आखरी सांसों की ‘चाय की टपरी’
निर्देशक – आशुतोष सिंह
कलाकार – आशुतोष सिंह
बरसों पहले एक बुजुर्ग का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह महान शायर शकील बदायुनी की ग़ज़ल ‘आख़िरी वक़्त है आख़िरी साँस है ज़िंदगी की है शाम आख़िरी आख़िरी’ गाता दिखाई दे रहा है। उसी आवाज में फ़िल्म में भी उसी ग़ज़ल का इस्तेमाल किया गया है। अब इस लॉकडाउन में जहां लोग रचनात्मक हुए हैं वहीं एक और महज पांच मिनट की फ़िल्म बनाई है आशुतोष सिंह ने फ़िल्म का नाम है – ‘चाय की टपरी’
पिछले दिनों मनीष उप्पल की बनाई फ़िल्म ‘पट्ट- द साउंड’ भी इसी कैटेगरी में बनाई गई फ़िल्म थी। जिसमें आशुतोष ने फ़िल्म बनाई है। ये कैटेगरी है – मोबाइल सिनेमा। मोबाइल सिनेमा में मोबाइल के कैमरे से फ़िल्म शूट की जाती है और विभिन्न सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हुए उसी में एडिटिंग का काम भी किया जाता है। ऐसी फिल्मों में अब तक निर्देशक स्वयं ही लेखक बन रहे हैं और वे ही अभिनय भी कर रहे हैं। मोबाइल सिनेमा का प्रयोग हिंदुस्तान में तेजी से बढ़ रहा है। विश्व स्तर की बात करें तो काफी फिल्में सिनेमाघरों में भी आई हैं।
अब बात ‘चाय की टपरी’ की, जिसे ‘माला झा’ की ;काला पानी’ कहानी से प्रेरित होकर आशुतोष सिंह ने लिखी है। फ़िल्म में रहमत नाम का एक बूढ़ा व्यक्ति है जो अपने घर से वापस शहर लौट आया है क्योंकि घर में उसे वह सम्मान न मिल सका और न उसके साथ कोई बातें करने वाला था, जो अक्सर वह शहर में अपनी चाय की टपरी पर किया करता था। जब वह एक ग्राहक के यहां जाता है तो जानकार शर्मा जी भी अपना दुखड़ा उसके आगे रोने लगते हैं।
दरअसल हिंदुस्तान में बुजुर्ग लोगों की स्थिति सबसे ज्यादा ख़राब है। जगह-जगह वृद्धाश्रम भी खुले हुए हैं तो मार पीट की खबरें भी आती रहती हैं क्या ही कीजिए इन हालातों और खबरों का। खैर बुजुर्गों की स्थिति पर बॉलीवुड में गाहे-बगाहे फिल्में बनती रही हैं। लेकिन अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी अभिनीत ‘बागबान’ ही जेहन में आज तक काबिज हो पाई है। हालांकि यह पांच मिनट की फ़िल्म उस तरह की तो नहीं लेकिन उस ढर्रे की या कहें उस फिल्म की जरूर याद दिलाती है कहीं-न-कहीं।
फ़िल्म में आशुतोष सिंह अपना किरदार छाप छोड़ने वाला और हमेशा के लिए याद रहने वाला खड़ा करने में कामयाब हुए हैं। फ़िल्म की कहानी चंद लाइन की हों तो उसमें आपको ज़्यादा कुछ नहीं, यह देखना होता है कि फ़िल्म की कहानी क्या है, किस थीम को लेकर वह चल रही है और क्या जिसका झंडा उसने उठाया है वह मजबूती से थाम पाने में कामयाब हुई है या नहीं। यह फ़िल्म किसी भी स्तर पर हल्की नहीं है, कहानी, एडिटिंग, कैमरा सब अच्छा है। लेकिन इसका धीमापन भी इसकी खासियत है क्योंकि बुजुर्ग लोग कुछ इसी तरह से बोलते दिखाई पड़ते हैं। फ़िल्म में शकील बदायुनी की गजल का इस्तेमाल करना भले किसी भी आवाज में हो, किसी ने भी उसे गाया हो उस महान आत्मा को क्रेटिड न देना/ उनका नाम न देना जरूर अखरता है।
फ़िल्म के निर्देशक आशुतोष सिंह इससे पहले कई एड/ विज्ञापन बना चुके हैं तथा बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ को डायरेक्ट करने के अलावा अब तक 5-6 शॉर्ट फिल्म बना चुके हैं जो अलग-अलग फ़िल्म समारोहों में करीबन चालीस से ज्यादा बार पुरुस्कृत की जा चुकी हैं। रियलिटी ऑफ़ पॉवर्टी, अस्तित्व, बधाई, तर्पण, पापा जैसी फिल्में कुछ प्रमुख हैं। फ़िल्म चाय की टपरी भी एक दर्जन से ज़्यादा अवॉर्ड अपने नाम दर्ज कर चुकी है राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में।