सामयिक

कोरोना के खिलाफ लम्बी लड़ाई

 

कोरोना की पहली लहर ने पूरे विश्व में तबाही मचाई थी। उसके बाद दूसरी लहर भी हमारे सामजिक एवं आर्थिक जीवन में बाधा डाल रही है। हाल के सप्ताहों में COVID-19 का प्रसार धीमा हुआ है हालांकि कोरोना संकट अभी भी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हो पाया है। विगत बीस वर्षों में, कई वायरल महामारियों ने दुनिया को अपनी चपेट में लिया है। उदाहरण के लिए, सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोना वायरस (SARS-CoV) ने 2002 से 2003 तक हमें प्रभावित किया। एच1 एन1 (H1N1) इन्फ्लूएंजा 2009 में सामने आया।

इसके बाद, एक और रोगजनक कोरोनावायरस, जिसे मध्य पूर्व श्वसन सिंड्रोम कोरोनावायरस (MERS-CoV) के रूप में जाना जाता है जिसको पहली बार 2012 में सऊदी अरब में पाया गया था। नए वायरल रोग लगातार उभर रहे हैं जो कि एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरे का संकेत हैं। हालाँकि अधिकांश व्यवसायों ने पहले सभी स्वास्थ्य संकटों जैसे सार्स, एवियन फ्लू, जीका, और इबोला के सामने अपने संचालन की निरंतरता को बनाए रखा था और बहुत जल्दी रिकवर कर गए थे। लेकिन कोविड-19 डेढ़ वर्ष बाद भी परेशानी और व्यवधान उत्पन्न कर रहा है।

कोरोना एक अंतर्राष्ट्रीय संकट के रूप में व्यवसायों, सरकारों और सार्वजनिक संस्थानों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है। विभिन्न देशों की सरकारें अब एक ऐसे ‘सुरक्षित और नए सामान्य’ की तलाश में हैं जिससे रोग संचरण को नियंत्रण में रखते हुए आम आदमी सामाजिक और आर्थिक जीवन कार्य कर पाए और उद्योग – कारखाने फिर से पटरी पर लौट सके। किन्तु COVID-19 से उपजे संकट का कोई आसान या रेडीमेड उपाय उपलब्ध नहीं हैं।

एक सामान्य प्रारंभिक उपाय के तौर पर विभिन्न देशों की सरकारों ने ‘लॉकडाउन और कन्टेनमेंट’ को अपनाया जहाँ इसके प्रसार को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन ये कदम कोई स्थायी समाधान  नहीं हो सकते। हाल में कोरोना को केन्द्र में रखकर बहुत से लेख लिखे गए। अधिकांश ने चिंता और असंतोष जताते हुए विफलताओं के बारे में लिखा। दूसरी और कुछ में सरकारी प्रयासों की प्रशंसा और उम्मीद भी दिखी। दोनों को साथ मे रखकर देखने से यही निष्कर्ष निकलता है कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई इतनी जल्दी ख़त्म नहीं होगी। इस बिंदु को समझने के लिए COVID-19 वायरस की रोकथाम के लिए किये गए प्रयासों को समग्रता में रखकर देखना होगा तभी स्थायी समाधान खोजे जा सकते हैं।

COVID-19 वायरस को वैज्ञानिकों ने मनुष्यों में पहली बार 2019 में पाया गया। यह बताया गया कि इसका व्यवहार काफी हद तक अन्य कोरोना वायरस के समान होता है। यह श्वसन तंत्र की बीमारियों के एक बड़े परिवार का हिस्सा है। शुरुआत में COVID-19 को एक घातक, संक्रामक, वायरल निमोनिया माना गया था। इससे उत्पन्न तीव्र श्वसन संकट सिंड्रोम (ARDS) के चलते बहुत से लोगों की मृत्यु हुई। बाद में पैथोफिज़ियोलॉजी को समझने पर यह पता चला कि इससे न केवल फेफड़ों, बल्कि शरीर के सभी हिस्सों को प्रभावित करने वाली प्रणालीगत कोगुलोपैथी को भी उत्प्रेरित कराती है। समय के साथ यह वायरस अपने आप को म्यूटेट कर बार बार बहुत जल्दी नए नए रूप में आता रहा है और इसके साथ नए लक्षण भी जुड़ते गए। इसी के चलते यह डाक्टरों, विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को भी चकमा देकर परेशान करता रहा है।

प्रारम्भ में कोई मानक उपचार विकसित न होने के कारण, घरेलू उपचार से लेकर विदेशी उपचारों तक जो भी सार्थक एवं उपयोगी लगा उसका उपयोग किया गया। इस क्रम में इबोला और हेपेटाइटिस सी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रेमेडिसविर, फेविपिरवीर, ओसेल्टामिविर और लोपिनवीर जैसे एंटीवायरल भी इलाज के तौर पर लोकप्रिय हुए। शुरुआती दौर में ऐसी सभी पुरानी दवाएं जैसे हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (HCQ) और एज़िथ्रोमाइसिन जो पहले इसी तरह के वायरसों के खिलाफ उपयोगी सिद्ध हुई थीं, उन्हें उपयोग में लाया गया। लेकिन साथ साथ साथ COVID-19 की रोकथाम और प्रबंधन में, इस की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिए भी परीक्षण शुरू किये जो कि बाद में डब्ल्यू एच ओ के निर्देशों पर रोक दिए गए।

चिकित्सकों ने प्लाज्मा या निष्क्रिय इम्यूनोथेरेपी का भी उपयोग किया। चिकित्सक ने यह भी रिपोर्ट किया कि कोविड के चलते एक साइटोकिन स्टॉर्म उत्पन्न होता है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को सक्रिय कर फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है। और इस ऑटोइम्यून प्रतिक्रिया का मुकाबला करने के लिए साइटोकिन अवरोधकों का प्रयोग किया गया। यह भी कहा गया कि स्टेरॉयड के इस्तेमाल से COVID-19 मृत्यु दर पर लगाम लगाया जा सकती है। पारंपरिक और वैकल्पिक दवाएं भी काफी प्रभावी बतायीं गयीं।

एक चीनी हर्बल फॉर्मूला जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों के इलाज के लिए व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, को भी लोगों ने उपकारी बताया। फलस्वरूप दवाओं की प्रभावशीलता के बारे में असत्यापित दावों ने कुछ देशों में विवादों को भी जन्म दिया। इन सभी कारणों से भी लोगों के मन में हताशा और भय असंतोष पनपता रहा। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि सामान्य साबुन के संपर्क में आने पर यह घातक वायरस 20 सेकेंड में ही मर जाता है। लेकिन अभी तक कोई एक विशिष्ट मानक प्रभावी उपचार जो पूरे विश्व में स्वीकृति प्राप्त कर चुका हो उपलब्ध नहीं हो पाया है। हालांकि समय समय पर अधिकांश रेगुलेटरी संस्थायें आपातकालीन स्थितियों में विभिन्न उपचारों को अनुमति प्रदान करती रही हैं।

कोरोना के सन्दर्भ में एक अच्छी बात यह रही कि इसका टीका बहुत जल्दी विकसित कर लिया गया। लेकिन टीकाकरण की प्रांसगिकता और प्रभावशीलता पर देश-विदेश में सवाल उठते रहे। उदहारण के लिए ब्राजील के राष्ट्रपति, जेयर बोल्सोनारो का एक विवादास्पद बयान आया। उन्होंने कहा कि कोरोनावायरस (COVID 19) का टीका लोगों को “मगरमच्छ” या “दाढ़ी वाली महिलाओं” में बदल सकता है। हालांकि बाद में टीका करण की महत्ता को समझा गया और भ्रांतियों को भी दूर करने के सरकार और प्रशासन द्वारा प्रयास किये गए।  इस सन्दर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि 130 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में टीकाकरण तुरत-फुरत में करना एक दुष्कर कार्य है।

इतनी बड़ी मात्रा में, सही समय पर सही गुणवत्ता के टीकों की खरीद करना किसी भी पब्लिक प्रोक्यूरमेंट प्रणाली के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। इसी के चलते टीकों की खरीद में बहुत सी राज्य सरकारें सफल भी नहीं हुई। हमारी जनसंख्याँ ज्यादा होने कि वजह से वजह से टीकाओं के मांग और आपूर्ति में अंतर आना स्वाभाविक था जिससे टीकाकरण की दर प्रभावित हुई। इसे के चलते मांग और आपूर्ति में अंतर को ध्यान में रखकर, जनसँख्या को वलनरेबिलिटी (रोग के प्रति संवेदनशीलता) के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित कर टीकाकरण की प्राथमिकता निर्धारित की गयी।

चूँकि पहली लहर में 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोग ज्यादा प्रभावित हुए थे। तथा कुछ विशेष स्वास्थ्य स्थितियों या रोगों जैसे उच्चरक्त चाप या मधुमेह जैसे रोगों से ग्रसित हैं उन के लिए काफी घातक हो सकता है। इसलिए टीकाकरण की प्रक्रिया में इन सभी लोगों के साथ बुजुर्गो, तथा स्वास्थकर्मियों के जीवन की रक्षा करना सरकार का प्राथमिक लक्ष्य रहा। लोगों को सुविधा देने के लिए निजी अस्तपताल में पैसे देकर टीका लगवाने की छूट दी गयी।

सरकार द्वारा किये गए प्रयासों का मूल्यांकन इस सन्दर्भ में करना होगा कि यदि ये प्रयास नहीं किये होते तो सामाजिक और आर्थिक हानि कहीं ज्यादा होती। लोगों और व्यापारिक संस्थाओं की बंद हो गयी कमाई के लिए क्षतिपूर्ति के प्रयास, होम लोन की किस्तों और करों को स्थगित करने, और बीमारी के लिए छुट्टी का भुगतान जैसे कदमों द्वारा आम जन को लाभ पहुंचा है। घर से कार्य करने कि सुविधा भी प्रदान की। पूर्ण बंदी के दौरान गरीबों को विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने मुफ्त भोजन का वितरण किया। श्रमिकों को अपने गृह स्थान लौटने के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चलायीं। सतत और समावेशी आर्थिक विकास के लिए नई व्यवस्था तैयार करने की दिशा में भी प्रयास किये गए।

सरकार ने टीका को विकसित करने के लिए एक योजना के साथ कार्य किया। परिणामस्वरूप देश में स्वदेशी एवं विदेशी टीकाओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर हो रहा है। अभी देश में “नेज़ल” टीका को विकसित करने के लिए भी अनुसंधान कार्य चल रहा है। इस टीका को इंजेक्शन के बजाये नाक में स्प्रे करके दिया जायेगा। हमें ये भी समझना होगा कि असल में आज का विश्व, बढ़ती जटिलता, व्यापारिक निर्भरता और अंतर्संबंधों, कनेक्टिविटी और तकनीकी प्रगति के चलते दुनिया काफी बदल चुका है जहाँ अपेक्षाकृत छोटी रिस्क वाली घटनाएं भी अप्रत्याशित तरीके से एक बड़ी आपदा के रूप में विकसित हो सकती हैं। प्राम्भिक दौर में कोविड टेस्टिंग ही एक महत्वपूर्ण पालिसी साधन था जिसको सभी सरकारों ने व्यापक रूप से इस्तेमाल किया गया। सभी मामलों को खोजने और अलग करने, उन्हें आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने सभी संपर्कों का पता लगाने, संगरोध करने के पश्चात उचित देखभाल करने पर ध्यान दिया गया था।

corona crisis

कोविड -19 महामारी यह दर्शाती है कि व्यक्तिगत या सांस्कृतिक फेक्टर्स जैसे संस्थानों में हमारा विश्वास और उनकी सलाह और निर्देशों का पालन करने की इच्छा इत्यादि भी आपदाओं के समाज के ऊपर प्रभाव को काफी हद तक प्रभावित करती है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के महामारी विज्ञानी जोशुआ एपस्टीन ने कोविड -19 महामारी के वैश्विक प्रसार को रेखांकित करते हुए बताया कि संक्रमण की अपनी गतिशीलता (महामारी द्वारा निर्मित) और सामाजिक गतिशीलता (जो कि भय से निर्मित होती है) के बीच इंटरेक्शन के द्वारा एक युग्मित संक्रम निर्मित होता है जो अस्थिरता उत्पन्न करते हैं।

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो इस बात पर जोर देता है कि कोरोना के खिलाफ चल रही लड़ाई में प्रत्येक व्यक्ति की एक अहम भूमिका है। कोई भी सरकार अकेले इस में सफल नहीं हो सकती। अतः सुरक्षित और स्वस्थ बने रहने के लिए एक दूसरे की मदद करनी होगी। इसलिए अब भी स्वस्थ रहने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों तथा कोरोना के सम्बन्ध में जारी किये गए दिशा निर्देशों का पालन करें। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का सम्मान एवं समर्थन करें। तंबाकू, शराब और अन्य पदार्थों के सेवन से भी हमें बचना चाहिए क्योंकि ये आदतें हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचा कर कमजोर करते हैं।

यह भी सही है कि अनपेक्षित घटनाएं ही अक्सर हमारी क्षमताओं का मूल्यांकन करती है। तब ही हम क्षमताओं के बारे में जान पाते हैं। हमने आपूर्ति और मांग के शॉक के चलते पूरे उत्पादन, वित्तीय और परिवहन प्रणालियों के व्यापक रूप से चरमराते देखा है। इस समय सभी सरकारें महामारी से हुए नुकसान की भरपाई के लिए संघर्ष कर रही हैं। हालांकि समय के साथ विश्व संकट से उबर जाएगा और रिकवरी शुरू कर देगा। corona in world

सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों, लोगों और व्यापारिक गतिविधियों की पहचान कर स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और अन्य लक्ष्यों के बीच कठिन सामंजस्य बैठाना भी अपरिहार्य है। यदि नीतियों को प्रभावी बनाना है तो दीर्घावधि में, प्रणालियों को कोविड महामारी तथा ब्लैक स्वैन जैसी बड़ी आपदाओं के प्रभावों के प्रति समाज को रेसिलिएंट बनाने की आवश्यकता है। एक रेसिलिएंट समाज आपदा के समय में भी न्यूनतम व्यवधानों के साथ अपने कार्य को जारी रखते हुए सामजिक एवं आर्थिक क्षति को कम करने और आपात के बाद में शीघ्र ही आपदा के पूर्व स्थिति में लौट आने में सक्षम होता है।

कोविड -19 के खिलफ लड़ाई ने यह भी बतलाया कि केवल आपातकालीन स्थिति में महामारी की रोकथाम के लिए लोकाडाउन या कन्टेनमेंट जैसे कदम सहायक हो सकते हैं हैं, लेकिन वह नकारात्मक स्वास्थ्य और आर्थिक परिणामों भी दे सकते हैं। इसलिए हमें अन्य विकल्प खोजने होंगे। कोविड -19 संकट दिखलाता है कि कैसे सिस्टम एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। कोविड महामारी के संभावित कारण जानवरों से मानव में वायरस का संचरण हो सकता है। इस सन्दर्भ में अंतर्राष्ट्रीय सस्थाओं, सरकारों और शोधकर्ताओं को सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिवर्तनों की श्रृंखला के साथ वन्यजीव व्यापार, भूमि-उपयोग के पैटर्न और कृषि पद्धतियों में हो रहे बदलावों को भी गहराई से देखना अपरिहार्य है।

हमारे लिए इस समय भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं को सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसलिए नीतियों का एक मुख्य अवयव स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत और क्रियाशील बनाए रखने पर केन्द्रित हो। हमें न केवल कोविड-19 जैसी महामारियों की मृत्यु दर को न्यूनतम करना है वरन रोकथाम के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास करने हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि महामारी की तीसरी लहर में, कोरोना वायरस बच्चों को भी प्रभावित करेगा। अतः बच्चों के लिए भी टीकाओं को जल्द से जल्द विकसित करने की तथा उनके नैदानिक परीक्षण के साथ साथ उपचार की समुचित सुविधाओं को विकसित करने की आवश्यकता है। corona

कोविड -19 ने स्वास्थ्य के क्षेत्र को काफी नुकसान पहुँचाया। वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ सामाजिक रूप से भी वैश्विक स्तर पर बहुत क्षति हुई है। महामारी ने हमारी सबसे बुनियादी मानव-निर्मित प्रणालियों की कमजोरियों को भी सामने ला दिया है। परीक्षण, वेंटिलेटर, दवा और अन्य आवश्यक वस्तुओं की कमी ने फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं और आम आबादी की परेशानियों को काफी बढ़ा दिया था। हालाँकि इन तथ्यों को राजनितिक हितों से परे समाधान खोजने की दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।

वर्तमान में हम सबसे बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती का सामना कर रहें है जिससे निपटने के लिए एक साथ खड़े होकर लड़ना होगा। पिछले महामारियों के बाद, कुछ देशों में स्वास्थ्य कर्मियों की “रिज़र्व सेना” की योजना शुरू की गई जो कि नियमित कार्यबल को सहायता एवं मजबूती प्रदान करने के लिए बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। वर्तमान संकट स्वास्थ्य प्रणालियों के रेसिलिएंट बनाने के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के महत्व को रेखांकित करता है। बीमारी के इलाज में अत्यधिक खर्च लोगों को शीघ्र निदान और उपचार प्राप्त करने से रोक सकते हैं, और महामारी के तेजी से फ़ैलने में योगदान करते हैं।

प्रसिद्द दार्शनिक अरस्तू ने शायद सही कहा था कि समाज जब अपने अतीत पर पकड़ खो देता है तो खतरे में आ जाता है। आज की पीढ़ी वर्तमान के अलावा अतीत के बारे में बहुत कम जानती है। एक सदी पहले 1918 में स्पेनिश फ्लू ने विश्व में तबाही मचाई थी जिसके चलते दुनियाभर में 50 करोड़ से अधिक व्यक्ति संक्रमित हुए थे और करोड़ों लोगों की मृत्यु हुई थी। लेकिन कैसे उस आपदा से दुनिया कैसे बाहर निकली – ये बात हमारी स्मृतियों से बाहर निकल गयी। इस महामारी से भी हम कितना सीख पायेंगे यह भी एक बहुत अहम  प्रश्न है!

ये भी साफ़ तौर पर समझना होगा कि भविष्य में भी कोविड 19 महामारी जैसे संकट आ सकते हैं तथा इन संकटों की प्रकृति और प्रभाव कोविड 19 जैसे ही या इससे बहुत अलग भी हो सकते हैं। अतः हमें सही रणनीति अपनाकर समाज में रेसिलिएंस (लचीलापन) विकसित करने की आवश्यकता है अन्यथा हम उनके दुश्प्रभावों से अपने आपको बचाने में सफल नहीं हो पायेंगे। कोविड-19 के खिलाफ एक स्पष्ट और व्यापक रणनीति होनी चाहिए जो तत्कालिक और दीर्घकालिक दोनों प्रकार की जरूरतों को पूरा करने में समर्थ हो

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सुनील कुमार शर्मा

लेखक दक्षिण पूर्व रेलवे, कोलकाता में मुख्य रोलिंग स्टॉक इंजीनियर (फ्रेट) हैं तथा समसामयिक विषयों पर लेखन करते हैं। सम्पर्क +918902060051, sunilksharmakol@gmail.com
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