धर्म की राजनीति और धार्मिक सहिष्णुता
विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के लोकनीति केंद्र ने 2024 के आम चुनाव को लेकर जो चुनावपूर्व सर्वेक्षण किया है, उसके निष्कर्ष हिंदुत्ववादी राजनीति की वर्तमान अपराजेयता के मिथक के सामने कुछ बुनियादी सवाल खड़े करने वाले हैं। जिस दौर में हिंदू धर्म को भारतीयता के पर्याय के रूप में स्थापित करने की दक्षिणपंथी राजनीति उफान पर है, उसी दौर में यह सर्वे दिखाता है कि इस सर्वे में शिरकत करने वाले 79 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि हमारा भारत देश समान रूप से सभी धार्मिक समुदायों का है, न कि सिर्फ हिंदुओं का है। इस सर्वे में मात्र 11 प्रतिशत उत्तरदाताओं का ही मानना है कि भारत सिर्फ हिंदुओं का है।
यह स्वाभाविक है कि धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय धार्मिक बहुलता और समानता पर एकांतिक रूप से बल दे लेकिन सर्वे दिखाता है कि हमारे यहाँ धार्मिक बहुसंख्यक लोग भी देश पर सभी धर्मों का समान हक मानते हैं और देश के धार्मिक सौहार्द्र को बनाये रखना चाहते हैं। ध्यातव्य है कि धार्मिक बहुलता और सहिष्णुता को जहाँ 87 प्रतिशत मुस्लिम उत्तरदाताओं का समर्थन मिलता है, वहीं हिंदू उत्तरदाताओं में से भी 77 प्रतिशत इस मत को मानने वाले निकलते हैं।
यह सर्वे धार्मिक विविधता की स्वीकार्यता को लेकर एक और दिलचस्प पहलू हमारे सामने रखता है जो देश के सेकुलर चरित्र को लेकर आशा जगाने वाला है। सर्वे दिखाता है कि बुजुर्गों और अधेड़ उम्र के लोगों की तुलना में युवा भारत धार्मिक बहुलता में कहीं ज्यादा आस्था रखता है। पुरानी पीढ़ी (73 प्रतिशत) की तुलना में नयी पीढ़ी (81 प्रतिशत) धार्मिक सहिष्णुता को ज्यादा तवज्जो देती है। यह तथ्य उस आम धारणा के खिलाफ जाता है जो मानती है कि देश की नयी पीढ़ी व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से बहने वाले सांप्रदायिकता के गंदे नाले में डूबकर धार्मिक असहिष्णुता के जहर का शिकार बनती जा रही है।
यह सर्वे इस धारणा को भी नकार देता है कि ग्रामीण भारत की तुलना में नागर भारत सांप्रदायिक संकीर्णता और धार्मिक विद्वेष के जहर का शिकार ज्यादा हुआ है अथवा अनपढ़ लोग पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में धार्मिक दृष्टि से ज्यादा उदार या बड़े दिल के होते हैं। यह सर्वे दिखाता है कि शहरों की 84 प्रतिशत और कस्बों की 85 प्रतिशत आबादी धार्मिक बहुलता का सम्मान करती है जबकि ग्रामीण भारत में धार्मिक सहिष्णुता के समर्थकों का यह प्रतिशत घटकर 76 प्रतिशत ही रह जाता है। इसी प्रकार महाविद्यालय या उससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त शिक्षित आबादी का 83 प्रतिशत हिस्सा धार्मिक भाईचारे का आदर करता है जबकि किसी भी प्रकार की विद्यालयी शिक्षा से महरूम रही अनपढ़ आबादी का 72 प्रतिशत हिस्सा ही धार्मिक बहुलता में आस्था रखता पाया गया है।
स्पष्टत: सर्वे के आंकड़े धार्मिक सहिष्णुता और सेकुलरवाद के संवैधानिक आदर्श पर मुहर लगाते नजर आते हैं। दिन-रात हिंदू-मुस्लिम की उत्तेजक बहस में उलझाये रखने वाले गोदी मीडिया के सांप्रदायिक दुष्प्रचार के बावजूद धार्मिक सहिष्णुता की व्यापक स्वीकार्यता का आज भी बने रहना एक सुखद आश्चर्य की भाँति है। यद्यपि लोकनीति का यह सर्वे धार्मिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता को लेकर उम्मीद जगाने वाला है लेकिन यह चुनाव पूर्व सर्वे सत्तासीन भाजपा और उसके मातृ संगठन आर.एस.एस. की राम मंदिर वाली राजनीति की चुनावी संभावनाओं से इनकार नहीं करता। 8 प्रतिशत उत्तरदाताओं का साफ कहना है कि राम मंदिर उनके लिए सबसे ज्यादा अहमियत रखता है और इस समूह में से 22 प्रतिशत लोग इसे भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का सर्वाधिक पसंदीदा कार्य तक बताते हैं। कुल उत्तरदाताओं में से 48 प्रतिशत का यह भी मानना है कि राम मंदिर के निर्माण और रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से हिंदुत्ववादी अस्मिता कहीं ज्यादा ठोस रूपाकार ग्रहण कर पाएगी।
राम मंदिर का निर्माण और रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा आम आस्थावान हिंदुओं की एक बड़ी संख्या को मतदान के दिन भाजपा के पाले में ला सकता है। राम मंदिर को हिंदू पहचान के घनीभूतीकरण से जोड़कर देखने वाले लोगों के वर्गीय-जातीय और लैंगिक आयाम को भी सर्वे सामने ले आता है। आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत समृद्ध तबके और जातीय दृष्टि से ऊँची जातियों से ताल्लुक रखने वाली आबादी की गोलबंदी मंदिर के मुद्दे पर भाजपा के पक्ष में ज्यादा जाती देखी जा सकती है। जहाँ 43 प्रतिशत निर्धन वर्ग की तुलना में 58 प्रतिशत उच्च वर्ग मंदिर निर्माण को हिंदुत्ववादी अस्मिता के सशक्तिकरण से जोड़कर देखता है, वहीं निम्न वर्ग और मध्य वर्ग में इस प्रकार की राय रखने वाले लोगों का प्रतिशत क्रमश: 47 और 49 है।
स्पष्ट है कि निम्नतम से उच्चतम आय वर्ग की ओर जाने पर धार्मिक राजनीति की स्वीकार्यता भी समाज में बढ़ती देखी जा सकती है। इस संदर्भ में हिंदू अनुसूचित जातियों के मात्र 46 प्रतिशत लोग ही मंदिर निर्माण को हिंदू पहचान के घनीभूतीकरण के साथ जोड़कर देखते हैं जबकि उच्च जातियों में ऐसे लोगों का अनुपात 59 प्रतिशत तक मिलता है जबकि हिंदू ओबीसी आबादी में यह अनुपात 55 प्रतिशत है। यहाँ भी जातियों के निम्न श्रेणी क्रम से उच्च श्रेणी क्रम की ओर जाने पर मंदिर राजनीति का समर्थन बढ़ता जाता है। राम मंदिर को हिंदुत्ववादी अस्मिता से जोड़ने के मामले में किंचित लैंगिक विभेद भी ध्यातव्य है। यह धारणा स्त्रियों (46 प्रतिशत) की तुलना में पुरुषों (49 प्रतिशत) में कुछ ज्यादा मिलती है। अंत में इस संदर्भ में क्षेत्रीय विभेदन भी उल्लेखनीय है। उत्तरी और पश्चिमी भारत में जहाँ 51 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने राम मंदिर का समर्थन किया है, वहीं दक्षिण में मात्र 43 प्रतिशत ने ही इस पर अपनी सकारात्मक राय जाहिर की है जबकि पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर में यह प्रतिशत 45 पाया गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले 3-4 दशकों से राम मंदिर का मसला भारतीय राजनीति की दशा और दिशा को तय करता आ रहा है। 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के सहारे आम हिंदू मतदाताओं की घेराबंदी करते हुए भाजपा भारतीय राजनीति के केंद्र में स्वयं को स्थापित करने में सफल रही थी। अब जब अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है और सरकारी और निजी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के भव्य कार्यक्रम का आयोजन भी प्रधानमंत्री के हाथों सम्पन्न हो चुका है, वैसे में इस बात से बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता कि एक बार फिर आम चुनाव में राम मंदिर को भुनाने में भाजपा सफल हो सकती है। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर देश भर में भाजपा और आर.एस.एस. द्वारा बनाया गया माहौल अपने आप में काफी कुछ कह चुका है।
अभी तक तो राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा विपक्ष को अपने चक्रव्यूह में फँसाने में कामयाब नजर आती है किंतु राम मंदिर की चुनावी लहर के बावजूद सर्वे में धार्मिक बहुलता और धार्मिक समानता को मिलने वाला यह अभूतपूर्व समर्थन भारत के ‘हिंदू राष्ट्र’ में तब्दील हो चुकने की आशंकाओं पर विराम लगाता प्रतीत होता है। हजारों सालों से जो भारतीय समाज बहुधार्मिक संस्कृति को जीता आया है, जो ऐतिहासिक दुर्घटनाओं और राजनीतिक बवंडरों के बावजूद धार्मिक सहिष्णुता को बचाए हुए है, उस भारत में धार्मिक सहिष्णुता का आदर्श आज भी आम आदमी के दिल में अपनी जगह रखे हुए है। वास्तव में धार्मिक सह-अस्तित्व और सहिष्णुता की जड़ें इस देश की जमीन में बहुत गहरे तक धँसी हुई हैं और हिंदुत्व की राजनीतिक लहर के मौजूदा दौर में भी तात्कालिक रूप से कोई बड़ा खतरा हमारी धार्मिक बहुलता के समक्ष खड़ा नजर नहीं आता।
स्पष्ट है कि राजनीतिक क्षेत्र में ऊपर-ऊपर दिखाई देने वाली धार्मिक विभाजन की खाई भारतीय समाज में अंतर्निहित व्यापक सेकुलर यथार्थ को प्रतिबिंबित नहीं करती। अस्तु, चुनावी राजनीति में होने वाले धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से मतदाताओं को दिशा भ्रमित होने की जरूरत नहीं है और न ही धर्म की पिच पर विपक्ष को सुरक्षात्मक खेलने की जरूरत है। जो इंडिया गठबंधन भाजपा का विकल्प पेश करने का दावा करता है, उसके लिए तो यही मुनासिब है कि वह स्वयं को धार्मिक बहुलता और धार्मिक समानता की भारतीय परंपरा का असली वाहक साबित करे। धार्मिक बहुलता पर सर्वे में लग रही मुहर यही साबित करती है कि आज के समय में भी धार्मिक सहिष्णुता से ही भारतीय समाज का ताना-बाना परिभाषित होता है।