सामयिक

भाषा की बहुलता और भाषा की समग्रता

 

भाषा के बारे में जब भी बात होती है तो अक्सर भाषा की बहुलता को ज्यादा महत्व दिया जाता है। भाषा की समग्रता को नजरअंदाज किया जाता है और या यूँ कहें तो भाषा की बहुलता को ही सम्पूर्ण भाषा का दर्शन समझ लिया जाता हैं। भाषा को कई अलग तरीके से परिभाषित किया गया है। जैसे कि संचार के साधन के रूप में, मानसिक अंग के रूप में, एक ज्ञान-सम्बन्धी क्षमता, मन की स्थिति, संकेतों की एक प्रणाली के रूप में, और अनुभव का वर्णन करने के साधन आदि के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया जाता है।

थॉमस कुहन के अनुसार, सिद्धांतों की तुलना करना अक्सर कठिन होता है क्योंकि वे विविध वैचारिक ढांचे का उपयोग करते हैं। और कई भाषाई परिभाषाएं वास्तव में इस दावे का समर्थन करती है (लेसेरक्ले, 2012)। वहीं दूसरी ओर, डेरिडा के अनुसार भाषा अस्तव्यस्त होती हैं और इसका अर्थ कभी भी निश्चित नहीं होता है ताकि हम इसे प्रभावी ढंग से निर्धारित कर सके।

भाषा भी एक सामजिक घटना की तरह ही है, जो कि एक समाज के अस्तित्व के दौरान संचालित होती है, और समाज के उत्थान और विकास के साथ ही भाषा का विकास  होता है। भाषा के विकास को समझने के लिए समाज के इतिहास को समझना आवश्यक है। समाज और भाषा का अविभाज्य सम्बन्ध है। भाषा के माध्यम से लोग आपस में संवाद और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तथा एक दूसरे को समझते हैं। विचारों के आदान-प्रदान से सामाजिक बदलाव, प्रगति और उत्पादन शक्तियों में बदलाव संभव होता है। फलत: समाज में सम्पर्क भाषा का होना आवश्यक है। अत: आम भाषा के विकास के बिना सामाजिक विघटन की स्थिति पैदा हो जाती है और धीरे-धीरे समाज के साथ-साथ भाषा का भी अस्तित्व खत्म होने लगता है और इस तरह भाषा समाज के संघर्ष और विकास का साधन भी है।

प्राचीन काल से ही भारत में भाषा का परिदृश्य निरन्तरता और परिवर्तन के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करता है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के समाज की भाषा एक सांकेतिक भाषा है। जिसको पूर्णतया समझना अभी तक संभव नहीं हो पाया है। वैदिक आर्यों की भाषा संस्कृत थी जो कि समाज के कुछ विशेष वर्ग (उच्च वर्ग) के लोगों की भाषा थी। समाज के निम्नवर्ग को संस्कृत बोलने का अधिकार नहीं था। दूसरे शब्दों में, जनमानस की भाषा संस्कृत नहीं थी। इस तरह से इतिहास में, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में लोहे के आविष्कार की वजह से कृषि करना पहले से ज्यादा सरल हो गया और इसके परिणाम स्वरूप अधिशेष उत्पादन होने लगा, फलतः तत्कालीन समय भारतीय इतिहास में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक बदलाव का भी दौर था और वह परिवर्तन भाषा से भी सम्बन्धित था।

इस समय संस्कृत के साथ-साथ पाली और प्राकृत भाषाओँ का प्रादुर्भाव होता है। जैन और बौद्ध दर्शन ने इन भाषाओं को अपना माध्यम बनाया और बढ़ावा दिया। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस काल में लोक भाषा के रूप में पाली और प्राकृत भाषा को अपनाया गया था। भाषा के विकास और परिवर्तन की कड़ी में मध्यकालीन भारत में अरबी, फारसी, उर्दू, और हिन्दुस्तानी भाषा का विकास हुआ। 18वी शताब्दी तक भारत में हिन्दवी भाषा का प्रभुत्व दक्षिणी भारत को छोड़कर लगभग पूरे भारत में रहा है। इसी के साथ साथ क्षेत्रीय भाषाओँ का विकास होने लगा है जो कि भाषा के विकास के प्रश्न को लेकर एक अहम् पहलू है।

हिन्दुस्तानी भाषा के संदर्भ में, महात्मा गाँधी के अनुसार भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सभी को आसानी से समझ आ सके। हिन्दुस्तानी भाषा हिन्दी और उर्दू से मिलकर बनी भाषा है और इस प्रकार गाँधी हिंदुस्तानी भाषा को एक तरह से धर्मनिरपेक्ष भाषा की तरह देखते हैं। इसी तरह आगे उर्दू और आधुनिक हिन्दी का विकास हुआ और अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में इन दोनों भाषाओं को परिभाषित किया जाने लगा।

19 वी शताब्दी तक आते आते भारत में भाषा को लेकर विविधता एक साधारण बात हो गयी। G. A. Grierson के द्वारा Linguistic Survey of India (1920) में भारत की भाषाई अधिकता को लेकर एक ठोस उदहारण प्रस्तुत किया गया। इस सर्वे के अनुसार भारत में कुल 179 भाषाएँ और 544 बोलियां थी। 1921 जनगणना (Census) के अनुसार 222 भारतीय भाषाएँ थी। इस प्रकार भारत में भाषाओं की विविधता और बहुलता दिखाई देने लगी। इनमें से कुछ भाषाओं के साहित्य की कमी के कारण या फिर ये कह सकते है कि उपलब्ध साहित्य को ढूंढ कर मुख्यधारा के साहित्य के साथ नहीं देखा जा रहा था। जिसकी वजह से उस भाषा को राष्ट्र निर्माण में अयोग्य माना जाने लगा (Misra, 2007: 88) । इस संदर्भ में नेहरु कहते हैं कि अनेक भाषाओं की भूमि के रूप में भारत का प्रक्षेपण “cry of the ignorent” कहा जाता है।

नेहरु (Nehru’s note to National Language for India, A Symposium, 1944) कहते हैं कि भाषा का प्रश्न महत्वपूर्ण है लेकिन यह इसलिए जरुरी नहीं है कि भारत सैंकड़ों भाषाओं (कई अलग-अलग भाषाओं का देश) का एक कोलाहल हैं। जबकि भारत के विशाल आकार की तुलना में उल्लेखनीय रूप से कुछ भाषाएं हैं। और वे एक-दूसरे से निकटता से सम्बन्धित हैं।

यहाँ पर नेहरु स्पष्ट रूप से भाषाई बहुलता के विचार को भाषाई समग्रता के विचार से अलग समझने की कोशिश करते हैं। नेहरु ने भाषा के क्षेत्र में, भाषाओं की बहुलता के विचार का विरोध किया है। क्योंकि 19 शताब्दी में एक भाषा और एक राष्ट्र का विचार फ़ैल रहा था। उस समय के कुछ नेता जैसे बी.जी. तिलक और के. सी. सेन और भाषाविद जैसे सुनीति कुमार चटर्जी ने एक राष्ट्र-एक भाषा के विचार की पुरजोर वकालत की और एक ही खास भाषा के माध्यम से राष्ट्र निर्माण की संकल्पना को प्रस्तुत किया (Misra, 2007: 89)। इस तरह भाषाओं में कुछ विकसित और खास भाषा के आधार पर एकीकरण और उसके विस्तार से राष्ट्रीय भाषा की समस्या को जन्म दिया। इसलिए भाषा की विविधता के स्थान पर भाषा की समग्रता की बात होनी चाहिए।

इस प्रकार भाषा की बहुलता में किसी एक भाषा को विशेष दर्जा देकर उसको राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान देना, भाषा के दर्शन और भाषा की समग्रता के साथ अन्नाय होगा। भाषा की बहुलता और भाषा की समग्रता के सूक्ष्म अंतर को समझने की जरूरत है। अत: भाषाई आधार पर होने वाले भेदभाव को खत्म करने के लिए हमें भाषा के दर्शन को समझने की जरुरत है और भाषाओं को एक समग्र रूप में देखने की आवश्कता है।

संदर्भ सूची

लेसेरक्ले, जीन-जैक्स. (2012). अ मार्क्सिस्ट फिलोसोफी ऑफ़ लैंग्वेज. रेत्रिएवेद फ्रॉम

मिश्रा, सलिल. (2007). नेहरू एंड द लैंग्वेज भाषा प्रश्न. कंटेम्पररी पर्सपेक्टिव, वॉल्यूम 1 (1), 86-106.

.

Show More

ज्योत्सना

लेखिका साबरमती युनिवर्सिटी, अहमदाबाद (गुजरात) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- jyotsanacug@gmail.com
4 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x