मौजूदा किसान आन्दोलन कई सालों की मेहनत है …
तमाम विरोधों और दुष्प्रचार के बावजूद किसान आन्दोलन थम नहीं रहा, सात सप्ताह होने को आए हैं और वह दिल्ली को घेर कर बैठे हैं। पूरे देश में इनके समर्थन में और कई किसान संगठन, जन आन्दोलन और आम नागरिक अपने अपने तरीके से समर्थन जाहिर कर रहे हैं। कहीं कोई श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर रहा है, तो पुणे शहर के बीच किसान बाग़ का आयोजन किया गया है जहाँ शहर के नागरिक रोज समर्थन जाहिर करने के लिए आते हैं, वहीं शाहजहाँपुर बॉर्डर पर राजस्थान में हाईवे पर लम्बी बस्ती बस गयी, गाज़ीपुर और सिंघु बॉर्डर पर पहले से लोग डेट हैं। बीजेपी के मंत्री, संत्री और उनके कार्यकर्ता अडानी अम्बानी की रक्षा में सड़क पर उतरे हैं और लोगों को बताते नहीं थक रहे की किसानों के फायदे के लिए ही तीन कानून लाये हैं और विपक्ष वाले उन्हें बर्गला रहे हैं। जनता भी समझती है और कहीं कहीं पर खुल के विरोध कर रही है, जैसे रुद्रपुर में बीजेपी की रैली का खुला विरोध, तो कहीं चुपचाप घरों में, सोशल मीडिया पर आदि आदि। जिस तरह का केंद्र सरकार का रवैया है उससे लगता नहीं है की आन्दोलन तुरन्त ख़त्म होने वाला है।
स्क्रिप्ट दुबारा वैसे ही खुलने लगी है जैसे पिछले साल CAA – NRC के खिलाफ चल रहे शाहीन बाग़ आन्दोलन के दौरान हुआ था। अफवाहों, मीडिया में दुष्प्रचार, विपक्ष की साजिश, देश द्रोही, अर्बन नक्सल और आदि आदि अध्यायों के बाद अब सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी डाली जा चुकी है। बजाय की सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश तीन कानूनों की संवैधानिकता पर चर्चा करें वह यह चर्चा करने में लगे हैं की विरोध करना मौलिक अधिकार है या नहीं या फिर विरोध कैसे करें, भले ही यह बातें संविधान में पूर्ण रूप से पहले से लिखित है की जनतांत्रिक विरोध जनता का हक़ है और किसान वही कर रहे हैं। हमारे न्यायपालिका और न्यायधीशों की क्या स्थिति है कोई छुपी नहीं है।
इन सब के बीच जो सबसे अच्छी बात है वह है की, किसानों के आन्दोलन ने हरेक आरोप और प्रत्यारोप का एक ही जवाब दिया है और खुल के कहा है की हम किसान हैं और संगठित हैं। हमारी माँगें साफ़ साफ़ है तीन किसान कानून को रद्द करो, बिजली अधिनियम संसोधन को वापस लो और राजनैतिक बंदियों को रिहा करो। इन मुद्दों के ऊपर बात करो, कौन देशद्रोही है, खालिस्तानी है, नक्सल है यह हमारा मुद्दा नहीं हैं।
किसान आन्दोलन ने एक राजनैतिक समझ का परिचय देते हुए अपने मुद्दों को साफ़ साफ ही नहीं रखा है बल्कि यह भी दिखा दिया है की सरकार पूँजीपतियों के हाथों बिक गयी है। और इसलिए खुल कर उन्होंने अम्बानी और अडानी को घेरा है और चुनौती दी है। इसके राजनैतिक असर भी दिखे है और जिस तरह से अकाली दल ने NDA तो छोड़ा ही साथ ही साथ खुल कर किसानों के साथ आये, वहीं हरियाणा में जननायक जनता पार्टी भी दबाब में है, आम आदमी पार्टी के भी सुर बदले बदले से दिख रहे हैं। लेकिन किसान आन्दोलन ने भी राजनैतिक दलों से दूरी बना कर रखी है और आन्दोलन की कमान अपने हाथ में रखी है।
तमाम कोशिशों के बावजूद अगर सरकार इनकी एकता तोड़ने में सफल नहीं हुई है तो इसके पीछे लम्बी मेहनत है। थोड़ा पीछे चलते हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ पहला अगर सफल आन्दोलन और राजनैतिक झटका मई 2014 के बाद अगर किसी ने दिया था तो वह किसानों और मज़दूरों ने ही दिया था। दिसम्बर 2014 में NDA ने भूमि कानून 2013 संशोधन आर्डिनेंस लाया था जो की कंपनियों के पक्ष में था। इस आर्डिनेंस के कारण 2013 का कानून पूर्ण से अप्रभावी हो जाता, जो की 2013 में संसद में पारित होने के बाद अभी पूर्ण रूप से देश में लागो भी नहीं हुआ था। तत्काल देश के कई हिस्सों में किसान संगठनों, मज़दूर संगठओं, विस्थापन के खिलाफ लड़ने वाले संगठनों, जंगल अधिकार के लिए लड़ने वाले आन्दोलनों आदि ने मोर्चा खोला और फरवरी आते आते इसे एक देश व्यापी “भूमि अधिकार आन्दोलन” का शक्ल दे दिया।
इस मंच में नर्मदा बचाओ आन्दोलन, जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन, अखिल भारतीय किसान महासभा, अखिल भारतीय किसान सभा, अखिल भारतीय कृषक मज़दूर संगठन, राष्ट्रीय आदिवासी मंच, शोषित जन आन्दोलन, छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन, किसान संघर्ष समिति आदि के साथ साथ कई आन्दोलन शामिल हुए। देश भर में कई राज्यों में कार्यक्रम हुए और कहें तो मुद्दे आधारित अपने मतभेदों को किनारे रख कर बिना किसी एक नेता के एक साझा मंच स्थापित किया। राजनैतिक दलों से समर्थन भी मिला और संसद में विपक्ष ने सरकार को भी घेरा। नतीजा भी तुरन्त सामने आया और मई 2014 तक सरकार ने आर्डिनेंस को वापस ले लिया।
इस आन्दोलन ने एक तरफ निराश आन्दोलनों और प्रगतिशील ताकतों को बल दिया और साथ आकर काम करने की नयी पद्द्ति भी पेश की। अगले दो सालों तक देश भर में भयानक सूखे के कारण बदहाली, नोटबंदी के बाद आयी आर्थिक मंदी, फसल की सही लगत नहीं मिलने के कारण किसानों का बढ़ते कर्ज, और बदहाली के कारण ना रुकने वाली आत्महत्ये के विरोध में किसानों और मज़दूरों के आन्दोलन में और तेजी आयी। राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश आदि कई जगहों पर आन्दोलन हुए। 6 जून 2017 को जब मध्य प्रदेश पुलिस ने मंदसौर में प्रदर्शनकारी किसानों पर गोली चलाई जिसमें 5 किसानों की मौत हो गयी, उसके बाद से किसानों के आन्दोलन को और गति मिली। वहीं 2018 में अखिल भारतीय किसान सभा के 50,000 लोग नासिक से मुंबई पैदल पहुंचे और सरकार को किसानी और जंगल अधिकार के मामलों पर घेरा। किसानों का विरोध और तीव्र हुआ और नतीजतन महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार, राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार को कई समझौते करने पड़े।
राज्य सरकारें झुकी तो लेकिन यह भी साफ़ हो गया इन कई समझौतों का कोई सही निष्कर्ष नहीं निकला और ना ही किसानों को कोई फायदा मिला। नतीजा यह हुआ की तमिलनाडु के किसान जो चालीस दिनों के अपने जंतर मंतर, दिल्ली प्रदर्शन के बाद तमिलनाडु वापस चले गये थे वापस जुलाई में दिल्ली पहुँच गये। सितम्बर आते आते स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के नेता राजू शेट्टी NDA से बहार आ गये और देश भर में किसान संगठनों को एक साथ लाने के लिए कई गोष्ठियाँ और मीटिंगे होने लगी। इनमें कई कोशिशें हुई, एक तरफ कुछ संगठनों ने राष्ट्रीय किसान समन्वय समिति बनाया तो दूसरी और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSSC) बनी। जाने माने कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा जी ने भी पहल की किसान संगठनों को एक साथ लाया जाए। भारतीय किसान मज़दूर महासंघ के शिव कुमार ‘कक्का’ जी ने भी कोशिश की और राष्ट्रीय किसान महासंघ बनाया। हालाँकि AIKSSC के अलावे अन्य मंच उतने प्रभावी नहीं हुए। AIKSSC ने किसान मुक्ति यात्रा, किसान मुक्ति संसद से लेकर, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों से आगे जाते हुए दो कानून पूर्ण कर्ज़ मुक्ति और फसल की लागत का डेढ़गुना दाम MSP को एक राजनैतिक मुद्दा बनाया। और उनके दो ड्राफ्ट कानूनों को विपक्ष के 22 राजनैतिक दलों के समर्थन के साथ संसद में प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर पेश किया।
AIKSSC ने लगातार राष्ट्रीय और राज्य स्तर के कार्यक्रमों के साथ ही साथ देश के लगभग 500 किसान संगठनों को साथ लाने का काम किया। पहली बार अगर कहें तो 1980 के दशक के बाद जब महेंद्र सिंह टिकैत, शरद जोशी, नन्दुजास्वामी जैसे किसान नेताओं ने देश को झकझोरा था वैसे दुबारा देश के किसान संगठन एक मंच पर आए। मंच की खासियत रही की भारतीय किसान यूनियन के कई धड़े के अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों के किसान-मज़दूर आदिवासी संगठन, सामाजिक जन आन्दोलन, भूमि और जंगल अधिकार के लिए लड़ने वाले आन्दोलन, विस्थापन विरोधी आन्दोलन, छोटे और बड़े किसान आन्दोलनों के साथ साथ खेतिहर और महिला किसान आन्दोलनों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। शुरूआती दो मुद्दों, क़र्ज़ मुक्ति और सही लागत, से आगे बढ़कर समन्वय ने वनाधिकार के मामले, नरेगा मज़दूरों का मामला, महिला इंसानों का मामला, रसायन रहित खेती का मामला और अन्य मुद्दों पर भी बात रखी। उनके प्रस्तावित कानूनों में किसान की परिभाषा में खेती किसानी से जुड़े लोगों के अलावे मछुआरों, मुर्गी और पशु पालको आदि सभी लोगों को जोड़ा और उनके लिए भी सही दाम, पेंशन, गारंटीड आय की माँग को मुद्दा बनाया। समन्वय में कई मुद्दों पर असहमति के बाद भी साथ काम करने की एक शैली विकसित की।
और यही सूझबूझ और एकता आज देश में चल रहे किसान आन्दोलन में दिख रही है। भले ही किसान आन्दोलन को टुकड़ो टुकड़ो में बांटने की बात चल रही हो और मौजूदा आन्दोलन को सिर्फ पंजाब और हरयाणा के किसानों का आन्दोलन बताने की कोशिश चल रही हो लेकिन यह साफ़ है की इसमें AIKSSC और उसके घटकों की देशव्यापी कोशिश और ताकत शामिल है। और यह बात पंजाब के किसान आन्दोलन के साथी, जो की AIKSSC के भी हिस्सा रहे हैं भली भाँती जानते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा एक आन्दोलन के समन्वय की प्रक्रिया है और त्वरित तौर पर बनी है और जरूरी भी है। क्योंकि सरकार की पूरी कोशिश रही की की लोगों को बाँट दिया जाए और किसी भी तरह आन्दोलन को समाप्त कर दें।
आन्दोलन त्वरित नहीं होते और उसके पीछे की प्रक्रिया समझने की हमें जरूरत है। पंजाब के किसान संगठन भी सालों से आन्दोलनरत रहे हैं अपनी माँगों को लेकर और राष्ट्रीय आन्दोलनों से भी जुड़े रहे हैं। उन्हें कोई बरगला नहीं सकता और ना ही कोई आकर उनके ऊपर अपने अजेंडे तडप सकता है जैसे उनके राजनैतिक बन्दियों की माँग को लेकर कुछ बवाल लोगों ने खड़ा किया।
आखिर में प्रगतिशील ताक़तों को इस बात पर फकर होना छाइए की जो किसान आन्दोलन पहले सिर्फ फसल के उचित दाम पर सीमित था आज भारत की पूँजीवादी व्यस्था के ऊपर प्रहार कर रहा है। यह किसान आन्दोलन और भारत के आन्दोलनों की परिपक्वता को ही दर्शाता है, एक तरफ जहाँ राजनैतिक दल लगातार पराजित हो रहे हैं और जनता की उम्मीदों पर पपूर्ण रूप से विफल हो रहे हैं वहीं जन आन्दोलनों ने समाज में नयी राजनैतिक चेतना जगाई है जो की सराहनीय है। फैसला जो भी हो लेकिन यह तय है की सरकार के कॉर्पोरेटी मंसूबे साफ़ साफ़ दिख गये हैं और कोई भी प्रचार उसको ढँक नहीं पायेगा। सरकार के साढ़े तीन साल आसान नहीं गुजरने वाले हैं अब, UPA 2 के लिए भ्रस्टाचार विरोधी आन्दोलन गले की फांस बना था वैसे ही किसान आन्दोलन NDA 2 के लिए साबित होगा।