सोच बदलते हैं ‘मास्साब’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
निर्देशक – आदित्य ओम
स्टार कास्ट – शिवा सूर्यवंशी, शीतल सिंह, मनवीर चौधरी, हुसैन खान , रवि भूषण कुमार, चंद्र भूषण सिंह आदि
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार
हमारे देश में ऐसे न जाने कितने मास्टर साहब हुए हैं जिनमें स्त्री, पुरुष दोनों ही वर्ग के मास्टर रहे हैं। जिन्होंने देश के पिछड़े या अति पिछड़े इलाकों में शिक्षा की अलख जगाई अपनी शिक्षण पद्धति के सहारे। ऐसे ही शिक्षकों यानी उन मास्साब के प्रति भावनात्मक नजरिए से फ़िल्म ‘मास्साब’ बनाई है निर्देशक आदित्य ओम ने। इसी साल की शुरुआत में यह फ़िल्म रिलीज हुई थी और जल्द ही ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी नजर आएगी। हालाँकि इससे पहले यह फ़िल्म समारोहों में भी काफी सराही जा चुकी है और कई पुरस्कार भी अपने नाम कर चुकी है। जिसमें बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर, बेस्ट फ़िल्म के भी कई खिताब शामिल हैं।
फ़िल्म की शुरुआत होती है जहां बाल सुधार गृह में एक मास्साब पढ़ा रहे हैं बाद में वही मास्साब एक गाँव में आते हैं नई-नई नियुक्ति लेकर। गाँव की उस प्राथमिक पाठशाला के हालात कुछ ठीक नहीं दिखाई देते। बच्चे आते तो हैं लेकिन सिर्फ स्कूल में मिलने वाले मिड-डे मील का खाना खाने के लिए, खाना खाते ही वे स्कूल से निकल लेते हैं। जो पढ़ाने के लिए अध्यापक हैं वे नकली हैं। मतलब नौकरी किसी और की लेकिन पढ़ा रहा है कोई और। घटिया खाना, खराब हालातों का स्कूल यही सब तो होता है सरकारी स्कूलों में अधिकतर।
अब जो नये मास्साब यानी टीचर आए हैं वे कुछ सुधार लाने शुरू करते हैं। हालाँकि जब भी कोई अच्छा काम करने चलता है तो शुरुआत में कोई उसका साथ जल्दी से देता नहीं और जब वह सफल होने लगता है या उसके प्रयोग सफल होने लगते हैं तो वह जल्द ही दूसरों की आँख की किरकिरी भी बन जाता है। अब मास्टर साहब ने स्कूल में सुधार किये, बच्चों को सुधारा तो इसके परिणामस्वरूप उस गाँव के लोगों में उनकी सोच में भी सुधार होने लगा। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि एक षड्यंत्र रचा गया और मास्साब का तबादला हो गया। अब तबादले के समय पूरा गाँव उमड़ पड़ा अपने मास्साब को नम आंखों से विदाई देने।
ऐसी कहानियां भी हमने खबरों में गाहे-बगाहे देखी, सुनी ही हैं कि फलां मास्टर की विदाई या तबादले के वक्त नम आंखों से किया विदा। इससे पहले भी फिल्मों में शिक्षा व्यवस्था की कमियों, पढ़ाने के तरीकों आदि को दिखाया जाता रहा है। तो कई बार शिक्षकों की योग्यता को परखने जैसी फिल्में भी आई हैं। ‘चॉक एंड डस्टर’ इसका ताजा उदाहरण है। लेकिन अब तक की तमाम फिल्मों से थोड़ा हटकर है यह फ़िल्म। फ़िल्म पढ़ाई की महत्ता पर कोई भाषण नहीं पेलती। इसके विपरीत इसमें हम देखते हैं कि पढ़ना कितना जरूरी है। वैसे भी एक नारा है। ‘लड़ो पढ़ने के लिए और पढ़ो समाज बदलने के लिए’ तो बस उसी को यह सार्थक करती है और अपने हक की लड़ाई लड़ती है। वह हक है अच्छी शिक्षा हासिल करना। इसके अलावा पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाना कितना जरूरी है और कैसे पढ़ाया जाए इस पर भी फ़िल्म मुखरित होकर अपनी बात कहती हुई दिखाई देती है।
फ़िल्म के निर्देशक आदित्य ओम के निर्देशन में कसावट नजर आती है। लेखन के स्तर पर भी आदित्य ओम और शिवा सूर्यवंशी दोनों की लिखी यह कहानी दाद और सराहना पाती है। हालाँकि फिल्म में एक जगह यह बात अखरती है कि सरकारी स्कूल में कोई भी मास्टर कितना ही अच्छा काम क्यों न करे उसे पदौन्नति बिना अनुभव पूरा किये नहीं दी जाती। लेकिन इस बात को फ़िल्म नजर अंदाज करती है। इसके अलावा भी स्क्रिप्ट में कसावट और बरती जा सकने की गुंजाइश नजर आती है। एडिटिंग के मामले में एक आध अंश छोड़ दें तो फ़िल्म बेहतर है। बावजूद इन एक आध कमियों के फ़िल्म के निर्देशन में बरती गई ईमानदारी और इसे बनाने का नेक इरादा झलकता है। इसलिए फ़िल्म खत्म होने पर यह महसूस होता है कि देश में सभी मास्साब अगर इसी तरह पढ़ाने लगें तो किसी को निजी स्कूलों की मोटी-मोटी फीस न भरनी पड़े और न ही देश में अमीरी-गरीबी की खाई और पनपे।
अभिनय के मामले में मास्साब बने आशीष कुमार यानी शिवा सूर्यवंशी को कुछ एक जगह छोड़ दें तो प्रभावी लगे। इसके बनिस्पत मनवीर चौधरी और शीतल सिंह का अभिनय पूरी फिल्म में ज्यादा बेहतर रहा। गीत-संगीत फ़िल्म के अनुकूल है बल्कि लोकगीतों का कहीं-कहीं प्रयोग करना फ़िल्म के स्तर को ऊंचा उठाता है। फ़िल्म में कोई बड़ी स्टार कास्ट नहीं है लेकिन अभिनय के इन कच्चे खिलाड़ियों से भी बेहतर काम निकलवाना भी बेहतर निर्देशन की निशानी ही कही जाएगी।
कम संसाधनों से बनी यह एक बेहतर फ़िल्म है जिसे जरूर देखा और दिखाया जाना चाहिए। इसके अलावा उन लोगों को भी अवश्य देखनी चाहिए जो मास्टर बनने को मात्र एक सरकारी नौकरी लगने का पेशा समझते हैं। क्योंकि बकौल फ़िल्म ‘असली शिक्षा वही है जो समाज को सुरक्षा और खुशहाली दे सके। हर शिक्षित बच्चा यानी एक अपराधी कम।’ इसके अलावा फिल्म समाज का सच बताती है कि ‘बच्चों के पहले शिक्षक माँ-बाप होते हैं। अभाव शिक्षा का नहीं है। वो तो एक खुला खजाना है। अभाव शिक्षकों का है जो इस खजाने को जी भरकर लूटा सकें।’ क्योंकि कोई भी पानी अपने आप खराब नहीं होता। जब हम नए और अच्छे विचार डालना शुरू कर देते हैं तो पुराने और गंदे विचार अपने आप बाहर निकल जाते हैं। कुलमिलाकर यह फ़िल्म भी हमारे अंदर नये और अच्छे विचारों का संचार करती है।
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