मीडिया: मिशन से प्रोफेशन तक का सफर
आज पूरे देश में आजादी के अमृत महोत्सव की चर्चा और उत्सव दोनों ही चरम पर है। इस महोत्सव के माध्यम से लोगों को देशभक्ति की भावना से जोड़ने की एक अच्छी पहल की जा रही है। इस उत्सव में मीडिया ही वह माध्यम बना है, जिसके जरिये हम कई ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों, समाज सुधारकों के बारे में जानकारी हासिल कर पाये हैं, जिन्होंने आजादी की आंदोलन और देश के उत्थान में अद्वितीय योगदान दिया था। इन 75 सालों के दौरान विभिन्न क्षे़त्रों में कई बदलाव देखे गयें। इन बदलावों से मीडिया भी अछूता नहीं रहा है। विषयवस्तु, भाषा, ले-आउट, शैली, कार्य पद्धति, संप्रेषण माध्यम सभी में आये बदलाव को बहुत आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव जो मीडिया में आया, वह है इसके उद्देश्यों में। आज अधिकांश मीडिया, मिशन से भटककर प्रोफेशन पर केंद्रित हो गया है। आलम यह है कि देश के चौथे खंभे के रूप में रेखांकित मीडिया, आज गोदी मीडिया का दर्जा हासिल कर चुका है। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक, सोशल सभी प्रकार के मीडिया में ज्यादातर उन्हीं खबरों को कवरेज दिया जाता है, जो लाभ का ज्यादा बड़ा जरिया हो। मसालेदार और सनसनीखेज खबरों का बोलबाला हो गया है।
यों तो मीडिया को सूचना, मनोरंजन, शिक्षा और जागरूकता के लिए जाना जाता है, किंतु अब यह सब कुछ बदलता दिख रहा है। ऐसा नहीं है कि यह पूरे तरीके से अपने उद्देश्यों से भटक गया है या फिर सिर्फ नकारात्मकता ही परोस रहा है। इसने महिलाओं, दलितों, पिछड़ों, वनवासियों के सशक्तिकरण, जागरूकता तथा शिक्षा में जो योगदान दिया है, वह भी उल्लेखनीय है। कई बार यह साबित भी हुआ है कि मीडिया चाहे तो किसी को न्याय भी दिला सकता है, सत्ता में पहुंचा भी सकता है और सत्ता से गिरा भी सकता है। जनमत निर्धारण अथवा लोगों की सोच अधिकांशत: मीडिया से प्रभावित हो गई है। फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि आज सकारात्मक चीजों से ज्यादा मीडिया समाज में नकारात्मकता परोस रहा है।
एक समय था जब लोगों ने अकबर इलाहाबादी के उस कथन को अपने जहन में उतार लिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि “खींचौं न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।” किंतु आज वह कथन गोदी मीडिया ने गलत साबित कर दिया है। मीडिया या तो पक्ष में खड़ा है या विपक्ष में। निष्पक्ष खड़ा मीडिया शायद ही देखने को मिलता है। जाति, धर्म, वर्ग, नस्ल, सामाजिक स्तर जैसों मुद्दे को ध्यान में रखकर कवरेज देना इसकी आदतों में शुमार हो चुका है। दिन भर चैनलों पर बैठकर चीखना-चिल्लाना एंकरों की शैली बनती जा रही है। आज भी मुझे वे बचपन के दिन याद हैं, जब मंजरी जोशी और सलमा सुल्ताना जैसी शालीन व्यक्तित्व की धनी एंकर अपने मुस्कुराते चेहरे के साथ दूरदर्शन पर समाचार पढ़ा करती थीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि काश! मुझे भी न्यूज रीडर बनने का मौका मिल पाता तो कितना अच्छा होता। किंतु, आज मॉडलों जैसे रूप में, गला फाड़ते एंकरों के तमतमाते चेहरे और तीखे तेवर तेवर देखकर टीवी चैनल तुरंत ही बंद कर देने की इच्छा होती है। उनकी खबरों को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि पत्रकारिता का तीखापन अब सिर्फ उनके चेहरे पर ही मौजूद रह गया है।
भारत के तस्वीर को बदलने में सिर्फ हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं ने ही नहीं बल्कि ‘इंग्लिशमैन’ जैसे अंग्रेजी अखबारों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसी प्रकार ‘पयामे आजादी’ के योगदान को भी भूलाया नहीं जा सकता है। अपने तीखे तेवर से इसने अंग्रेजों की नींव हिला कर रख ही दी थी, साथ ही हिंदी पत्रकारिता को भी एक अलग आयाम दिया। स्वतंत्रता-आंदोलन के मूर्धन्य नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी, 1857 को दिल्ली में ‘पयामे आजादी’ पत्र का प्रकाशन किया। अल्प समय तक निकलने वाले इस पत्र ने तत्कालीन वातावरण में ऐसी जलन पैदा कर दी जिससे ब्रिटिश सरकार घबरा उठी तथा उसने इस पत्र को बंद कराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस व्यक्ति के पास भी इस पत्र की कोई प्रति मिल जाती तो उसे अनेक यातनाएं दी जाती थी। इसकी सारी प्रतियों को जब्त करने का विशेष अभियान तत्कालीन सरकार ने चलाया था। यह अगर हिंदू के पास मिलता तो बिना अदालत में लाए उसे जबरदस्ती गोमांस खिलाकर, गोली से उड़ा दिया जाता था। यदि मुसलमान के पास बरामद हो तो सुअर का गोश्त उसके मुंह में भरकर गोली से उड़ा दिया जाता था। अंग्रेज इस अखबार के टुकड़े तक को देखना पसंद नहीं करते थे। लेकिन आज वही पत्रकारिता आजादी के 75 सालों बाद जहर उगलने का जरिया बन गया है जो देश की एकता, अखंडता के लिए बेहद खतरनाक है। साथ ही देश की छवि के लिए भी नुकसानदेह साबित हो रहा है।
आज की पत्रकारिता व्यक्ति अथवा संस्था के निहित स्वार्थों के लिये पीत पत्रकारिता को अपनाकर, लोगों को ब्लैकमेल करना प्रारंभ कर दिया है। मिशनरी मीडिया ने ‘पेड न्यूज’ को तवज्जों देना सीख लिया है। ‘पेज थ्री’ के बिना भी अब प्रिंट मीडिया की सांसें टूटती प्रतीत होने लगी है। खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश करना, दंगे भड़काने वाली खबरें परोसना, अपने फायदे के लिए सत्ता के तलवे चाटना आदि आज की मीडिया की फितरत बन गई है। संवेदनशील खबरों को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना आम शैली हो गई है, जिससे समाज में अव्यवस्था और असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है। साथ ही टी.वी. एवं सिनेमा के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति का आगमन और प्रचार-प्रसार भी हो रहा है जिससे समाज में अश्लीलता और असामाजिक तत्वों में निरंतर वृद्धि हो रही है। साथ ही बिना सोचे समझे अपनी संस्कृति को छोड़कर किसी और की संस्कृति को अपनाने के परिणाम स्वरूप कई दुष्परिणाम भी समाने आ रहे हैं।
इंटरनेट के आगमन और तकनीक के विस्तार के बाद खबरों की संदिग्धता भी बढ़ती जा रही है। गलत खबरों को एक क्लिक पर देश-दुनिया के किसी भी हिस्से में पहुंचा देना बेहद घातक सिद्ध हो रहा है। और फिर जब तक समाचारों का वायरल टेस्ट दिखाया जाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरीके की फूहड़ता परोसा जा रहा है और सेंसरशिप से परे होकर जो काम किये जा रहे हैं, वह बेहद शर्मनांक है। एक समय था जब समाचारों, पत्र-पत्रिकाओं तथा मीडिया के अन्य माध्यमों को देख, सुन और पढ़कर भाषा सीखने की सलाह दी जाती थी। किंतु, आज वही मीडिया भाषा भी बिगाड़ रही है। हिंग्लिश के कारण न तो आज हम हिंदी के रहें और न अंग्रेजी के।
आज के अधिकांश पत्रकारों के लिए यदि हम ये कहें कि ‘थोथा चना, बाजे घना’ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अपने आधे-अधूरे ज्ञान से वे कभी भ्रामकता फैलाते हैं या फिर कभी गलत जानकारियों के जरिये निर्दोषों की छवियों पर लांछन लगा देते हैं। आलम यहां तक देखने को मिलता है कि अदालत से पहले मीडिया ही लोगों को दोषी करार दे देता है। रिया चक्रवर्ती, आर्यन खान आदि जैसे मुद्दे पर जिस तरीके से मीडिया ट्रायल किया गया, वह मीडिया का विकृत स्वरूप ही सामने प्रकट करता है। विज्ञापनों अथवा विज्ञापनों को पाने की होड़ ने मीडिया को पूरे तरीके से समझौतावादी बना कर रख दिया है। कई बार तो तमाम नियमों को दरकिनार कर समाचार पत्रों में खबरों से ज्यादा विज्ञापन ही भरे होते हैं। पत्रकारिता का पूरा समीकरण ही बदल चुका है। विडंबना यह है कि जो पत्रकार सच में इस पेशे के साथ कर्तव्यनिष्ठ होकर कार्य करना चाहते हैं, सच को सामने लाना चाहते हैं और मीडिया के निहित उद्देश्यों पर खड़ा उतरना चाहते हैं, उन्हें या तो नौकरी से हाथ धोना पड़ जाता है या फिर उन पर देशद्रोही का ठप्पा लगा दिया जाता है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि पत्रकारिता जिन उद्देश्यों के साथ प्रारंभ हुआ था, वह आजादी के 75 सालों बाद नाम मात्र ही बची है। आज की पत्रकारिता से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। यदि इसकी साख को बचानी है तो हमें इतिहास के उन पन्नों को पलटना होगा, जहां से इसकी नींव पड़ी थी। तभी यह देश के चौथे खंभे के रूप में विद्यमान रह सकता है। अन्यथा की स्थिति में इस जर्जर होते खंभे से देश को कभी भी ऐसा नुकसान पहुंच सकता है, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज हम फिर अपने ही देश में उन्हीं खबरों को दिखाने के लिए बाध्य हैं जो सरकार चाहती हैं, जैसा की ब्रिटिश हुकूमत के समय होता था। किंतु उस समय गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल गंगाधर तिलक, राम मनोहर लोहिया आदि जैसे महान पत्रकार मौजूद थें, जिनका उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट था। किंतु अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। हमें गोरों से तो आजादी मिल गई, जिसमें पत्रकारिता का अविस्मरणीय योगदान रहा, किंतु हम और हमारी पत्रकारिता अपने ही देश में गुलाम बन कर रह गयें।