किसान: त्रासदियों की कहानी
सभी जानते हैं कि यह किसान ही है जो सभी के लिए अनाज और सब्जियों का उत्पादन करते हैं। परन्तु क्या कभी कोई जीता-जागता किसान किसी दिन किसी न्यूज़ चैनल का हिस्सा बनता है? न्यूज़ तो एक बात है, यह किसान सिनेमा और टीवी पर भी यदा-कदा ही दिखते हैं। कभी टीवी पर दिखा भी तो वह किसी खाद या कीटनाशक का विज्ञापन करता दिखेगा। जिसमे वह साफ-सुथरे कपड़े पहने हुये बहुत ही सम्पन्न, समृद्ध और संतृप्त दिख रहा होगा। और खुशी से नाच रहा होगा। क्या यही है किसान की ज़मीनी सच्चाई? यदि नहीं तो, क्या है किसान की असल तस्वीर?
क्या आपने कभी गौर किया है कि क्यों ये किसान आज-कल अपने ग्रामीण इलाको से निकल कर हम शहरी लोगों की ज़िंदगियों मे दस्तक देने लगे हैं। क्यों पंजाब और हरियाणा के किसान ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं? क्यों आज कल ये बहुतायत सड़कों या रेल की पटरियों पर देखे पाये जाते हैं। कभी पंजाब मे सरकार के नई कृषि विधेयक के विरोध मे सड़क और रेल का चक्का जाम करते हैं। तो कहीं महाराष्ट्र मे अपने उपज का उचित मूल्य पाने के लिए ये अपने दूर-दराज के गाँवों से मुंबई महानगर तक लम्बी पदयात्रा करते दिखते हैं।
परन्तु हम शहरी लोगों को इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि उनके क्रिया-कलाप हमारे जीवन मे कोई बड़ा असर पैदा नहीं करते। जैसे कि रेल-ट्रैक पर आन्दोलन से ट्रेन का देरी से आना या मंडियों के बंद होने से या कोई और कारण से सब्जियों का महंगा होना। इन परिस्थितियों मे भी हम केवल अपने बारे मे ही सोचते हैं। प्याज के दाम बढ़ने से हमारे जीवन मे कैसा भूचाल-सा आ गया है कि अब सब्जी मे ग्रेवी कैसे गैरलज़ीज़ हो जाएगी। पर क्या किसी ने ये जानने का प्रयत्न किया कि आप के द्वारा प्याज के 100-150 रुपए प्रति किलो दाम चुकाने पर भी किसान को कितना दाम मिल रहा है? याकि किसान इस स्थिति मे भी मात्र 20-25 रुपए किलो का भाव पाने के लिए दो-दो तीन-तीन दिन तक मंडियों के बाहर अपने बारी का इंतजार कर रहे हैं। ये इंतजार ही है जिसकी कभी कमी नहीं होती उनकी जिन्दगी मे।
या किसान तब न्यूज़ मे आता है जब कोई किसान खेती की बदहाली और कर्ज के बोझ के तले दब कर आत्महत्या कर लेता है। या जब वह वही कीटनाशक का स्प्रे पी कर अपनी जान ले लेता है जिसे उसने कर्ज के पैसे से इस आशा से खरीदा था कि जब खेत लहलहाएंगे तो उसके भी दिन बदलेंगे। पर दिन नहीं बदलते। बस उसके हाथ उस बदले दिन का इंतजार ही हाथ आता है। हाँ इंतजार इंतकाल मे बदल जाता है। पर दिन नहीं बदलते, रात नहीं बदलती। उसकी अंतिम सांस तक और उसके बाद भी।
मनोवज्ञानिक लोग कहते हैं कि मानसिक तनाव ही अत्महत्या कि मुख्य कारक है। पर समझ मे नहीं आता की दिन-रात खेत मे ही खटते रहने वाले किसान के पास तनाव लेने का फुर्सत कहाँ से मिलती है? उसके पास कहाँ समय रहता है कि पहले तनाव मे जाये फिर उस के परिणामस्वरूप अपने जान ले लेवे। परन्तु सेठ, साहूकार और सरकार ने मिल कर एक ऐसा घेरा बना दिया है कि जो लोग मिट्टी के सहारे ही जीते हैं , वह उसी मिट्टी मे मिल जाने लगे हैं। कभी कहा जाता था कि खेती आजीविका का सबसे उत्तम साधन है। जैसे
“उत्तम खेती, मध्यम बान
अधम चाकरी, भीख निधान”
परन्तु आज़ादी के बाद से कृषि प्रधान देश मे कृषि के क्षेत्र को ही अनदेखा कर केवल बड़े उद्योगों और सेन्सेक्स की बढ़ोतरी को ही विकास मान लिया गया है। जिसके परिणाम स्वरूप सूखे, बाढ़ या बेमौसम की बरसात के होने पर देश मे हर साल बहुत अधिक फसल बर्बाद हो जाती है।
अधिकतर छोटे किसान सेठ साहूकारों से उंची ब्याज दर पर लिये गये कुछ हज़ार रुपये के कर्ज़ को जिन्दगी भर नहीं उतार पाते। ऐसे किसान फसल के बर्बाद होने पर अपना जीवन ही समाप्त कर लेते हैं। पहले ऐसा केवल देश के कुछ ही हिस्सों मे होता था। परन्तु इस प्रक्रिया का विस्तार उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत तक बढ़ता जा रहा है। अब तक न जाने कितने ही किसान बढते कर्ज़ के कारण आत्महत्या कर चुके हैं। यही कारण है कि अब खेती और खेती करने वालों का समाज मे दोयम स्तर माना जाने लगा है।
इस पर भी किसानी मे मेहनत की कमी नहीं आई है। किसी भी दूसरे वव्यसाय मे कई तरह के आदमी होते हैं। कोई तेज होता है, तो कोई सुस्त होता है। परन्तु कोई किसान कभी भी सुस्त नहीं होता है। यदि फसल रात में पानी मांगते हैं तो नींद का कोई चक्कर नहीं, पानी देना ही होगा। और बहुत जगह तो सिंचाई बिजली पर निर्भर है, और बिजली देर रात को ही आती है। तो उनको रात को पानी चलाने खेत पर जाना ही पड़ेगा। और कभी तो कई दिनों तक सिंचाईं की लिए वह खेत में ही रहते है। यदि सब्जियाँ भोर से पहले तोड़कर मंडी पहुंचनी है तो वह समय पर पहुंचेगी ही। भले ही इसके लिए उसको अपनी रात काली करनी पड़े। यदि आलू की गुड़ाई चार बार करनी है, तो वह चार बार ही करेगा। ऐसा कदापि नहीं करेगा की दो बार कर के ही गुजारा कर ले।
ऐसे में मज़बूरी वश अपनी बात कहने के लिए जब ये सब शहर का रुख करते हैं, तो सोचना पड़ता है कि कैसे इनके पास इस लाव-लश्कर और जूलूस का समय मिल जाता है? लेकिन बात तो बहुत ही सरल है और एक फ़ारसी कहावत में बिलकुल स्पष्ट हो जाती है -तंग आमद, बजंग आमद। जब परिस्थित्यों से तंग आ जाएँगे तो जंग करने को भी तैयार हो जाएंगे। मतलब कि जब समस्त देश का पेट भरने वाला किसान स्वयं भूखा ही सोयेगा तो वह दिल्ली के जंतर-मंतर या मुंबई के जुहू बीच पर अपनी बात कहने के लिए थक-हार कर आएगा ही। मोदी के साथ तो किसान एका बिठा लेते है। परन्तु प्रत्येक ग्रामीण इलाका एक से बढ़कर एक जमींदारों से पटा पड़ा है।
एक अध्ययन के अनुसार देश का 90 फीसदी संसाधन का प्रभुत्व कुछ 10 फीसदी सबसे बड़े अमीर लोगों के पास सीमित है। और बचे हुए 10 फ़ीसदी संसाधनो पर देश की 90 फीसदी आबादी अपनी जिन्दगी के गुजारे के लिए जद्दोजहद करती है। रोज टूटती है रोज मरती है! और तिस पर भी समाज के मुख्य दृश्य-पटल का हिस्सा नहीं बन पाती। हाशिये पर ही रहती है। अपनी आवाज सुनाने के लिए उसे अपना घर-खेत छोड़ कर आप के परिवेश के इर्द-गिर्द आना पड़ता है। क्योंकि आप तो उनके पास जा कर उनकी सुनने से रहे।
शहर और शहरी जनता को किसानो से कोई सरोकार नहीं है। देश की पहली पंचवर्षी योजना को छोड़कर खेती, किसान और ग्रामीण किसी भी परियोजना मे प्रमुख नहीं रहें हैं। सन 1951 मे देश के 72 फिसदी श्रमिक खेती पर निर्भर थे। और कृषि का देश के जीडीपी मे 51 फिसीदी योगदान था। वहीं सन 2012 आते-आते, केवल 47 फीसदी श्रमिक खेती मे रह गए हैं। और कृषि का देश के जीडीपी योगदान घट कर मात्र 14 फीसदी रह गया है। हम बस एक पाश्चात्य मॉडल को फॉलो करते चले जा रहे है कि बहुत अधिक लोग खेती में बेकार ही लगे हैं। इन अत्यधिक मानव संसाधनो को खेती से निकालो। लेकिन खेती से निकाल कर इनका करना क्या है? इसका कोई फार्मूला, न कृषि विभाग के पास है न ही ग्रामीण विकास विभाग के पास ही है।
इसी लिए हमारे जैसे शहरी बाबू, जो सूखा राशन बड़े चाव से बारह महीने बिना इसकी चिंता किए खरीदते हैं कि कौन से मौसम में किसान कैसे जीता है? कैसे मरता? और कैसे उसकी जिन्दगी का पहिया लुढ़कता है? उन शहरी लोगों को चाहिए कि अगली बार जब आलू के चिप्स या फ्रेंच-फ्राइस खाएं तो बस इतना ध्यान जरूर रखे कि ये आलू उगाने वाले पहले मिट्टी मे अपना पसीना बहाते थे और आजकल अपना खून बहाने को मजबूर है। और जब आप कहेंगे कि आज कल तो आलू भी महंगे हैं भाई! तो ये जानने की कोशिश करें कि इसका कितना दाम आपकी जेब से निकल कर एक किसान की अंटी में जाता है?
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