धार्मिक मान्यता बनाम यौन मान्यता का प्रश्न
यदि किसी हिन्दू पेंटर से कोई ऐसा बिल बोर्ड तैयार करने को कहा जाए जिसमें हनुमान को विश्व का पहला आतंकी बतलाया जाए या जिसमें ‘अल्ला हो अकबर’ लिखा जाए और वह पोस्टर बनाने से मना कर दे,इसी प्रकार यदि किसी भाजपा समर्थक पेंटर से कांग्रेस के बिल बोर्ड तैयार करने को कहा जाए और वह मना कर दे, तो क्या उसे अपराध माना जाएगा? शायद ‘हाँ’, शायद ‘नहीं’ भी। कुछ इसी प्रकार का एक केस इस समय ब्रिटेन की सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा है।
इस केस में बेलफास्ट की अपील कोर्ट ने एक बेकर को इसलिए अपराधी माना क्योंकि उसने एक ‘गे’ (समलैंगिक) दम्पति की केक बनाने से इस कारण इनकार कर दिया था कि केक पर ‘सपोर्ट गे मेरिज’ (समलिंगी विवाह का समर्थन करें) लिखा जाना था। बेकरी के मालिक का कहना था कि केक पर जो कुछ लिखने को कहा गया था वह बाइबिल की शिक्षा के प्रतिकूल है। ‘गे’ दम्पति ने बेकरी के खिलाफ इस आधार पर मुकदमा कर दिया कि उनकी यौन मान्यताओं के कारण उनके साथ पक्षपात किया गया है जो कि धार्मिक, सामाजिक, यौनिक और राजनीतिक समानता के कानून का उल्लंघन है।
अपने बचाव में बेकरी के मालिक ने कहा कि उससे उसकी धार्मिक मान्यता के विरुद्ध कुछ करने को कहा गया था। अदालत ने बेकरी के तर्क को अमान्य करते हुए ‘गे’ दम्पति के पक्ष में निर्णय दिया। इस निर्णय के विरुद्ध बेकरी के मालिक ने उच्च न्यायालय में अपील की, पर अपील कोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय को सही ठहराया। अगर इस मुकदमे को धार्मिक मान्यताओं बनाम यौन मान्यताओं के रूप में देखा जाए तो बेकरी के विरुद्ध अदालत के निर्णय की बात कुछ समझ में आती है। जब धार्मिक और यौन मान्यताओं के बीच चयन की बात आती है तो निर्णय किसी के भी पक्ष में दिया जाए, उसे दूसरे पक्ष के प्रति अन्याय और द्वेषमूलक ही माना जाएगा, फिर भी कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में जब संदेहास्पद स्थिति हो धार्मिक मान्यताओं की अपेक्षा अल्पसंख्यक मान्यता को तरजीह दी जानी चाहिए।
पर इस प्रश्न पर विचार करने का केवल यही तरीका नहीं है। हम भले ही कहें कि बेकरी का मालिक धर्मांध या कट्टरपंथी है, लेकिन यहाँ वाक् स्वातंत्र्य या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रश्न भी उठता है। पक्षपात या भेदभाव सम्बन्धी कानून तो यही कहता है कि किसी के यौन सम्बन्धों को लेकर उसके साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। यह तो ठीक है। आगे यह भी तर्क दिया जा सकता है कि किसी के राजनीतिक विचारों के कारण पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। पर यहाँ मुख्य बात ‘फ्री स्पीच’ यानी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की है। बेकरी मालिक को अप्रत्यक्ष रूप से ‘गे’ विवाह के पक्ष में कुछ करने को कहा गया था जब कि वह उससे सहमत नहीं था। और कहा जा सकता है कि यहाँ उसे ग्राहकों से असहमत होने का अधिकार था। केक पर कुछ लिखा जाना किसी समाचारपत्र में कुछ लिखे जाने की अपेक्षा एक अत्यन्त ही साधारण या कहा जाए नगण्य सी बात है। फिर भी यह किसी विषय पर स्पष्ट अभिव्यक्ति तो है ही।
यदि फ्री स्पीच का अर्थ गलत होने का अधिकार नहीं है तब तो फिर उसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी विषय पर अपनी स्वतन्त्र राय रखने का अधिकार है, लेकिन उसे यह अधिकार नहीं है कि दूसरों को भी वह अपनी राय या मान्यता अभिव्यक्त करने या छापने/लिखने के लिए बाध्य करे। उत्तरी आयरलैंड में स्थिति कुछ अधिक ही दुर्बोध है। कुछ ऐतिहासिक कारणों की वजह से वाक्स्वातंत्र्यके सम्बन्ध में वहाँ कुछ अधिक कड़ाई है विशेषकर तब जब कि उससे किसी के प्रति घृणा का कारण बने। केक के मामले में कहा जा सकता है कि बेकरी द्वारा इनकार किया जाना गे दम्पति की निष्ठा पर आक्रमण कहा जा सकता है। इस केस में महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें एक पक्ष को ऐसा कुछ करने के लिए बाध्य करने की कोशिश है जो वह दिल से या स्वेच्छा से नहीं करना चाहता है और यह गलत है भले ही जनमत सही हो।
कुछ लोगों का कहना है कि यह केस समलिंगियों के अधिकार से सम्बन्धित है, पर मैं समझता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है क्योंकि बेकरी का मालिक किसी अन्य व्यक्ति की केक बनाने से भी तो इनकार कर सकता था। कुछ लोगों का कहना है कि यह धार्मिक आस्था के अधिकार से सम्बन्धित है, पर यह भी ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि किसी धार्मिक व्यक्ति को किसी की केक नहीं बनाने का अधिकार है तो इसी प्रकार किसी अन्य व्यक्ति को भी किसी की केक नहीं बनाने का अधिकार है। व्यक्तिगत रूप से मेरे विचार से यह जरूरी नहीं है कि कोई बेकर केक पर जो कुछ लिखता है वह उसे मानता भी हो या उससे सहमत भी हो। यदि बेलफास्ट के इस बेकर ने इसी दृष्टि से सोचा होता तो बात इतनी नहीं बढ़ती। ब्रिटेन में 50 वर्ष पहले समलिंगी होना अपराध माना जाता था और आज केक पर गे विवाह की बात लिखने से मना करना अपराध माना जा रहा है। स्पष्ट ही एक तरह की असहनशीलता को हटा कर उसके स्थान पर दूसरे प्रकार की असहनशीलता ने स्थान ले लिया है।
अदालत का कहना था कि अगर बेकरी आम लोगों के लिए केक बनाती है जिन पर तरह-तरह के सन्देश लिखे जाते हैं, तब उसे यह अधिकार नहीं रह जाता कि वह अपनी इच्छानुसार किसका केक बनाए और किसका नहीं। यदि कोई प्रतिष्ठान किसी को धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक या किसी भी अन्य आधार पर सेवा देने से इनकार करता है तो वह समानता के कानून की गिरफ्त में आ जाता है। पर क्या यह सही है?
आप यदि किसी मुस्लिम बेकरी में जाएं और वहाँ अपनी आर्डर की हुई केक पर ‘मुहम्मद’ लिखवाना चाहें और बेकरी मना कर दे, या कोई प्रिंटर समलैंगिकता विरोधी पोस्टर छापने से मना कर दे, तो क्या उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है? अपील कोर्ट के जजों ने यह भी स्पष्ट किया कि केक पर कोई नारा लिखे जाने का अर्थ यह कदापि नहीं कि लिखने वाला उससे सहमत है। हेलोवीन की केक पर भूत या चुड़ैल की डिजाइन बनाने का अर्थ यह कदापि नहीं कि बेकर जादू-टोना में विश्वास करता है या उसका समर्थक है। पक्षपात के विरुद्ध कानून अलग-अलग मतों/विचारों के लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया था न कि किसी के विचारों को दूसरों पर थोपने के लिए।
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