एतिहासिक

कीका उर्फ महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया

 

16 वीं शताब्दी में राजस्थान के कुंभलगढ़ में वैशाख मास शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को हिन्दू कैलेंडर अनुसार 9 मई 1540 ईस्वी को मेवाड़ नरेश राजपूत महाराजा राणा उदय सिंह के यहाँ एक बालक ने जन्म लिया जो आगे चलकर कीका उर्फ महाराणा प्रताप के नाम से विख्यात हुआ। बचपन से ही महाराणा प्रताप धीर, वीर, गम्भीर, साहसी, निडर और निर्भीक थे। बाल्यकाल से ही घुड़सवारी, ढाल, तलवार इत्यादि में निपुर्ण थे।

 इनकी वीरता की गाथा इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हैं। शताब्दी में अकबर जैसे महान योद्धा जहाँ एक ओर समस्त राजवंशियों को परास्त कर स्वयं अधिपति बन रहा था वहीं उसी समय में महाराणा प्रताप ने कभी भी अकबर के सामने घुटने नहीं टेके अपितु युद्ध में सीमित सैनिकों की संख्या के साथ युद्ध कर, युद्ध को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने नहीं दिया ..ऐसा इतिहासकारों का मानना हैं। अकबर और महाराणा की कटुता की लड़ाई प्रथम बार हल्दी घाटी के युद्ध के समय आमने-सामने आती हैं 21 जून 1576 को।

उस युद्ध में मुगल फौज का नेतृत्व राजा मान सिंह और प्रताप के फौज का नेतृत्व हकीम खां सुरी कर रहे हैं गौरतलब हैं कि उस समय राजनीतिक सत्ता हिन्दू बनाम मुस्लिम ना थी इतिहास में सदैव से ही काॅम्युनिस्ट नजरिया रहा हैं राष्ट्रवाद के नाम पर हिन्दू बनाम मुस्लिम को नया कलेवर देने का। उदाहरण के तौर पर हल्दी घाटी का युद्ध ही ले लीजिए आज इसे जिस तरह से तैयार कर पिरोया गया हैं वह काॅम्युनिस्ट नहीं तो क्या हैं आने वाली पीढ़ियां वहीं पढ़ेगी जो इतिहास में दर्ज होगा। इसलिए जरूरी हो जाता हैं इतिहास को नयी दृष्टि देना।

अबुल फजल अकबरनामा में लिखते हैं कि–“ मुगल फौज का नेतृत्व राजा मान सिंह कर रहे थे सेना प्रताप के फौज से डर गयी थी तभी पता चला कि स्वयं अकबर आ रहें हैं ये सुनते ही मुगल फौज का मनोबल बढ़ गया और वो भागने के बजाय राजपूतों से लोहा लेने लगे ऐसा सम्भव था क्योंकि अकबर उस समय आगरा या दिल्ली में नहीं थे बल्कि युद्ध स्थल से कुछ ही दूरी पर मौजूद थे इस अफवाह में राजपूतों का मनोबल गिरा दिया था।”

कहा जाता है कि हल्दी घाटी के युद्ध में किसी की भी विजय नहीं हुई। किन्तु महाराणा प्रताप ने उसके बाद एक प्रतिज्ञा ली–“जब तक मैं शत्रुओं से अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र नहीं करा लेता तब तक मैं न तो महलों में रहूंगा, न ही सोने-चांदी के बर्तन में भोजन करूंगा, घास ही मेरा बिछौना तथा पत्तल–दोने ही मेरे भोजन पात्र होंगे।” और अन्त तक यह प्रतिज्ञा महाराणा प्रताप ने बरकरार रखी जिसमें उन्हें 1576 से लेकर 1586 तक प्रतिक्षण उन्हें विषम संघर्षपूर्ण जीवन जीना पड़ा। जो कि अकबर के लिए चुनौती का विषय बना रहा इस बीच कई बार अज्ञात, ज्ञात आक्रमण कर महाराणा प्रताप को पकड़ने की अकबर ने साजिश कि जिसमें उसने हर बार हार का सामना किया।

हिन्दी साहित्य में भी महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा का वृहद वर्णन मिलता हैं– गांधीवादी विचारधारा के कवि सोहन लाल चतुर्वेदी लिखते हैं–

“माणिक, मणिमय, सिंहासन को
कंकड़ पत्थर के कोनों पर
सोने, चांदी के पात्रों को, पत्तो के पीले दोनों पर।”

जयशंकर प्रसाद जी तो अपने ऐतिहासिक काव्य में खानेखाना से ही कहलवाते हैं कि–

‘सचमुच शहनशाह एक ही शत्रु वह
मिला आपको हैं कुछ ऊंचे भाग्य से।’

वहीं प्रसिद्ध क्रांतिकारी केसर सिंह बारहठ ने महाराणा श्री फतह सिंह को 1903 ईसवी में एक पत्र लिखा जिसमें महाराणा प्रताप की वीरता का परिचय दिया हैं–

‘पग पग भाग्या पहाड़, धरा छौड़ राख्यों धरम।
‘ईसुं’ महाराणा रे मेवाड़, हिरदे, बसिया हिकरें।।’

डिंगल भाषा में वहीं पृथ्वीराज ने लिखा हैं –

“जासी हाट बाट रहासी जक
अकबर ठगणासी एकार
रह राखियों खत्री धम राणे
सारा ले बरता संसार।।”

 वहीं महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध नीलवर्ण ईरानी मूल के घोड़े का नाम चेतक था। चेतक अश्व गुजरात के काठियावाड़ी व्यापारी ईरानी नस्ल के तीन घोडे चेतक, त्राटक और अटक लेकर मारवाड आया। अटक परीक्षण में काम आ गया। त्राटक महाराणा प्रताप ने उनके छोटे भाई शक्ती सिंह को दे दिया और चेतक को स्वयं रख लिया। हल्दी घाटी-(१५७६) के युद्ध में चेतक ने अपनी अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का परिचय दिया था। युद्ध में बुरी तरह घायल हो जाने पर भी महाराणा प्रताप को सुरक्षित रणभूमि से निकाल लाने में सफल वह एक बरसाती नाला उलांघ कर अन्ततः वीरगति को प्राप्त हुआ। हिन्दी कवि श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित प्रसिद्ध महाकाव्य हल्दी घाटी में चेतक के पराक्रम एवं उसकी स्वामिभक्ति की मार्मिक कथा वर्णित हुई हैं–

‘रण बीच चौकड़ी भर –भर कर
 चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था’।।

इस तरह महाराणा प्रताप की वीरता का परिचय कई कवियों ने दिया है और इतिहासकारों ने हल्दी घाटी युद्ध को ‘थर्मोपल्ली’ की संज्ञा तक दे डाली हैं। महाराणा प्रताप के सन्दर्भ में कर्नल टॉड लिखते हैं–“कि आल्प्स पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्ति युक्त पराजय से पवित्र न हुई हो हल्दीघाटी मेवाड़ की धर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का मैराथन हैं।” वर्तमान दौर राष्ट्रवाद का हैं इसी सन्दर्भ में वर्तमान मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ जी ने कहा हैं कि ‘अकबर आक्रांता था और असली हीरों तो महाराणा प्रताप हैं युवा इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार कर लेंगे उतनी जल्दी देश को सारी समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा।” (9 मई 2019 बीबीसी) वहीं हाल ही में केंद्रीय गृह मन्त्री राजनाथ सिंह ने भी कहा–कि इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप के साथ नाइंसाफी की हैं अकबर को द ग्रेट कहा जाता हैं महाराणा प्रताप को क्यों नहीं जबकि महाराणा प्रताप प्रथम राष्ट्रनायक थे।”

वहीं जार्ज आर्बेल ने अपने उपन्यास में 1984 ईसवी में लिखा हैं– ‘ कि जिसका वर्तमान पर नियंत्रण होता हैं उसी का भविष्य पर भी नियंत्रण होता हैं।’ गौरतलब है कि लोकप्रिय गीतों, कविताओं में महाराणा को एक हीरों की तरह देखा गया हैं और देखा भी जाना चाहिए क्योंकि वें अकेले राजपूत थे जिन्होंने घुटने नहीं टेके, आखिरी दम तक लड़ते रहे। जो कि महाराणा की वीरता की गाथा को अमर करता हैं माना जाता हैं कि जब महाराणा की मृत्यु हुई शिकार खेलते हुए तब अकबर भी रोया था –दुरसा जी छप्पय में लिखते हैं कि–

“अस लेगो अणदाग, पागल लेखों अणनामी,
गो आडा गवड़ाय, जिको बहुतों धुर वामी।
नवरोजे नहं गयो, न को आतनानवल्ली,
न गो झरोखें हेठ, जेठ दुनियाण दहल्ली।
गहलोत राणे जीती गयो, दसण मूंद रसना डसी,
नीसास, मूक भरिया, नयण तो म्रत साह प्रतापसी।।”

 अर्थात्– ‘ हें प्रताप सिंह तूने अपने घोड़े पर अकबर की आधीनता का चिन्ह् नहीं लगवाया और अपने चेतक को बेदाग ले गया।हमेशा मुगल सत्ता के विपरीत तूने अपनी वीरता के कीर्ति गीत गवाएं, जिस मुगलिया झरोखें के नीचे आज सारी दुनिया हैं तू न तो कभी उस झरोखें के नीचे आया न ही अकबर के नवरोज कार्यक्रम में उपस्थित हुआ हें! महान वीर! तू जीत गया ! तेरी मृत्यु पर अकबर बादशाह ने आँखें मूँद कर दाँतों के बीच जीभ दबाई, नि: स्वास छोड़ी और उनकी आँखों में आँसू भर आए गहलोत महाराणा प्रताप तेरी विजय हुई।

      निश्चय ही जिस योद्धा ने घास की रोटी खाकर, जंगल में रहकर अपने मातृ भूमि के खातिर सब कुछ छोड़ दिया, जिसके सामने दुश्मन को नतमस्तक होना पड़ा, वीरता का गुणगान करना पड़ा, विजय का लोहा मानना पड़ा, निश्चय ही वह देवतुल्य पृथ्वीपुत्र ही होगा जो अपनी मातृभूमि के खातिर स्वयं को समर्पित कर गया। आज के समय में ऐसा प्रताप होना महज एक कोरी कल्पना होगी क्योंकि अतिआधुनिक के दौर में मानवीयता कहीं भटक सी गयी हैं।”

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रेशमा त्रिपाठी

लेखिका अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा, मध्य प्रदेश में शोध छात्रा हैं। सम्पर्क +919415606173, reshmatripathi005@gmail.com
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