शख्सियत

शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफ़ी

 

2017 में उनके 93वें जन्मदिन गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह प्रमाणित किया कि न केवल भारत में अपितु रफ़ी साहब विश्व प्रसिद्ध गायक है। 24 दिसम्बर 2024 मोहम्मद रफ़ी की 100वीं सालगिरह होगी। छह भाइयों में सबसे छोटे रफ़ी साहब को गीत गाने की प्रेरणा एक फ़कीर से मिली जिनकी आवाज़ की रूहानियत बालक रफ़ी को आकर्षित किया करती थी उस रूहानी आवाज़ का प्रभाव ही था कि उनकी आवाज़ भी सूफ़ियाना बनती चली गई है, क्योंकि जो सुर-बीज जाने-अनजाने फ़कीर द्वारा बालक रफ़ी के ह्रदय में रोंपा गया, वह समय के साथ-साथ उनकी आत्मा में समाहित हो, बढ़ता चला गया जिसकी मधुरता आज भी पूरे विश्व में गुंजायमान है, उन सुरों की पुकार हमारे जीवन को आज भी हर बार तरंगित करती है। अगर आप यूट्यूब पर रफ़ी से जुड़े किस्से सुनेगें, कमेंट पढ़ेगे, विविध पुस्तकों में लेखो में उनसे सम्बंधित कलाकारों उनके जीवन में आने वाले हर छोटे बढ़े लोगों से उनकी जुबानी किस्से पढ़ेगे-सुनेगे तो सभी उनके लिए भगवान, फ़रिश्ता, सूफ़ी इंसानियत के देवता जैसे विशेषणों का प्रयोग करते हैं।

पटकथा लेखक सलीम खान का वक्तव्य “मोहम्मद रफ़ी एक सूफ़ी थे…कोई दूसरा रफ़ी कोई न होगा, क्योंकि भगवान की नकल नहीं हो सकती” रफ़ी साहब की बहू यास्मीन ख़ालिद रफ़ी द्वारा लिखी पुस्तक ‘मोहम्मद रफ़ी हमारे अब्बा कुछ यादें’ के प्रथम पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियाँ वास्तव में उनकी गायकी के साथ-साथ उनके जीवन और व्यक्तित्व को भी उजागर करने की महत्वपूर्ण कड़ी है। यह जीवनी सर्वाधिक विशेष और प्रामाणिक है, सूचना के भण्डार गूगल में रफ़ी टाइप करने भर की देर है सैकड़ों पेज उपलब्ध हो जायेंगे, यूट्यूब तथा अन्य सोशल मीडिया पर भी हमें मोहम्मद रफ़ी से जुड़ी तमाम जानकारियाँ मिल सकतीं है। जो उनके प्रति उनके चाहने वालों की श्रद्धांजलि ही है फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हर छोटे बड़े कलाकार गायक, संगीतकार, लेखक, निर्देशक आज भी उन्हें याद करते हुए भावुक हो जातें है और अनेक ऐसे किस्से बताते हैं जिन्हें जानकार समझ आता है कि उनकी पुरकशिश बेमिसाल आवाज़ की रूहानियत उनकी अज़ीम शख्शियत का अभिन्न हिस्सा है।

संगीतकार रवीन्द्र जैन उन्हें ‘तानसेन’ कहकर पुकारतें थे जो गलत नहीं, बैजू बावरा में “ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले” मे उनके सुरों की ऊँचाई को आज भी कोई छू भर नहीं सका है। मन्ना डे के अनुसार सबकी अपनी अपनी खूबी और अंदाज़ है लेकिन मोहम्मद रफी नम्बर वन ही है और रहेंगे क्योंकि उन्होंने फ़िल्मी गीतों के बेसिक तत्व को समझा गाने गाते हुए आवाज़ में अभिनेता का टन उसका अंदाज़ और माहौल को कैसे गाने में लाना है, ये रफ़ी ही जानते थे कि एक आवाज़ के अनेक अंदाज़ कैसे हो जाते थे उनसे पूछने पर ऊपर की ओर इशारा करते हुए वे शुकराना किया करते थें। रफ़ी की आवाज़ जितनी प्रौढ़ शास्त्रीय संगीत में ढली सधी हुई थी उनका व्यक्तित्व उतना ही मासूम और सरल था अपनी आवाज़ के लिए कहा करते कि यह अल्लाह की देन है। शब्बीर कुमार जब मर्द की शूटिंग के दौरान मनमोहन देसाई के घर गए तो उन्होंने देखा कि उनके मंदिर में रफ़ी साहब का फोटो है यानी के उनके लिए रफ़ी जी पूजनीय थे इतनी ज्यादा श्रद्धा थी उनकी रफ़ी के लिए। जब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने एक धुन बनाई तो कहा कि किशोर जब गायेंगे तो कमाल हो जायेगा पर मदनमोहन ने कहा नहीं “भले ही ख़राब गायें, गायेंगे तो रफ़ी मियां ही” ओ मेरी महबूबा महबूबा महबूबा… इस गाने में निहित छेड़छाड़ और आवाज़ की चंचलता को रफ़ी ने खूब निभाया जिसके लिए किशोर मशहूर थे लेकिन रफ़ी ने इसे ख़ूब निभाया गाना हिट रहा। नौशाद का कहना था कि रफ़ी न होता तो वो सभी गीत मेरे लिए अधूरे से रह जाते।

मोहम्मद रफ़ी

रिकॉर्डिंग के लिए रफ़ी रिहर्सल कई दफा करते थे वे फ़िल्म की कहानी के साथ साथ गीत की सिचुएशन को समझते थे अभिनेता का चरित्र कैसा है, गीत किस अभिनेता पर फिल्माया जाना है, फिर उसके बाद जब तक खुद संतुष्ट न हो जाते गीत गाते, रफ़ी साहब की आवाज़ उस चरित्र और अभिनेता परिवेश आदि के अनुकूल अपने को ढाल लेती थी, सिर्फ सुनकर आँख बंद करके अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभिनेता कौन है। इस संदर्भ में किशोर कुमार की आवाज़ हमेशा ‘किशोर’ की पहचान दिलाती थी इसका मतलब यह नहीं कि किशोर किसी भी तरह कमतर मान लिए जाए लेकिन प्लेबैक गायक के तौर पर उस नायक की आवाज़ के पहचान के रूप में याद की जाती है तो वह गायक की सफलता का परिचायक है।

बीते दौर में ही नहीं आज भी रफ़ी और किशोर के बीच प्रतिस्पर्धा को लेकर कौन बेतर जैसी चर्चाएँ होती रहती हैं अराधना के बाद किशोर कुमार ने गायन की दुनिया में एक नया मकाम हासिल किया कि अब हर निर्देशक, प्रोडूसर, अभिनेता किशोर को ही गवाना चाहते थे जैसा कि फिल्म इंडस्ट्री का चलन है, उगते सूरज को सलाम किया जाता, जो चलता है उसी को बार-बार भुनाया जाता है। उस समय जबकि ये कहा जाने लगा था कि रफ़ी युग समाप्त हो गया, कई अभिनेता जो इस बात के कायल थे कि रफ़ी की आवाज़ ही उनकी पहचान है, धीरे-धीरे उनका झुकाव भी किशोर की ओर होने लगा हालाँकि इसके पीछे का एक कारण यह भी था रफ़ी साहब हज जाकर आये और हाजी हो गए इसलिए कुछ समय के लिए फ़िल्मी दुनिया से दूर हो गये थे जिसका अतिरिक्त लाभ किशोर को मिला था। रफ़ी ने कम बैक किया जिसे कम बैक कहना भी नहीं चाहिए, लैला मजनूं और हँसते जख्म के गीतों से जिनके लिए संगीतकार मदन मोहन को हर किसी ने समझाया कि इन युवा कलाकारों के लिए किशोर को लीजिये लेकिन उन्होंने कहा कि गीत गायेंगे तो सिर्फ रफ़ी साहब तब ‘लैला मजनूं’ ने रफ़ी साहब का ही रिकॉर्ड तोड़ा तो“तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है कई जहां मिल गया (हँसते जख्म)” इस गीत ने आज तक धमाल मचाया हुआ है जिसे हिट लिस्ट में शामिल किया जाता है।

इसी सन्दर्भ में बात करें तो फिल्म इंडस्ट्री पर आरोप लगते रहतें है कि पुराने लोग यहाँ नए लोगों को अक्सर आने का मौका नहीं देते, आतें भी हैं तो जाने कहाँ गायब हो जाते है, इस पर रफी साहब इसके लिए एक घटना का जिक्र है आता है, आर डी बर्मन रफ़ी से अधिक किशोर को प्राथमिकता देना चाहतें थे, कुदरत फिल्म में आर डी बर्मन रफ़ी की जगह गायक चंद्रशेखर गाडगिल को गवाना चाहते थे लेकिन निर्माता निर्देशक चेतन आनंद इस बात के लिए तैयार नहीं थे, वे रफ़ी के पक्ष में थे बावजूद इसके बर्मन ने गीत चंद्रशेखर से गवा लिया, लेकिन रफ़ी साहब से भी गाने के लिए बुला लिया जब रफ़ी ने तीन अंतरे गा लिए अंतिम की तैयारी में थे तब सम्भवत: बर्मन ने नए कलाकार का गाना लगा दिया रफ़ी ने जब सुना तो टेक्नीशियन ने उन्हें बताया एक नए लड़के ने ये गीत रिकॉर्ड किया है, ये बर्मन की चालाकी ही रही होगी कि वे जानतें थे कि इस बात से शायद रफ़ी खफ़ा हो जायेंगे और गीत नहीं गायेंगे, तब रफ़ी साहब खफ़ा नहीं हुए और कहा “क्यों मेरे हाथों पाप करवा रहे हो? एक प्रतिभाशाली गायक का करियर ख़राब कर रहे हो?” ये इस बात का प्रमाण है कि रफ़ी साहब ने कभी भी नए कलाकारों के साथ अन्याय नही किया संभवत: यही कारण है कि “लैला मजनू” फिल्म से ऋषि की आवाज़ बने रफ़ी को बर्मन ने जमाने को दिखाना है फिल्म में भी गीत गवाएं।

जब किन्ही कारणों से आल इंडिया रेडियो पर किशोर के गीतों पर बैन लग गया था तो वे बहुत परेशान थे फिर अचानक एक दिन उन्हें पता चला कि ये बैन हट गया तो वे दिल्ली आकर आल इंडिया को धन्यवाद कहना चाह रहे थे लेकिन यहाँ उन्हें मालूम हुआ कि यह बैन वास्तव में रफ़ी के अनुरोध करने पर हटा है, मुंबई जाने पर वे रफ़ी के घर जाकर उनका धन्यवाद किया और माफ़ी भी मांगी तब रफ़ी ने उनसे इल्तजा की कि इसका जिक्र आप किसी से न कीजियेगा और सच में रफ़ी के जाने के बाद किशोर कुमार के बेटे अमित ने इस घटना के बारे में बताया। इसी तरह “पत्थर के सनम” फ़िल्म का टाइटल गीत के लिए मनोज कुमार जिद पर अड़ गये कि उनपर सिर्फ मुकेश की आवाज़ जंचती है लेकिन लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने स्पष्ट कहा कि गाने की पिच के अनुरूप इसे कोई और गा ही नहीं सकता, तब रफ़ी ने यह गीत गया और रिकॉर्ड बनाएं यानी दर्द भरे नगमों के लिए लोकप्रिय मुकेश रफ़ी के आगे टिक नहीं पाए हालाँकि सभी का अदाज़े बयां अलग है तुलना बेमानी है।  

एक साक्षात्कार में जब पूछा गया कि फ़िल्मी गीत हमेशा से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहें है समाज पर असर डालते है इसलिए शब्दों के चयन और मर्यादा का पूरा ख्याल रखा जाता है फिर भी कभी कहानी और दृश्य के अनुकूल गीतों में “ठंड मुझको लगी है मेरे पास तू आ जा…आग दिल में लगी है मेरे पास तू न आ, या जागी जागी बदन मी ज्वाला, जैसे गीत जो आज के मुकाबले में बिलकुल सामान्य है, जैसा आप लोगों को फीड करते हैं वैसा ही टेस्ट डेवेलोप हो जाता है लेकिन सिनेमा बनाने वालें कहते है जनता ऐसा ही यह पसंद करती है तो क्या सिनेमा समाज की रुचि का विकास करता है या उसकी रूचि को विकृत कर रहा है के आपके समक्ष ऐसी चुनौती आई कि फ़िल्मी मांग को आप न नहीं कह सके या कहें कि एक बाज़ार की मांग के आगे आप अपना मत न दे पायें हो या आपने कभी अपना सुझाव दिया तो इस संदर्भ में रफ़ी साहब मासूमियत से बिना किसी संकोच के कहते है “ये तो ये लोग (निर्माता निर्देशक) जैसा बनाते जाएंगे जनता उसी तरफ जायेगी” इस तरह के गीत जितने कम से कम हो अच्छा क्योंकि हमारे परिवार का माहौल अच्छा बना रहता है लेकिन हमने कभी अपनी मनमानी नहीं की बात सिर्फ नैतिकता की नहीं बल्कि संस्कारों की है क्योंकि सिनेमा हमारी संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है इसका एक उदाहरण है कि जब रोज़े नमाज़ के समय उनसे एक गीत गाने को कहा गया जिसमे भाँग शब्द था, उन्होंने गाने से मना कर दिया रमजान का महीना भांग लफ्ज़ का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे।

उनके गीतों में निहित एक अजब अनोखी पवित्रता ही थी कि जब एक कैदी जिसे फाँसी दी जाने वाली थी, उसने अपनी अंतिम इच्छा बताई कि वह रफ़ी का बैजू बावरा का गीत सुनना चाहता था ए दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नालेजिसे पूरा किया गयाइस गीत के बोल पर ध्यान दिया जाए तो सम्भवत: समझने की कोशिश की जा सकती है कि कि वह कैदी बाहर के समाज से कितना कुछ कहना चाहता था या कहा भी होगा जिसे माना नहीं गया होगा वह मरते समय किसी भी धार्मिक पुस्तक को पढ़ने या सुनने के बजाये इस गीत में भगवान से शिकायत कर रहा है इस गीत में दिखाया है कि मूर्ति की आँखों से आँसू आ रहे है। मन्ना डे मानते है कि वे बहुत बेहतर सिंगर थे, उन्हें जो मिला वे डिसेर्व करते थे, बल्कि जो मिला उससे कहीं अधिक मिलना चाहिए था, वो जो भी गाता था, उसे फिर कोई और नहीं गा सकता था। ओ पी नैय्यर के अनुसार अगर मोहम्मद रफ़ी न होते तो ओ पी नैय्यर भी नहीं होते, ‘दो उस्ताद’ के एक गीत के लिए राज कपूर मुकेश को लेना चाहते थे लेकिन ओ पी ने कहा आप साइनिंग अमाउंट वापस ले लीजिये पर गीत रफ़ी ही गायेंगे।  

बंगाली, इंग्लिश, मराठी, तेलगु, अरबी, गुजराती में 25-26 हजार यानी साल में औसतन 900-1000 गीत गाने वाले रफ़ी साहब का पसंदीदा गीत हैसुहानी शाम ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे” है वे कहते हैं कि पुराने गीतों के बोल अच्छे होते थे जिनमें क्लासिक टच रहता थाआजकल के गीतों में वो रस नहीं रहा जो पहले के गीतों में था’ शास्त्रीय संगीत फ़िल्मों में आने पर आम श्रोताओं को भी समझ आते थे उनकी जबान पर आसानी से चढ़ जाते थें, वे उसका आनंद ले लिया करते थी आज के समय में शायरी बेहतर नहीं, न ही धुनों पर अधिक मेहनत होती है बहुत जल्दबाजी रहती है आज के गीत जहन तक उतर नहीं पाते।

रफ़ी साहब के बेटे ने बताया कि वे अपने परिवार से बहुत प्रेम करते थे उन्हें पूरा समय देते थे काम ख़त्म सीधा घर लौटते थे किसी तरह का कोई शौक नहीं हाँ, कैरम खेलना, पतंग उड़ाना और बच्चों के कहने पर फरमाईशी गीत सुनाना उन्हें पसंद था, कभी किसी का घमंड नहीं किया नरम दिल मृदु भाषी थे इतना धीरे बोलते थे की कान लगाकर सुनना पड़ता था। आवाज़ की मिठास में शहद टपकता था जिसमे हर कोई आनंद में सराबोर रहता है, वे इंसानियत और मोहब्बत की मिसाल हैं वे निहायत शर्मीले और खामोश व्यक्ति थे बात भी बहुत अहिस्ता बोलते थे मानो विस्पेर कर रहे हो शांत और शर्मीला हो कैसे-कैसे टेलेंट छिपे थे। एक दफे जब बड़ी बहन शो में पहुँची तो पिता को ऊंची आवाज़ में गाते देख हैरान हो गई और माँ से कहा कि अब्बा ऐसे भी गा सकतें है” वास्तव में ये काम के प्रति लगन समर्पण और निष्ठा थी कि वे कभी भी किसी चीज़ के लिये इनकार नहीं करते थे कठिन से कठिन गीत विनम्रता से गा लिया करते थे “दर्द भरे मेरे नाले” में सुर इतनी ऊचाई तक पहुँच गए कि गले से खून निकल आया पर उन्होंने गाना नहीं छोड़ा हमारे साथ पूरा समय बिताते थे, रफ़ी के बिना प्लेबैक सिंगर की संकल्पना अधूरी है इसी तरह “दिल के झरोखे में तुझ को बिठा कर यादो को” गीत गाने में साँस लेने के लिए भी जगह नहीं थी जिसे रफ़ी ने बहुत आसानी से गा लिया जबकि शम्मी जी ने उनसे अनुरोध किया था कि इस तरह के गीत दुबारा मत गाइयेगा।  

नया दौर की सफलता के बाद बी. आर. चोपड़ा ने रफ़ी से कहा आज के बाद आप सिर्फ हमारे लिए गायेंगे लेकिन रफ़ी जी ने कहा ‘माफ़ कीजिये मेरी आवाज़ सिर्फ जनता के लिए है जो भी जनता के लिए मुझसे गवायेगा मैं उसी के लिए गाऊंगा’ तब चोपड़ा जी ने कहा… “अब तुम मेरी फिल्म में कभी नहीं गाओगे मैं एक नया रफ़ी पैदा कर दूंगा लेकिन रफ़ी तो फ़रिश्ते थे उनकी आवाज़ की रूहानियत सूफियों-सा सरल जीवन रफ़ी जी मुस्कुराते हुए निकल गए, चोपड़ा ने हर छोटे बड़े निर्माता निर्देशक से कहा कि वे रफ़ी को फिल्मों में न लें लेकिन क्या ये संभव था, ये नामुमकिन था क्योंकि रफ़ी के बिना फिल्म संगीत अधूरा था …अनवर, शबीर कुमार मो.अजीज जैसे गायक आये लेकिन रफ़ी की जगह कोई न ले सका “न भूतो न भविष्यति” हालाँकि अनवर से खुद रफ़ी ने कहा- अनवर मेरे बाद तुम मेरी जगह ले सकते होलेकिन ये रफी साहब की महानता ही थी क्योंकि आवाज़ में भले ही नकल कर ली जाए उस महानता को कोई कैसे छू पायेगा तभी तो रफ़ी साहब के समकक्ष आज तक कोई नहीं पा सका है आज AI रफ़ी साहब की आवाज़ को AI नकल कर ले लेकिन उनके अंदाज़ को री क्रीएट करना नामुनकिन है उनकी आवाज़ की रूहानियत उनकी आत्मा इस AI की आवाज़ में नहीं आ सकती किसी भी टेक्नोलॉजी का सही दिशा में प्रयोग होना चाहिए लेकिन मानवीय भावनाओं या संवेदनाओं का स्थान तकनीक नहीं ले सकती आज के दौर में जबकि AI फिल्म इंडस्ट्री में भी गुसपैठ कर रहा है रफ़ी की आवाज़-सा हमारे हृदय के तारों को झंकृत नहीं कर सकता गुमनाम फिल्म का रॉक एंड रोल गीत का इस्तेमाल हॉलीवुड फिल्म घोस्ट वर्ल्ड में इस्तेमाल किया गया जो पहले गायक बन गए जिनका गीत हॉलीवुड में आया “जान पहचान हो जीना आसान हो”

रफ़ी साहब ने प्लेबैक सिंगिंग पार्श्व गायकी में अभिनेयता को पहचान दी कल्याण जी आनंद जी बताते हैं कि रफ़ी साहब पहले गीत की सिचुएशन समझते हैं, फिर वो अभिनेता कौन है गान कहाँ फिल्माया जाएगा उसके बाद रिहर्सल करते है उसमें भी गीत के बोल में किस शब्द पर ज़ोर देना है इसके बाद जब तक खुद संतुष्ट नहीं हो जाते थे रिकॉर्डिंग नहीं करते थे, इसी तरह कविता कृष्णमूर्ति बताती है, कि रफ़ी साहब के लिए सरगम से ज्यादा रफ़ी का अपना सुर मायने रखता है वाही उनका अंदाज़ बन जाता है जावेद अख्तर –“हैरत होती है कि वे कोई भी गीत गाये, भजन गाये, इंकलाबी गीत कव्वाली रोमांटिक गीत गाएं, इमोशनल या गाँव का गीत गाएं क्लब का मनचला गीत गाएं, उदास ग़ज़ल गाएं, ऐसा लगता है कि रफ़ी साहब की आवाज़ इसी गीत के लिए बनी है, हर रंग में हर रूप में रफ़ी ने जब गाया मौसिकी और एक्टर के रंग में ढल में जाते थे… रफ़ी साहब ने एक्टिंग और सिंगिंग का डिस्टेंस ख़त्म कर दिया तो गलत न होगा” जावेद अख्तर इसी तरह ऋषि कपूर कहते हैं कि “आज के सिंगर सिर्फ सिंगर हैं वो रॉक स्टार हो सकते हैं बड़े गायक हो सकते हैं लेकिन मैं उन्हें प्लेबैक सिंगर नहीं मनाता क्योंकि प्लेबैक सिंगर वो होता है जो अपनी आवाज़ नायक को उधर दे दिया करते थे और वह फिर उनकी आवाज़ नहीं उस नायक की आवाज़ बन जाती थी जो आसान काम नहीं था” और रफ़ी साहब पहले और शायद अंतिम प्लेबैक सिंगर है जिसने जिन नायकों को आवाज़ दी वे गीत उनके नाम से अधिक पहचानने जाते हैं।

जब अशोक कुमार की रागिनी फिल्म में शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत “मन मोरा बावरा” को किशोर से न गवाकर रफ़ी से गवाया जिससे किशोर गुस्सा हो गए थे असल में हर गायक की कोई खासियत और सीमा भी जरूर होती है लेकिन रफ़ी साहब की कोई सीमा लिमिट नहीं थी वे हर तरह के गीत गाने केमाहिर थे गजल, कव्वाली, डिस्को, रैप, सुख, दुःख, शोख़, चंचल, आदि गाने के मूड को आसानी से पकड़ लिया करते थे AI के दौर में जबकि कला के क्षेत्र में भी विविध प्रयोग हो रहें है किसर रफ़ी जैसे गायको के गीत AI गा रहा है लेकिन किसी भी टेक्नोलॉजी का सही दिशा में उपयोग हो तो बेहतर है क्योंकि AI मानवीय भावनाओं का स्थान नहीं ले सकते क्योंकि इनमें कोई संवेदना ही नहीं है। उनमें वो ताकत नहीं है जो दिलों के तार को जोड़ सके झंकृत कर सके। ओल्ड मेलोडी म्यूजिक का आज भी कोई मुकाबला नहीं “हालाँकि रफ़ी साहब इतने प्रशिक्षित और प्रतिभाशाली थे कि अपनी पकड़ बना सके, उन्हें एक शास्त्रीय गायक के रूप में प्रशिक्षित किया गया था। उन्होंने कभी भी फिल्मों के लिए पार्श्वगायक बनने की कल्पना नहीं की थी। उन्होंने अपने शिक्षकों से जो प्रशिक्षण प्राप्त किया था वह रागों के ज्ञान पर आधारित था, जैसे दरबारी, मालकौंस और पहाड़ी। इसके अलावा उन्होंने ठुमरी, ग़ज़ल और में भी काफी दक्षता हासिल की थी पाश्चात्य संगीत। इसके बावजूद, उनका लक्ष्य हासिल करना कोई आसान काम नहीं था”

और अंत में यूट्यूब के अनगिनत वीडियो में जो अनगिनत लाइक्स और कमेंट्स है उनमे से कुछ मैं यहाँ लिख रही हूँ जो इस बात का प्रमाण है कि मोहम्मद रफ़ी साहब का कोई सानी नहीं –“हम भारत सरकार से अपील करते हैं कि वे भारत के महान गायक हैं उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए, वे अमर हैं एक दिन उनको भारत रत्न ज़रूर मिलेगा, रफ़ी साहब खुद ही एक रत्न है, भारत के रत्न जिनका नाम पूरी दुनिया में चमक रहा है, उन्हें भारत रत्न की कोई ज़रुरत नहीं, मिलना तो बहुत पहले चाहिए था अगर उन्हें भारत रत्न मिलता है तो यह उस सम्मान का सम्मान होगा, “एक चाँद एक सूरज एक रफ़ी साक्षात सरस्वती के पुत्र” रफ़ी साहब फिल्म इंडस्ट्री को और हिन्दुस्तान को एक ईश्वर एक वरदान के रूप में मिले इनके जैसा कोई अगले दस जनम तक पैदा नहीं हो सकता…रफ़ी साहब हमारे लिए फरिश्ता हैं, हमारा सौभाग्य उनके सुर आज भी हमारे लिए ऑक्सीजन का काम करती है “वोइस ऑफ़ गॉड कहे गये रफ़ी साहब जैसी ऊँची शख्शियत किसी रत्न की तालिब नहीं, वे तो करोड़ों साल तक दुनिया के दिलों में “रौशन रत्न” रहेंगे, सरस्वती पुत्र, संत आत्मा, सुर सम्राट भारत रत्न नहीं स्वयं भारतीय रत्न जिसकी चमक शाश्वत है, उनको सुन-सुनकर, उनकी नकल कर लोग गायक बन गये वे हमारे अघोषित संगीत गुरु हैं सदैव बने रहेंगे।

मुझे लगता है मैं जो भी लिख पाई यह उस शख्सियत की महानता ही है|

.

Show More

रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x