झारखंड

पत्रकारों पर हमले का राजनैतिक दांव

 

झारखण्ड की राजधानी रांची में पुलिस वाले ने एक स्वतन्त्र पत्रकार की पिटाई कर दी और दलील दी कि उसे वह पत्रकार पॉकेटमार की तरह दिख रहा था। एएसआई ने न सिर्फ बीच सड़क पर पत्रकार को थप्पड़ मारा, बल्कि प्रेस का आईकार्ड दिखाने के बावजूद उन्हें गलियाँ देते हुए टीओपी ले जाकर  उनके साथ दुर्व्यवहार किया। यह घटना सब्जी बाजार में हुई, जहां पत्रकार अपनी पत्नी के साथ सब्जी खरीदने गए थे। उस पत्रकार से या पत्रकारों से पुलिस वाले को क्या खुन्नस रही होगी, पता नहीं, लेकिन ऐसा उसने यह जानने के बाद किया कि सामने वाला पत्रकार है।

घटना का जिक्र करते हुए उस पत्रकार ने अगले दिन सोशल मीडिया पर लिखा “मैं यह बात उस जगह बैठ कर लिख रहा हूं, जहां आम आदमी की भाषा अगर पुलिस या अन्य सुरक्षाबल को समझ नहीं आए, तो भी उसे मारा जाता है। लोगों के कन्धे के काले दाग को देखकर बंदूक ढोने वाला माओवादी समझा और साबित कर दिया जाता रहा है। उसी सोच और समझदारी का परिणाम था कि मेरे द्वारा खुद को पत्रकार बताए जाने के बाद भी एएसआई ने कहा कि अब तो जिसको बुलाना है बुलाओ, देखते हैं क्या करते हो।”

इस घटना ने पत्रकारों के प्रति उस द्वेष और वैमनस्य को फिर से उजागर किया है जो पुलिस, प्रशासन और सरकारी महकमे के भीतर कई सालों से पल रहा है। वह द्वेष, जो कभी सड़क पर गाली-गलौज, कभी मार-पीट, कभी धमकी और कभी जेल भेजने के रूप में नजर आता है। यह हमला कोई पुलिस अधिकारी करे, कोई नेता करे या फिर पूरा सिस्टम ही इसमें शामिल हो, वास्तव में यह हमला अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर है, जिसका द्योतक पत्रकार और पत्रकारिता है। यह हमला उन सभी गरीब व पिछड़े लोगों की आवाज पर है, जिनकी तरफ से पत्रकार सरकार और सरकारी तन्त्र से सवाल पूछता है।मिड-डे मील: एफआईआर में खामियां जो बताती हैं कि पत्रकार के खिलाफ बदले की भावना से कार्रवाई हुई

2019 में उत्तर प्रदेश के पत्रकार पवन कुमार जायसवाल को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उन्होंने मिड-डे मील में बच्चों को नमक रोटी देने की रिपोर्टिंग की थी। पुलिस के खिलाफ रिपोर्टिंग के कारण बंगाल में भी दो पत्रकारों को जून महीने में गिरफ्तार कर लिया गया। गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी को उनकी बेटी के सामने गोली मार दी गई। द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड 19 महामारी के दौरान अब तक 55 पत्रकार गिरफ्तार हुए, उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई या उन्हें धमकी दी गई है। इसके अलावा मार-पीट, गाली-गलौज की घटनाएं आम बात है। विभिन्न क्षेत्रों में हो रही इन अलग-अलग घटनाओं को एक साथ देखा जाना जरूरी है।

पत्रकारों के खिलाफ रोष जब बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, तो वह हत्या का कारण बन जाता है। 2017 में गौरी लंकेश, 2015 में कालबुर्गी और 2013 में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या इसी रोष का नतीजा थी। इस सूची में कई और भी नाम है। और ऐसी घटनाओं में सरकार और प्रशासन की चुप्पी उनकी सहमति की तरह है। दरअसल सरकार पत्रकारों और पत्रकारिता को पोसने का काम तभी तक करती है, जबतक वह सरकार के एजेंडे के लिए हितकारी हो। ऐसा नहीं होने पर विज्ञापन आदि से दबाव बनाने का प्रयास किया जाता है। इसके बाद गिरफ्तारी जैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं। हालांकि पत्रकारों पर हो रहा हर हमला राजनैतिक नहीं है, लेकिन यह उसी मानसिकता का नतीजा है जिसे राजनीतिक पार्टियाँ बढ़ावा दे रही हैं। यह सच है कि स्वतन्त्र अभिव्यक्ति और आलोचना सरकार और सरकारी तन्त्र को आंख दिखाने जैसा है। सराकरें इसे अपने लिए खतरे की तरह देखती हैं और इसे कुचलने का हर संभव प्रयास करती हैं।अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार से खतरा | दुनिया | DW | 01.01.2019

अभिव्यक्ति की आजादी पर लगातार हो रहे हमले और सरकार व प्रशासन की इसपर चुप्पी का परिणाम है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में लगातार पिछड़ता जा रहा है। प्रेस की स्वतन्त्रता के आधार पर 2002 में 180 देशों के बीच भारत 80वें स्थान पर था, आज 142वें स्थान पर है। भारत दुनिया को लोकतन्त्र की राह दिखाता है, लोगों के मौलिक अधिकार और उनकी आजादी की बात करता है। जबकि प्रेस की स्वतन्त्रता के मामले में भारत भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान से भी पीछे है।

ऐसा इसलिए है कि लगभग सभी सरकारों ने पत्रकारिता को अपने पब्लिक रिलेशन के जरिये की तरह ही देखा है, लोगों की आवाज की तरह नहीं। देश की आजादी के बाद पत्रकारिता की जिम्मेदारियों और इसके उद्देश्य को समझने के लिए 1952 में प्रेस कमीशन का गठन हुआ, जिसने 1954 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में इस बात को प्रमुखता से कहा गया था कि पत्रकारों के न्यूनतम वेतन को तय किया जाए। आपातकाल के बाद 1982 में दूसरी प्रेस कमीशन ने भी प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए कई सुझाव दिये। लेकिन आजतक किसी भी सरकार ने पत्रकारों की सुरक्षा, पत्रकारिता की स्वतन्त्रता या पत्रकारों के मानदेय को तय करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। देश में स्वतन्त्र पत्रकारिता की जरूरत और इसके प्रति सरकार का रवैया इसी से साबित हो जाता है। और फिर पत्रकारों पर हो रहे हमले, उनकी गिरफ्तारी या उन्हें मिल रही धमकियों की वजहें साफ-साफ नजर आने लगती हैं।

लोकतन्त्र में पत्रकारिता विपक्ष की भूमिका में होती है। जबतक सरकारें इस बात को समझ न लें, पत्रकारिता की स्वतन्त्रता और पत्रकारों की सुरक्षा का रास्ता तैयार नहीं हो सकता।

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विवेक आर्यन

लेखक पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता विभाग में अतिथि अध्यापक रहे हैं। वे वर्तमान में आदिवासी विषयों पर शोध और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919162455346, aryan.vivek97@gmail.com
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