
जादूगोड़ा यूरेनियम खनन के दुष्प्रभाव
जादूगोड़ा झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम जिले में टाटानगर से 25 किमी दूर अवस्थित है। एक समय यह इलाका जंगल-झाड़ियों से भरा पड़ा था। इस क्षेत्र में जाड़ा नाम का वृक्ष बहुतायत में था। इसी क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से रे़डियो धर्मी किरणें निकलती थीं। आज जिस क्षेत्र में भूमिगत खदान बने हैं, पहले आम लोग इसी रास्ते से गुजरते थे। इस इलाके में विशाल वट वृक्ष हुआ करते थे। गर्मियों में स्थानीय लोग इन वृक्षों के नीचे कुछ देर आराम करते थे। अगर गर्भवती महिलाएं इस तरफ से गुजरती, या पेड़ के नीचे आराम करतीं, तो वे रेडियेशन की चपेट में आ जाती थीं। परिणाम स्वरूप उनके कोख से मृत या विकलांग बच्चे पैदा होते थे। स्थानीय लोग इस क्ष्रेत्र को भूतहा यानी जादू वाला इलाका मानते थे।
1967 से इस क्षेत्र में भूमिगत खनन का कार्य चल रहा है। यह खनन यूरेनियम कॉपरेशन लिमिटेड आँफ इंडिया कर रही है, जो भारत सरकार की ही एक संस्था है। इसके आसपास तीन और भूमिगत खनन की स्थापना की गयी है। माटिन माइंस, नरवा माइंस तथा बाघजानता माइंस जो वर्तमान में मौजूद है। खानें धरती से लगभग 640 मीटर नीचे हैं और यहाँ लगभग 5 मीटर व्यास के शफ्ट द्वारा पहुंचा जाता है। इन भूमिगत माइन्स से मात्र 0.1 प्रतिशत यूरेनियम प्राप्त किया जाता है। भारत में रिएक्टर के ईंधन के लिए जितनी यूरेनियम की आवश्यकता है, यहाँ की खानों से उसका 25% पूरा होता है। पर खनन से यहाँ के आदिवासियों के जीवन पर जो क्षति कारक प्रभाव पद रहा है, उसकी किसी को चिंता नहीं है।
यहाँ जब अयस्क से यूरेनियम के निष्कासन की प्रक्रिया की जाती है, तो लगभग 99% कचरा निकलता है। यूरेनियम का यूरेनियम*235 नामक आइसोटोप का ही परमाणु संयंत्र में उपयोग होता है। दूसरे आइसोटोप – यूरेनियम*236 और यूरेनियम*238 कचरे के रूप में रह जाते हैं, जिन्हें टेलिंग कहा जाता है। जाहिर है की ये कचरे रेडियोधर्मी होते हैं, जिनसे रेडिएशन का खतरा बना रहता है। इन कचरों को पाइपलाइन और जल के द्वारा टेलिंग पॉण्ड में ले जाने की व्यवस्था है ताकि रेडिएशन के दुष्प्रभाव से बचा जा सके। पर तथ्य यह है कि यहाँ के वाशिंदे, मुख्य रूप से आदिवासी रेडिएशन के दुष्प्रभाव के शिकार हैं।
रेडियेशन का प्रभाव
जादूगोड़ा में जंगलों को काटकर तीन टेलिंग पोन्ड का निर्माण किया गया है और चौथे का निर्माण कार्य चल रहा है। यहां हो रहे खनन से कच्चे माल को निकाला जाता है और शुद्धिकरण के लिए हैदराबाद भेजा जाता है। पहले क्च्चे माल को निकाल कर ट्रक में लाद कर रेलवें स्टेशन, फिर वहां से ट्रेन के माध्यम से हैदराबाद भेजा जाता है। इस दौरान सड़क में कचरा भर जाता है। गर्मी के दिनों में यह रेडियो एक्टिव कचरा हवा के कारण हजारों किमी. तक फैल जाता है। बरसात के दिनों में कचरा गांव के कुओं और झरनों से होते हुए स्वर्णरेखा नदी में मिल जाता है। गैर सरकारी संगठन ‘जोहार’ के अध्यक्ष घनश्याम बिरुली की रिपोर्ट के मुताबित 47 फीसदी महिलाओं में यौन इच्छा जागृत नहीं होती, 30 फीसदी महिलाएं गर्भ धारण नही करती या असमय गर्भपात हो जाता है।
इस क्षेत्र में 15 गांव के 30,000 लोग विकिरण का दंश झेल रहे हैं। तिलिया टांड निवासी बसंती सोरेन ने बताया कि उसके पति ने उसे इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उसका गर्भ नही ठहर रहा था। बसंती ने दूसरी शादी कर ली है, लेकिन उसे डर है कि दूसरा पति भी उसे छोड़ न दें। रेडिएशन की वजह से पुरूषों में भी नपुंसकता देखने को मिल रही है। इस कारण दूसरे गाँव के लोग उस इलाके में लड़की ब्याहने से इनकार कर रहे हैं। यहाँ तक कि इस इलाके में मेहमान भी आना पसंद नहीं करते। इससे एक नई प्रकार की सामाजिक समस्या पैदा हो रही है। इस क्षेत्र में हर साल 70-80 विकलांग बच्चे पैदा होते हैं। इसके अलावा कैंसर, टीवी, स्वास्थ्य रोग, मंदबुद्धि जैसे विभिन्न रोग देखने को मिलते हैं।
सवाल है कि यह रेडियशन फैल कैसे रहा है। खनन के बाद परिशोधन के लिए यूरेनियम को हैदराबाद भेजा जाता है और उसके अवशेष या कचरा जादूगोड़ा में बिखेर दिए जाते हैं। बच्चे नंगे पाँव से यहाँ फुटबाँल खेलते हैं, वे रेडिएशन के चपेट में आ जाते है। मजदूर खनन में कार्य करने के बाद वही पोषाक पहनकर सीधे घर आ जाते हैं। कभी कभार छोटे बच्चे पिता से लिपट जाते हैं और महिलाएं उस वस्त्र को धोते समय रेडियम से प्रभावित हो जाती हैं। बरसात के दिनों में यही कचरा नाला, नहरों से होते हुए स्वर्ण रेखा नदी में मिल जाता है, इससे जल के जीव जन्तु शिकार हो जाते हैं।
इसके साथ ही सोनार मछुवारे भी चपेट में आ जाते हैं। टेलिंग पोन्ड का पानी धान की खेती में प्रवेश कर जाता है, धान के साथ विषाक्त घासों को गाय खाती है और विषाक्त दूध देती हैं इस प्रकार फिर से मानवों में रोग पहुंचता है। यूसीआईएल के अधिकारी स्वीकारते हैं कि ड्यूटी के दौरान मरने वालों की संख्या 1994 में 17 तक हो गयी थी। यहाँ काम करने वाले मजदूरों का कहना है कि पेट में गैस हो जाता है इसलिए शराब का प्रयोग करते हैं।
दूसरी तरफ खनन का प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ रहा है। यहाँ जंगलों को काटकर टेलिंग पोन्ड का निर्माण किया जा रहा है। वन आदिवासियों की जीविका के साधन हैं, वे नष्ट हो रहे हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात है कि इस क्षेत्र के आसपास केंदू फल एवं आम में बीज नहीं पाया जाता है। फलों की गुठलियां छोटी होती जा रही हैं। ग्रामीणों का कहना है कि यह भी यूरेनियम का ही प्रभाव है।
हम सभी जानते हैं कि रेडियो एक्टिव विकिरण से मानव एवं पर्यावरण पर कितना प्रभाव पड़ता है। जादूगोड़ा की स्थिति हिरोशिमा और भोपाल गैस त्रासदी जैसी ही हैं। यहाँ शक्तिशाली परमाणु बम बनाने के लिए यूरेनियम को निकला जाता है, लेकिन यहाँ के आदिवासियों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक असंतोष है।
सामाजिक दृष्टिकोण
महिलाओं का बांझपन, असमय गर्भपात हो जाना या बार-बार गर्भ गिर जाना उनके लिए अभिशाप बन गया है। उन्हें कुलटा, डायन, घोषित किया जा रहा है। कई पुरूषों ने अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी शादी कर ली है। जादुगोड़ा के लोगों में एक सामजिक असंतोष देखने को मिल रहा है।
आर्थिक दृष्टिकोण
यहाँ के लोग वनों से विभिन्न प्रकार के फल, बीज, पर निर्भर थे, लेकिन वनों को काटकर टेलिंग पोन्ड का निर्माण होने से जीविका का साधन वनों के साथ समाप्त हो रहा है। फल, सब्जियां दूषित हो रही हैं और उनपर निर्भर लोग आर्थिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। यहां के फल नहीं खरीदे जाते हैं।
धार्मिक दृष्टिकोण
आदिवासियों का पवित्र पूजा स्थल सरना स्थल औऱ जतरा के साथ पूर्वजों का प्रधान घाट भी नष्ट होता जा रहा है। जहाँ पथलगड़ी है, वहाँ नुकसान पहुँचा है। इन स्थानों में पूर्वजों ने वर्षों पहले नींव रखी थी। युसीआईएल और पुलिस द्वारा यहाँ के नेता या समाजिक कार्यकर्ताओं को किसी रूप में शान्त कर दिया जाता है। ग्रामीणों के विस्थापन को लेकर कई बार जन आन्दोलन हुआ। 1994 में ग्रामीणों को सूचना दी गयी थी कि जिनकी भूमि का अधिग्रहण किया गया है, वे आकर मुआवजा ले लें। ग्रामीणों ने अपनी अलग मांग रखते हुए मुआवजे के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। 27 जनवरी 1996 को यूसीआईएल के प्रबन्धक ने जिला पुलिस और पारा मिलिट्री फोर्स के साथ बिना सूचना के गांव को नष्ट कर दिया। क्या यह मानवाधिकार का हनन नहीं है? आदिवासियों का सरना स्थल उजाड़ दिया गया, क्या यह अत्याचार नहीं है?
जरूरी है कि समाज के बुद्धिजीवी और संवेदनशील लोगों के साथ भावी पीढ़ी भी इस गम्भीर समस्या पर विचार करे, नहीं तो एक दिन जादूगोड़ा मिट जाएगा और यह बर्बादी बस इतिहास में दर्ज रह जाएगी।
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