छत्तीसगढ़

कुदरत के करीब ‘कुरदर’

भारत अपने सौंदर्य और समृद्धि के लिए पूरी दुनिया में विख्‍यात है। ‘धरती का स्‍वर्ग’ कहा जाने वाला कश्‍मीर भी इसी देश का हिस्‍सा है। ऐतिहासिक धरोहरों के साथ-साथ कई तरह की विविधता अपने भीतर यह देश समेटे हुए है। इस देश की प्राकृतिक सुंदरता को देखने पर ऐसा महसूस होता है, जैसे हम प्रकृति की गोद में बैठे अठखेलियां कर रहे हैं। प्रकृति की ऐसी ही अमिट छटा और विभिन्‍न प्रकार की प्राकृतिक संपन्‍नता के लिए छत्‍तीसगढ़ भी ख्‍यातिलब्‍ध है। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले से कुछ दूरी पर विख्‍यात ‘कुरदर घाटी’ भी प्रकृति की इन्‍हीं देनों में से एक है। इसकी खूबसूरती के बारे में कई बार सुन चुका था, किन्तु देखने का अवसर नव वर्ष, 2021 के उपलक्ष्‍य में मिल पाया।

समय गतिमान है और परिवर्तन प्रकृति का शाश्‍वत सत्य। हर दो माह में ऋतुएं बदल जाती है और 12 माह में वर्ष। नवम्बर-दिसम्बर के हेमंत ऋतु के बाद जनवरी में शीत ऋतु प्रारम्भ होती है और नये वर्ष का आगाज भी। किन्तु यह नव वर्ष खास इसलिए भी है, क्‍योंकि इस बार नये साल के साथ नये दशक का भी आगाज हुआ है। नव वर्ष का पहला दिन तो कार्यालय में बीता, लेकिन इसके तुरन्त बाद के दो दिन पारिवारिक मित्रों के साथ सैर-सपाटे में गुजरे। सिर्फ एक दिन में बनी योजना के बाद दो जनवरी को सभी मित्र अपनी-अपनी गाड़ियो में निकल पड़े कोटा-बेलगहना के आगे ‘कुरदर घाटी’ के लिए। बिलासपुर से तकरीबन 60-65 किलोमीटर दूर स्थित ‘कुरदर घाटी’ जाकर पता चला कि हम कुदरत के कितने करीब हैं। शहर के शोर-शराबे से दूर प्रकृति की यह खूबसूरती और शांति अकल्‍पनीय प्रतीत हो रही थी।

चारों तरफ हरीतिमा से आच्छादित पहाड़ियों से घिरी यह घाटी अभी भी अबूझ है। करीब नौ वर्षों से बिलासपुर में रहते हुए भी मैं प्रकृति के इस अनुपम उपहार से अंजान और अनभिज्ञ रहा। पहाड़ियों को काट कर बनाई गयी घुमावदार संकरी सड़क से गुजरते हुए हम लोगों को बिलासपुर से ‘कुरदर घाटी’ पहुँचने में दो घण्‍टे से भी अधिक समय लग गया। ऐसी सड़क में गाड़ी चलाना भी किसी चुनौती से कम नहीं। गाड़ी की रफ्तार 20-25 किलोमीटर के आसपास ही बनी रही। हम बिलासपुर से कोटा होते हुए बेलगहना पहुंचे। बेलगहना से ‘कुरदर घाटी’ तक का सफर काफी रोमांचक रहा। बीच-बीच में गाड़ी रोक प्रकृति की अनुपम छटा निहारने का मन कर रहा था। लेकिन मंजिल तक पहुँचने की बेचैनी ऐसा करने से रोकती रही। पहाड़ों और बादलों के बीच से गुजरते हुए ऐसा लग रहा था, मानो प्रकृति हमें अपने आगोश में समेटना चाहती हो। एक दिन रूकने के हिसाब से तैयारी और पैकिंग करते हुए हम सुबह 11-11.30 बजे तक बिलासपुर से निकल पाए थे। वहीं ‘कुरदर घाटी’ पहुँचते-पहुँचते डेढ़-दो बज गये।

पिछले कुछ सालों से नव वर्ष का जश्न मनाने वालों के लिए पहाड़ों, जंगलों और नदी-नालों से घिरी ‘कुरदर घाटी’ आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह से ही यहाँ सैलानियों का आना-जाना प्रारम्भ हो जाता है और यह सिलसिला जनवरी भर चलता रहता है। गाड़ियों की लगातार आवाजाही से यह सुरम्‍य घाटी गुलजार हो जाती है। यहाँ पहुँचकर आसपास नजर दौड़ाने पर हमलोगों ने देखा कि सैर- सपाटा करने एवं नये वर्ष को यादगार बनाने के लिए कुछ किशोर व युवक-युवती भी इस घाटी को सुशोभित कर रहे थे। ये लोग दुर्गम वनों और झाड़ियों के बीच बैठकर हुक्का का आनंद ले रहे थे। इन्‍हें देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे इन्‍हीं के लिए ही ‘जंगल में मंगल’ की उक्ति रची गयी हो। एक किशोर अपने महिला मित्र के कहने पर उसके चेहरे पर धुआं छोड़ते हुए, उसकी फरमाइश पूरी करने का प्रयास कर रहा था। उन्‍हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वे अपने हर कश के साथ अपनी फिक्र को धुएं में उड़ा रहे थे। निजी एकांत के क्षणों में ऐसी अंतरंगता स्वभाविक है। लेकिन जीवन की शुरूआत कर रहे किशोरवय युवक-युवतियों को यह नहीं मालूम कि क्षणिक आनंद देने वाला नशा कितना प्राणघातक होता है।

फिर शुरू हुआ रात्रि विश्राम के लिए रिसॉर्ट ढूंढ़ने का सिलसिला। सरकारी रिसॉर्ट पहले ही फुल था। अंतत: प्राइवेट रिसॉर्ट की शरण लेनी पड़ी। यात्रा की थकान थी और पेट में चूहे उछल- कूद कर रहे थे। सभी परिवार अपने-अपने घर से स्वादिष्ट व्यंजन पका कर लाये थे। फिर एक साथ बैठकर समूह में खाने का मजा ही अलग है। ऐसे अवसरों पर ही तो एक-दूसरे का सुख-दुख बांटने का मौका मिलता है। साथ ही बच्चों में छिपी प्रतिभा भी सामने आती है। घर से पका कर लाये गये भोजन में पकाने वाले की मेहनत के साथ उनका प्यार भी मिश्रित होता है।

खैर! पेट की क्षुधा शांत होते ही ‘कुरदर घाटी’ घूमने-फिरने की योजना बनने लगी। भरपेट भोजन के बाद शरीर तो आराम चाह रहा था, परंतु मन तो प्रकृति के आमंत्रण को स्वीकार करने के लिए बेताब था। लेकिन एक समस्या सामने आ गयी। ‘कुरदर घाटी’ से चांदनी जलप्रपात तक पहुँचने वाला रास्ता इतना दुर्गम था कि अपनी गाड़ी में वहाँ जा पाना मुश्किल सा था। रिसॉर्ट में तीन जिप्सी की व्यवस्था थी, जो हम 6 परिवारों के लिए पर्याप्त थी, लेकिन एक जिप्सी खराब होने के कारण हमारे मंसूबों पर पानी फिर गया। आसपास अपनी गाड़ियों में घूमने के बाद सभी रिसोर्ट वापस आ गये।

अपने-अपने कमरे में डेढ़-दो घंटे के आराम के बाद सभी तरोताजा हो गये। यात्रा की थकान मिटते ही सभी रात की मस्ती के लिए तैयार थे। गुलाबी ठंड के बीच अलाव की तपिश तन-बदन में ऊष्मा का संचार कर रही थी। दिन ढलने से पहले बच्चों ने मोबाइल के गानों की धुन पर थिरकते हुए खूब तालियां बटोरी तो रात में बड़ों ने गीत-संगीत और शेरो-शायरी से समा बाँध दिया। इश्क-मोहब्बत की शायरी सुनकर कुछ लोग अपनी पुरानी यादों में गुम हो गये, तो कुछ इतने भावुक हो गये कि कुछ बोलने की स्थिति में ही नहीं थे। कुछ तो अपने बीते हुए कल को एक-दूसरे से साझा करते हुए गंभीर हो गये। बड़े-छोटे मिलाकर कुल 22-23 सदस्य थे।

यह संख्या महफिल सजाने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन इस महफिल में भी कुछ लोग के भाव से ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वे कह रहे हों कि “ये दुनिया ये महफिल मेरे काम के नहीं।” वहाँ किशोर, रफी के प्यार भरे तराने छिड़ते ही सभी का तन-मन प्रफुल्लित हो उठा। वहीं, मिर्जा गालिब, फराज अहमद, बशीर बद्र, कुमार विश्वास, राहत इंदौरी के गजल-शेर ने सभी के अंदर के शायर को जगा दिया। शेरो- शायरी और गीत-संगीत का यह सिलसिला भोजन के बाद भी देर रात तक चलता रहा। इस दौरान सभी ने हौजी गेम का भी आनंद उठाया। गेम जीतने पर पेन-पेंसिल सहित दूसरे ईनाम पाकर बच्चे खुश थे। उत्साहवर्धन में ईनाम का योगदान काफी महत्वपूर्ण था। देर रात तक सोने के कारण सुबह देर से उठना स्वाभाविक था। लेकिन घूमने की प्रबल इच्छा शक्ति के कारण लगभग सभी लोग सुबह 10:00 बजे तक नहा-धोकर तैयार हो गये। पराठा और पोहा के नाश्ते में सभी के भीतर नई ऊर्जा का संचार कर दिया था। तीन जिप्सी पहले से तैयार थी। सभी लोग एक-एक करके सभी जिप्सी में सवार होकर निकल पड़े।

बीहड़ जंगल के बीच स्थित चांदनी जलप्रपात के लिए ‘कुरदर घाटी’ से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित चांदनी जलप्रपात तक पहुँचने का रास्ता काफी दुर्गम था। बड़े-बड़े गड्ढों को फांदते हुए चल रही जिप्सी बहुत ज्यादा हिचकोले ले रही थी। कहीं गिर ना जाए, यह आशंका जिप्सी को जोर से पकड़ने के लिए मजबूर कर रही थी। बीच-बीच में पड़ने वाले नदी-नालों का पानी इतना स्वच्छ व निर्मल था, जैसे फिल्टर का पानी बहता हुआ। यह बहता पानी जैसे संदेश दे रहा हो कि जीवन में प्रवाह जरूरी है। बहता हुआ पानी हमेशा साथ रहता है जबकि किसी एक स्थान पर ठहरा हुआ पानी गंदा होने लगता है। प्रवाह जीवन की गति और उर्जा होती है। उन्नति के रास्ते अक्सर पथरीले और उबड़-खाबड़ ही होते हैं। ऐसे रास्तों को पार करने वाला ही मंजिल तक पहुँच पाता है। रास्ते में कुछ छोटे-छोटे ऐसे गांव भी देखने को मिले जो आज भी विकास से कोसों दूर हैं। आजादी के 73 वर्षों बाद भी इन गांवों में बिजली नहीं पहुँच पाई है। लेकिन एक बात अच्छी लगी कि यहाँ के घरों में सौर ऊर्जा से चलने वाले पैनल लगे थे। गांव में कुछ बच्चे लकड़ी के बल्ले से क्रिकेट खेल रहे थे।

बच्चों के चेहरे पर उतनी ही खुशी दिखाई दी, जितने की शहर के किसी एकेडमी के स्टेडियम में खेलते बच्चों में। वाकई खुशी किसी संसाधन का मोहताज नहीं होती। जिन बच्चों के पास पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े ना हो, जिनको भरपेट भोजन मुश्किल से नसीब होता हो, उनको इस तरह से देखना काफी अच्‍छा लग रहा था। साथ ही शहर से दूर इस गांव में विदेशों से भारत आये क्रिकेट जैसे खेल का वहाँ के  बच्‍चों द्वारा खेलना सुखद अनुभव दे रहा था। विकास से कोसों दूर इस गांव के बच्‍चे क्रिकेट के बेहद करीब थे। सुबह भरपेट नाश्ता करने के बाद सभी लोग तीन जिप्सी में सवार होकर चांदनी जलप्रपात देखने निकल पड़े थे। घने जंगलों के बीच उबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों से गुजरते हुए यह सवाल बार-बार जेहन में आ रहा था कि विकास के रास्ते में आगे बढ़ते हुए हम प्रकृति से कितने दूर चले गये हैं। इन जंगलों में रहने वाले लोग साधन-संसाधन विहीन होते हुए भी कितने खुश हैं। दूसरी ओर भौतिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होने के बावजूद हम सब गला काट प्रतिस्पर्धा और तनाव-दबाव में जी रहे हैं। एक-एक करके सभी गाड़ियां चारों ओर से चट्टानों से घिरी चांदनी जलप्रपात पहुंची। इस जलप्रपात पर सूर्य की किरणों के पड़ने पर ऐसा लग रहा था कि मानो चांदनी छटा बिखेर रही हो और दिन में ही चांदनी की रोशनी से धरती जगमगा उठी हो। पानी की कलकल बहती धारा से निकलने वाली लयात्‍मक धुन कानों को सुकुन दे रही थी। फिर शुरू हुआ झरने की बीज नहाने, जल क्रीड़ा करने और फोटो खिंचवाने का सिलसिला, जो करीब 1 घंटे तक चलता रहा।

सोशल मीडिया के इस जमाने में तस्वीरों का महत्व एकाएक बढ़ सा गया है। फेसबुक, व्हाट्सएप, डीपी, स्टेटस में अपलोड करने के लिए सभी रंग-बिरंगे परिधानों एवं आकर्षक भाव-भंगिमा में तस्वीरें खिंचा रहे थे। झरने के नीचे नहाते हुए अलग-अलग मुद्राओं में फोटो खिंचवाते, सभी मस्ती में डूबे हुए थे। उत्साह व उल्लास की उष्‍मा से पानी की ठंडक गायब सी हो गयी थी। बच्चे बड़े सभी एक-दूसरे पर पानी छिड़ककर मौज-मस्ती के पलों को सार्थक कर रहे थे। नदी-तलाब से दूर रहकर स्विमिंग पूल तक सिमटे रहने वाले शहर के बच्चों का उमंग देखते बनता था। वहीं, बड़े भी कुछ देर के लिए बच्चे बनकर अपना बचपना याद कर रहे थे। मुझे भी गांव में बीता अपना बचपन याद आ रहा था। घंटे भर बाद भी कोई पानी से बाहर आने का नाम नहीं ले रहा था। रिसॉर्ट के मालिक के बड़े अनुनय-विनय के बाद किसी तरह बड़े बाहर आने लगे। बच्चों को तो डांट लगानी पड़ी।

एक डेढ़ घंटे तक पानी में मस्ती करने के बाद नाश्ते से मिली ऊर्जा खत्म हो चुकी थी। सभी को भूख सताने लगी। रिसॉर्ट में खाना तो दोपहर 1:00 बजे ही तैयार हो चुका था। पर चांदनी जलप्रपात के आकर्षण ने 1 घंटे देर करा दी। लगभग दो-ढाई बजे रिसॉर्ट पहुँचकर सभी भोजन के लिए टूट पड़े। कुछ लोगों ने भोजन से पहले ही घर वापसी के लिए पैकिंग कर ली। रिसॉर्ट का हिसाब-किताब करने के बाद सभी अपनी-अपनी गाड़ियों में बिलासपुर के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक-दो स्थानों पर फोटो सेशन का दौर भी चला। अब जल्दबाजी नहीं थी, इत्मीनान था। आखिर घर ही तो जाना था। इस तरह नये साल या कहें नये दशक का आगाज एक खूबसूरत मनोरम प्राकृतिक स्थल से रूबरू के साथ हुआ। यह उन सभी परिवारों के लिए अविस्मरणीय रहा, जिन्हें एक साथ समय बिताने का ऐसा अवसर बहुत ही कम मिल पाता है। कुदरत के करीब स्थित कुरदर की वादियों ने मन मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ी है। ऐसा पर्यटन ना केवल दिल-दिमाग को तरोताजा करता है। बल्कि जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार भी करता है।

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अखिलेश तिवारी

लेखक गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय में हिन्दी अधिकारी हैं। सम्पर्क +917587172871, ggv.akhilesh@gmail.com
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