देशमुद्दा

मनोरोगियों की बढ़ती संख्या और सीमित मानसिक स्वास्थ्य ढांचा

 

दुनिया की सर्वश्रेष्ठ महिला टेनिस खिलाड़ियों में से एक जापानी मूल की नाओमी ओसाका के एक निर्णय ने विश्व समुदाय का ध्यान मानसिक रोगों की व्यापकता की ओर खींचा है। उन्होंने अत्यन्त प्रतिष्ठित फ्रेंच ओपन टेनिस प्रतियोगिता से हटने का निर्णय करके सबको चौंका दिया है। नाओमी ने यह बड़ा निर्णय किसी शारीरिक चोट के कारण नहीं, बल्कि अपने मानसिक स्वास्थ्य के ठीक न होने के कारण लिया है। उन्होंने इस निर्णय को सार्वजनिक करते हुए बताया कि वर्ष 2018 में अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीतने के बाद से ही वे मानसिक अवसाद से जूझ रही हैं। उन्होंने मैच के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करने में होने वाले अझेल मानसिक तनाव का भी जिक्र किया।

नाओमी ओसाका

उल्लेखनीय है कि 23 वर्षीय नाओमी ओसाका अत्यन्त सफल और संभावनाशील टेनिस खिलाड़ी हैं और वर्तमान खिलाड़ियों में उनकी कमाई सर्वाधिक है। इससे पहले बॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा भी स्वयं के लम्बे समय तक मानसिक अवसाद की शिकार रहने का खुलासा कर चुकी हैं। इन तीनों ही महिलाओं का यह खुलासा सनसनीखेज लगता है, लेकिन वास्तव में यह साहसिक और सराहनीय है। इस खुलासे ने मानसिक स्वास्थ्य को चर्चा और चिंतन के केंद्र में ला खड़ा किया है, जिसकी प्रायः उपेक्षा की जाती रही है। अभी तक मानसिक बीमारियों को एक ‘टेबू’ माना जाता रहा है। इसलिए कोई भी न तो इनके बारे में खुलकर बात करना चाहता है, और न ठीक से इलाज कराना चाहता है। अधिकांश लोग मानसिक बीमारियों को छिपाते हैं। क्योंकि मानसिक बीमार व्यक्ति को बहुत आसानी से ‘पागल’ करार देकर गलत नजर से देखा जाता है।

कोरोना काल में भारत देश ही नहीं वरन दुनिया में मानवीय जीवन और आर्थिक गतिविधियों एवं संसाधनों की अभूतपूर्व क्षति हुई है। इसके अलावा पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, रिश्ते-नाते और दैनंदिन जीवन भी अप्रभावित नहीं रहे हैं। जीवन-चक्र के अचानक थम जाने से पिछले डेढ़ साल में मानसिक व्याधियों में भी गुणात्मक वृद्धि हुई है। कोरोना से पहले भी मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या में धनात्मक वृद्धि हो ही रही थी। कोरोना आपदा ने इस संकट को और व्यापक और भयावह बना दिया है। समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज मानसिक रोगों की चपेट में है। इन रोगों में अवसाद, दुस्वप्न, चिंता, तनाव, असुरक्षाबोध, अकेलापन, अलगाव, अरुचि, असंतुष्टि, उदासीनता, असहायता, आत्मविश्वासहीनता, अपराध-बोध, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, उन्माद, क्रोध, कुंठा, अतिशय चिन्तन, मनोभ्रंश (स्मृतिलोप), आत्महत्या का विचार, हिंसक व्यवहार, सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसऑर्डर आदि प्रमुख हैं।

हमारे देश में मानसिक रोगियों के प्रति अत्यन्त उपेक्षा और तिरस्कार का व्यवहार किया जाता है। अन्यान्य शारीरिक रोगों की तरह मानसिक रोगों के प्रति समाज की संवेदनशीलता और स्वीकार्यता बेहद कम है। न सिर्फ समाज ने बल्कि सरकारों ने भी अभी तक इस समस्या की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। यूँ तो भारत जैसे विकासशील देशों में स्वास्थ्य ढांचे जैसी सुविधाओं का अभाव होता ही है। लेकिन जो सीमित सुविधाएँ और स्वास्थ्य ढांचा होता भी है, उसमें मानसिक स्वास्थ्य ढांचे का तो और भी घनघोर अभाव होता है। कोरोना आपदा ने इस कटु सत्य को उजागर कर दिया है। भारत जैसे देशों को न सिर्फ अपने स्वास्थ्य ढांचे को विस्तृत और विकसित करने की आवश्यकता है, बल्कि प्राथमिकता के आधार पर मानसिक रोगियों के इलाज के लिए पर्याप्त इंतजाम करने की भी आवश्यकता है। 

कोरोना काल में प्रत्येक व्यक्ति मृत्युबोध से ग्रस्त, भयभीत और असुरक्षित है। सोशल डिस्टेंसिंग और आइसोलेशन ने व्यापक स्तर पर भावनात्मक अकेलापन और अलगाव पैदा किया है। लोग अपने आत्मीयजनों के अंतिम संस्कार तक में शामिल नहीं हो पा रहे, एक-दूसरे से मिलकर सहानुभूति, संवेदना और सांत्वना प्रकट नहीं कर पा रहे। चरम पीड़ा के क्षणों में एक-दूसरे के आँसू न पोंछ पाने की असमर्थता ने जीवन में असीम विछोह और विक्षोभ पैदा किया है। यह अपराध-बोध और असहायता की पराकाष्ठा है। यह वातावरण मानसिक बीमारियों के फलने-फूलने के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। महामारी ने चारों ओर तबाही मचा रखी है। इस तबाही ने मानव समाज को जितना बाहर से झकझोरा है, उससे कहीं अधिक अंदर से हिलाकर रख दिया है। जितनी जोर-शोर से मौत की आँधी चली है, उससे कहीं ज्यादा जोर से मानसिक विकारों और मनोरोगों की आँधी चल पड़ी है।


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लेकिन न तो कोई इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना चाहता है और न इसके समाधान की चिंता करना चाहता है। इस आपदा काल में असंख्य लोग मारे गये हैं। परिणामस्वरूप अनेक बच्चे अनाथ हो गये हैं। उच्चतम न्यायालय में जमा करायी गयी अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बताया है कि उसके द्वारा संचालित ‘बाल स्वराज’ पोर्टल पर कोरोना काल में अनाथ हुए 30 हजार से अधिक बच्चे पंजीकृत हो चुके हैं। इनके अलावा बड़ी संख्या में ऐसे अनाथ बच्चे भी हैं, जिनकी पहुँच अशिक्षा, आर्थिक अभाव, जानकारी की कमी आदि कारणों से इस पोर्टल तक नहीं है। वे बच्चे अपना पंजीकरण नहीं करा सके हैं। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अपना एक ‘मन की बात’ कार्यक्रम इन्हीं अभागे बच्चों को समर्पित किया। केंद्र सरकार ने इन अनाथ बच्चों का अभिभावक जिलाधिकारी को नियुक्त किया है। उनके भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और चिकित्सा आदि जरूरतों को पी एम केयर फंड से पूरा करने का संकल्प भी व्यक्त किया है। यह सराहनीय पहल है। लेकिन इन अनाथ मासूमों की मानसिक व्यथा और भावनात्मक रिक्तता कैसे दूर होगी? यह यक्ष प्रश्न है।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2015-16 के अनुसार भारत में लगभग 15 करोड़ लोगों को मानसिक इलाज, संबल और सहायता की आवश्यकता थी। इसी दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया था कि सन 2020 तक भारत में लगभग 20 करोड़ मानसिक विकारों से पीड़ित होंगे। कोरोना महामारी ने इन आंकड़ों को और विकराल बना दिया है। मानसिक स्वास्थ्य की इतनी भयावह स्थिति होने के बावजूद भारत में इसके उपचार के लिए सुविधाओं और चिकित्सकों का इतना भयावह अभाव है कि लगभग एक लाख जनसंख्या के लिए मात्र एक मनोचिकित्सक ही उपलब्ध है।

मानसिक रोगियों के इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर लगभग 5 करोड़ रुपये वार्षिक व्यय होता है। यह मात्र 33 पैसा प्रति मरीज जितना कम है। यह सचमुच चिंताजनक स्थिति है। आजकल सभी स्वास्थ्यकर्मी और पूरा-का-पूरा स्वास्थ्य ढांचा कोरोना के इलाज में लगा हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिंता व्यक्त की है कि कोरोना संकट ने 93 प्रतिशत गंभीर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को ठप्प कर दिया है, जबकि पहले की तुलना में मानसिक बीमारियों में लगभग दो गुना वृद्धि हुई है। इस अभूतपूर्व संकट-काल में खुद डॉक्टर और अन्यान्य चिकित्साकर्मी मानसिक व्याधियाँ झेलने को अभिशप्त हैं। महामारी के इस क्रूर-क्रीड़ा काल में लोगों की मानसिक व्यथा-कथा सुनने और उसका समाधान करने की गुंजाइश और फुर्सत बहुत कम है।

दुनिया को और खास तौर पर भारत को भावी मानसिक स्वास्थ्य-संकट से निपटने की तैयारी प्राथमिकता के आधार पर करने की आवश्यकता है। ऐसे ही मानसिक स्वास्थ्य संकट का सामना स्पेनिश फ्लू (1918-20) के दौरान और बाद में भी करना पड़ा था। हालाँकि, उस समय मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों की जानकारी और जागरूकता बहुत ही कम थी। 100 साल बाद आज स्थिति तब से थोड़ी बेहतर तो है। लेकिन अभी इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। अभी तक मानसिक स्वास्थ्य समस्या दबी-ढंकी थी, लेकिन कोरोना-काल में यह रडार पर आ गयी है। इसलिए इसके इलाज की दिशा में संगठित और सक्रिय होने की आवश्यकता है।


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सर्वप्रथम तो मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। नज़रिए में यह बदलाव व्यापक जागरूकता और संवेदनशीलता अभियानों के माध्यम से किया जा सकता है। इसमें सरकार, सामाजिक संगठनों और नागरिक समाज के प्रमुख व्यक्तियों की निर्णायक भूमिका होगी। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य ढांचे के विकास की भी महती आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब इसमें पर्याप्त निवेश किया जाये। इसके अलावा जीवन-शैली और सामाजिक मूल्यों में भी व्यापक बदलाव अपेक्षित हैं। जीवन की सफलता के निर्धारक मापदंड बदले जाने चाहिए। अतिभौतिकता, अतियांत्रिकता और अतिबौद्धिकता ने मनुष्यता और प्रकृति को सर्वाधिक क्षतिग्रस्त किया है। 

जितना मशीन को मनुष्य का विकल्प बनाने की कोशिश की जाएगी, उतनी ही मनुष्य के मशीन बनने की सम्भावना बढ़ती जाएगी। इस क्रम को भी बदलना होगा। एलेक्सा जैसे रोबोट तो मनुष्य नहीं बनेंगे, लेकिन हमारे-आपके जैसे मनुष्य जरूर एलेक्सा जैसे रोबोट बनते जायेंगे। मानव-समाज का ‘रोबोटीकरण’ मानसिक व्याधियों के लिए उर्वर-भूमि है। इसलिए सामाजिकता और आध्यात्मिकता को भौतिकता और तकनीकी से ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए। परिवार, पास-पड़ोस और प्रकृति से जुड़कर मानसिक स्वास्थ्य-संकट से लड़ाई लड़ी जा सकती है। सहानुभूति, संवेदनशीलता, सामूहिकता, सम्पर्क, संवाद और सम्बन्ध न सिर्फ जीवन को सहज-सरल बनाते हैं, बल्कि उसे संभव भी बनाते हैं। यह इस भाव को प्रगाढ़ करने का समय है।

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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