लोक को संजीदगी से जीती ‘कोहबर’ भोजपुरी फ़िल्म
पिछले कुछ दिनों से लगातार फ़िल्म स्टार, निर्देशक, निर्माताओं से पुनः जुड़ने लगा हूँ। इससे पहले 8,9 साल तक जो फेसबुक था उसे डिलीट कर दिया था और ब्लॉग जो अच्छा खासा चल रहा था उसे भी। लेकिन एक लंबे अंतराल के बाद पुनः फेसबुक से जुड़ा हूँ और सक्रियता निरंतर बनी हुई है। इसी क्रम में राजू उपाध्याय भोजपुरी सिनेमा के कलाकार से भी जुड़ना हुआ उन्होंने अपनी फिल्म भेजी और अब मैं हाजिर हूँ अपने विचार लेकर। इस फ़िल्म से पहले भोजपुरी के लोक को मैं मृदुला सिन्हा के साहित्य के माध्यम से ही ज्यादा जान पाया हूँ। मृदुला सिन्हा का लगभग पूरा साहित्य पढ़ लेने के बाद बिहार के बारे में वहां की लोक संस्कृति के बारे में अवश्य कुछ जान पाया हूँ।
फ़िल्म की शुरुआत होती है विवाह की पवित्र रस्मों से उसके बाद गांव की एक औरत दुल्हन को कुछ सीख देती हुई कहती है कि ससुराल में सबका ध्यान रखना , खाना पानी फलां फलां। सिंदूरदान की रस्म के बाद दुल्हन की बहनें जूता चोरी का खेला खेलती हैं। उसमें दूल्हे से कुछ गतिविधि करवाई जाती है तो पता चलता है कि दूल्हा तो पागल किस्म का है। बच्चा बुद्धि, मंद बुद्धि अब माँ बाप ने रिश्ता कर दिया शादी कर दी सब होने के बाद बोलते हैं दुल्हन से की तुम्हारा विदाई नहीं होगा। तिस पर दुल्हन क्या कहती है आप उसे इस फ़िल्म में देखें।
अब तक हमेशा हिंदी सिनेमा पर ही लिखता आया हूँ कुछ दफ़ा पंजाबी सिनेमा पर भी लिखा है। और अब पहली बार भोजपुरी सिनेमा पर लिख रहा हूँ। सिनेमा में रुचि है तो एक फ़िल्म निर्देशक भाई गौरव चौधरी ने और उसके पहले कुछ लोगों ने सुझाव दिए थे अंग्रेजी सिनेमा देखने के उन पर भी विचार किया जाएगा। लेकिन क्या करें जनाब हिंदी में ही इतनी अच्छी और कचरा फिल्में आती रहती हैं कि बाकी कुछ चाहते हुए भी नही देख पाता।
खैर कोहबर फ़िल्म के लिए कुछ जानने के लिए जब मुख्य किरदार निभा रहे राजू उपाध्याय भाई से इस शब्द का अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि कोहबर का अर्थ है ‘रस्म’ और यह रस्म है सिंदूरदान के बाद औऱ विदाई के पहले की जिसके बारे में ऊपर बता चुका हूँ जूता चोरी वाला मामला। छोटी सी फ़िल्म है पंसद आई मुझे विशेष रूप से राजू उपाध्याय औऱ मनीषा राय का अभिनय प्रभावित करता है। राजू के अभिनय में एक जज्बा, आग दिखाई देती है वे सिनेमा को जीते हुए नजर आते हैं। श्रेया का म्यूजिक वाला भाग औसत रहा। फ़िल्म में लोकगीत भी बजता है बिहार का सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रहा लोकगीत।
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इस फ़िल्म को लेकर राजू से बात हुई तो उन्होंने फोन पर बताया कि इस फ़िल्म की प्रशंसा होने के बाद इसको विस्तार देकर फीचर फिल्म में तब्दील किया गया है। जल्द ही यह कहीं किसी फेस्टिवल में देखने को मिलेगी। लेकिन इस फ़िल्म के साथ एक दुखद घटना यह भी है कि मनीषा राय जिन्होंने इस फ़िल्म में दुल्हन का किरदार बड़ी संजीदगी से अदा किया वे अब इस दुनिया में नहीं है। एक दुर्घटना में वे चल बसी थीं और फीचर फिल्म की शूटिंग का काम लगभग 80 फीसदी ही हो पाया था। खैर अब देखना यह होगा कि फीचर फिल्म में तब्दील होने के बाद भी क्या यह फ़िल्म अपनी संजीदगी को उसी तरह से जी पाएगी या नहीं। या इसमें और कुछ लोकगीत भी लोकलुभावन लगेंगे या नहीं। दूल्हा दुल्हन के अलावा साथी कलाकार सतीश गोस्वामी, शालू कुशवाहा का अभिनय भी ठीक रहा। सतीश गोस्वामी कम देर ही पर्दे पर दिखे लेकिन प्रभावित किया। फ़िल्म में सिनेमेटोग्राफी सम्बन्धी कुछ कमी का अहसास जरूर खला लेकिन एक बेहतर संदेश देने वाली इस फ़िल्म को एक बार जरूर देखा जाना चाहिए।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार