चायनीज़ मार्केट से निकास की तैयारी और आर्थिक राष्ट्रवाद
- भूपेन्द्र हरदेनिया
वैश्विक महामारी के जिम्मेदार चीन का उद्देश्य अपने प्रतिद्वन्द्वी देशों की अर्थव्यवस्था को चौपट कर उनके आर्थिक ढाँचे को अपने नियंत्रण में करना था, लेकिन समय रहते उसके नापाक इरादों का पटाक्षेप हो गया और सम्पूर्ण विश्व जल्द ही सचेत हो गया, विशेष तौर वे देश जो चीन से प्रत्यक्ष व्यापारिक स्तर पर जुड़े हैं। चीन को लेकर भविष्यगत भारतीय नीति के साथ-साथ सम्पूर्ण वैश्विक योजनाओं और नीतियों पर मंथन करने का यह महत्वपूर्ण समय है। अब यह माना जा रहा है कि इस संकटकाल में एक महत्वपूर्ण विचारधारा भारत में उत्पन्न चुकी है, वह है आर्थिक राष्ट्रवाद्। भारतीय मनस्तत्व में इस बात की गहरी पैठ हो जानी चाहिए कि हमें भी उन सभी संसाधनों का परित्याग करना ही होगा जो सीधे रूप में चीनी हिस्सेदारी से जुड़े हों।
आज भारत में कई साफ्टवेयर कम्पनियाँ एवं अन्य एजेंसियाँ ऐसी हैं जो भारत में चीन की हिस्सेदारी बढा़कर भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकती हैं। अगर हमें इस स्थिति से बचना तो हमें इन पर अपनी निर्भरता समाप्त करनी होगी इसका एक ही तरीका है और वह है आर्थिक राष्ट्रवाद। कुछ समय पूर्व ही पेटीएम पर चीनी कंपनी अलीबाबा का नियंत्रण और बढ़ गया। रिलायंस कैपिटल ने डिजिटल पेमेंट फर्म पेटीएम में अपनी एक फीसदी हिस्सेदारी बेच दी है.. रिलायंस समूह की इस कंपनी ने पेटीएम में इस हिस्सेदारी के लिए 275 करोड़ रुपये का निवेश किया था. इस सौदे के बाद पेटीएम की आर्थिक हैसियत बढ़कर 4 अरब डॉलर से ज्यादा हो गयी है।
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चीन की स्मार्टफोन कंपनी जियोनी ने भारत में लगभग 650 करोड़ रुपये निवेश किया है। यह कंपनी देश के पाँच शीर्ष स्मार्टफोन ब्राण्ड में शामिल होने का लक्ष्य लेकर चल रही ह। इसके अलावा कूलपैड, ओप्पो, वीवो, लेनोवो, मीजो, वन प्लस, जोपो, जेडटीई, शाओमी आदि कई मोबाईल कम्पनियाँ ऐसी हैं जो भारतीय मोबाईल व्यापार में अपना एकछत्र राज कायम कर चुकी हैं। यह कुछ छोटे से उदाहरण हैं। जोमेटो भी इसी तरह का एक उदाहरण है, पर स्थिति इससे कई गुना बढ़कर है। भारत में खिलौना, क्रोकरी, इलेक्ट्रीकल, इलेक्ट्रॉनिक व्यापार पर तो भारत की आधी से अधिक आबादी पर निर्भर है।
भारत में चिकित्सा के आयामों की चर्चा की जाये तो देखा जा सकता है कि जैनरिक दवाई मुख्य घटक है। एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) उसका 70% तक आयात हमें चीन से करना पड़ता है, अब तो हमारी स्थिति खतरे के लाल निशान से ऊपर है, अगर हमें चीन की चाल से बचना है और भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करना है तो हमें चीनी सामान के साथ-साथ हर क्षेत्र की चीनी भागीदारी वाली कम्पनियों से दूरी ही नहीं बनानी होगी। अपितु उन्हें पूर्णतः त्यागना होगा, उनका बहिष्कार कर भारत में निर्मित ब्राण्ड के उपयोग का संकल्प लेना होगा, लेकिन इसके लिए सबसे पहले भारतीयों के क्रय क्षमता में बड़ोत्तरी की भी ज़रूरी है क्यूँकि अभी भी आप और हमारे जैसे मध्यम वर्गीय परिवार भी इतने समर्थ नहीं है जो चीनी वस्तुओं के परित्याग पूरी तरह कर सकें तो फिर निचले तबके की बात ही क्या करना।
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और यही दो वर्ग भारत की सबसे बड़ी जनसंख्या है और चीनी वस्तुओं के सबसे बड़ा बाज़ार भी। इसके साथ-साथ, उदारीकरण, निजीकरण, भूमण्डलीकरण (एल,पी,जी,) और एफ डी आई की अंतर्राष्ट्रीय बाध्यता के चलते अभी तक हम विदेशी बाजार को रोकने में नाकामयाब रहे, पर इसका मतलब यह नहीं कि वैश्वीकरण से कोई लाभ नहीं हुआ, पर चीन इस बाध्यता का अब दुरुपयोग कर रहा है, इसीलिए सरकारी स्तर पर इसे एफ. डी.आई. पर कमान कसने हेतु भारत सरकार प्रणबद्ध है, नये नियम के तहत अब विदेशी कम्पनियों को भारत में सीधे व्यापार करना आसान नहीं होगा, इसके लिये सरकार की अनुमति की भी आवश्यकता पड़ेगी।
सरकार के इस कदम से ड्रेगन भी बुरी तरह बौखलाया हुआ है, इसके साथ-साथ आर्मी सेक्टर की केंटीन में अब भारतीय सामग्री का ही विक्रय होगा, इस क्षेत्र से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 50 लाख लोग जुड़े हैं, यह सरकार का दूसरा सराहनीय प्रयास है, इसी प्रकार कई अन्य बड़े कदम भी सरकार उठाने की तैयारी में है, जिसके सकारात्मक परिणाम हमें भविष्य में देखने को मिलेंगे। लेकिन भारतीय जन-मानस को सरकार के साथ आगे आना होगा उसके साथ कदम से कदम मिलाकर खडा़ होना होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट होने से बचाने और चीन जैसे दुश्मन के घटिया मंसूबों को पूरा न होने से बचने के लिये आर्थिक राष्ट्रवाद ही एक विकल्प है। स्वदेशी की ओर लौटना, और यह लौटना, आपाधापी के शहर से अपने खूबसूरत गाँव की ओर लौटने जैसा ही है।
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आर्थिक राष्ट्रवाद राष्ट्र भक्ति का ही एक पहलू है, जिसको वगैर युद्ध के सिर्फ़ अपने चिन्तन और संकल्प से किया जा सकता है, एवं सरकार साथ जनता-जनार्दन को भी आगे आकर भी विदेशी विशेष तौर पर चीन के उत्पादों का बहिष्कार करना पड़ेगा और जब हम उनके उत्पादों का क्रय करेंगे ही नहीं तो उन कम्पनियों को हमारे देश से निश्चित ही पलायन करना पड़ेगा, लोकल के लिए वोकल होने से हम निश्चित ही आत्मनिर्भर बन पाएँगे, इस महामारी में जब बड़ी कम्पनियाँ हमारा साथ नहीं दे पायीं तब लोकल ने ही हमारा साथ दिया।
लेखक युवा चिन्तक और शासकीय नेहरू डिग्री कालेज सबलगढ़, जिला मुरैना में व्याख्याता हैं।
सम्पर्क- +919893523538,
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