल पर यह संगठन नागा अस्मिता और अधिकारों का स्वघोषित एकमात्र संगठन बन बैठा। इस संगठन को नागा हितों का एकमात्र झंडाबरदार बनाने में राष्ट्रीय मीडिया और एक-के-बाद एक आने वाली केन्द्र सरकारों की भी बड़ी भूमिका रही है। पिछले 24 साल में हुई शान्ति-वार्ताओं और संघर्ष-विरामों ने इस संगठन को लगातार खुराक दी है। एकदम शुरू में विभिन्न नागा समुदायों की काफी बड़ी संख्या का इस संगठन से भावनात्मक जुड़ाव था। लेकिन इसके सभी महत्वपूर्ण पदों पर मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय के हावी होते जाने से लोगों का मोहभंग होने लगा।
उल्लेखनीय है कि इस संगठन का स्वयंभू चीफ थुंगालेंग मुइवा भी मणिपुर के अल्पसंख्यक नागा समुदाय तन्ग्खुल से ही है। उसने सुनियोजित ढंग से अपने समुदाय को आगे बढ़ाकर अन्य समुदायों को किनारे कर दिया और अपनी और अपने समुदाय की स्थिति अत्यंत मजबूत कर ली। किन्तु इस प्रक्रिया में इस संगठन की विश्वसनीयता में भारी गिरावट आयी और मुइवा का यह जेबी संगठन नागाओं का प्रतिनिधि संगठन न रहकर तन्ग्खुल समुदाय का प्रतिनधि संगठन मात्र रह गया। परिणामस्वरूप अनेक नागा समुदायों ने अपने पृथक और स्वतंत्र संगठन बना लिए। इसलिए केवल एन.एस.सी.एन.(आईएम) को नागाओं का एकमात्र संगठन मानकर उससे ही वार्तालाप करना अन्य संगठनों और समुदायों की ‘आवाज’ की उपेक्षा करने जैसा है।
भारत सरकार के शान्ति-वार्ताकार श्री आर.एन.रवि एक सक्षम पुलिस अधिकारी रहे हैं। शान्ति-वार्ताकार बनने से पहले से उनका उत्तर-पूर्व, ख़ासकर नागा मुद्दे पर विशेष अध्ययन और समझ रही है। इसलिए वे इन बारीकियों से अवगत हैं। पिछले साल केन्द्र सरकार ने उन्हें नागालैंड का राज्यपाल बना दिया था। इससे उनकी भूमिका दोहरी हो गयी। उन्होंने अपने पूर्व अध्ययन,अनुभव और समझ के आधार पर एन.एस.सी.एन.(आईएम) की समानांतर सरकार द्वारा संचालित गैर-कानूनी गतिविधियों को चिह्नित करना और उनका गम्भीर संज्ञान लेकर जरूरी कार्रवाई शुरू करवायी। यह शान्ति-वार्ता का ‘टर्निंग पॉइंट’ था। राज्यपाल श्री आर.एन. रवि ने ‘शो-पीस’ राज्यपाल न रहकर और स्थानीय सरकार पर दबाव बनाकर एन.एस.सी.एन.(आईएम) की आपराधिक गतिविधियों; दहशतगर्दी, नागरिक समाज एवं अन्य संगठनों के साथ की जा रही हिंसा और अवैध वसूली पर रोक लगवायी है।
आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त कैडर पर मुकदमे दर्ज कराये गये हैं और बड़े मामलों में विशेष जाँच दल भी गठित किये गये हैं। असम राइफल्स और भारतीय सेना ने इस संगठन की समानांतर सरकार की रीढ़ माने जाने वाले प्रत्येक जिला मुख्यालय स्थित ‘टाउन कमांड’ को खत्म कर दिया है। संभवतः इतिहास में पहली बार एन.एस.सी.एन.(आईएम) और उसके कैडर को नागालैंड में एक संवैधानिक सरकार होने का बोध हुआ है। अभी तक यह संगठन नागालैंड राज्य को मान्यता नहीं देता है। एक आतंकवादी और आपराधिक संगठन स्थानीय लोगों द्वारा चुनी गयी सरकार को अवैध, अस्थायी और अशक्त व्यवस्था मानता रहा है। इसबार संवैधानिक सरकार की “उपस्थिति” ने उसके होश ठिकाने लगा दिए हैं। इसके अलावा शान्ति-वार्ताकार श्री आर.एन. रवि ने एन.एस.सी.एन.(आईएम) को नागा-समस्या का एकमात्र ‘स्टेकहोल्डर’ न मानते हुए अन्य संगठनों और नागरिक समाज को भी शान्ति-वार्ता में शामिल करने की पहल की है। उनकी इन पहलों से एन.एस.सी.एन.(आईएम) का चिढ़ना और बिदकना अस्वाभाविक नहीं है। उपरोक्त पहलकदमियों से उसका एकछत्र राज और वर्चस्व खतरे में पड़ गया है। इसलिए उसने शान्ति-वार्ताकार बदलने के लिए केन्द्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
केन्द्र सरकार और उसके रणनीतिकारों को इसबार उस भूल से बचने की जरूरत है, जो पिछले 24 साल में बार-बार दुहरायी गयी। यह भूल नागा-समस्या के समाधान के लिए होने वाली शान्ति-वार्ता का एकमात्र स्टेकहोल्डर एन.एस.सी.एन.(आईएम) को मानने और उसकी आपराधिक गतिविधियों का गम्भीर संज्ञान लेकर उनपर अंकुश न लगाने की थी। शान्ति-वार्ता और तद्जन्य संघर्ष-विराम को नयी-नयी वजहों से लम्बा खींचना उसकी पुरानी और अत्यंत लाभप्रद रणनीति रही है। इसबार केन्द्र सरकार को शान्ति-वार्ता को समयबद्ध ढंग से पूरा करने के लक्ष्य के साथ अन्य स्टेकहोल्डर्स को भी वार्ता के दायरे में शामिल करना चाहिए। उसे एन.एस.सी.एन.(आईएम) की न्यायोचित माँगों को तो मानना चाहिए, मगर उसके द्वारा अनावश्यक ‘अड़ंगेबाजी’ की स्थिति में उसे ‘आइसोलेट’ करने के विकल्प पर भी विचार करना चाहिए।