जाति की राजनीति और किसान आन्दोलन
29 दिसम्बर को पटना में ‘ऑल इंडिया किसान संघर्ष समिति’ की बिहार ईकाई के बैनर तले हुए विशाल प्रदर्शन व ‘राजभवन मार्च’ ने एक तरह से संघर्ष का बिगुल बजा दिया है। बिहार के 25 से अधिक किसान संगठनों की भागीदारी वाली संमन्वय समिति में जिस प्रकार बिहार के कोने-कोने से आए किसानों की भागदीरी हुई वह अभूतपूर्व रहा। वामपन्थी से लेकर समाजवादी धारा के किसानों की हिस्सेदारी वाली इस व्यापक प्रदर्शन को रोकने के लिए बिहार सरकार और उसकी पुलिस ने बल प्रयोग करने की जो केाशिश की उसने पूरे देश का ध्यान बिहार के किसान संघर्ष की ओर आकृष्ट किया है।
इसके पूर्व विभिन्न हलकों में यह बात बड़े जोर-शोर से उठायी जा रही थी कि अभी देश भर के किसान-खासकर पंजाब-हरियाणा के ए.पी.एम.सी एक्ट को हटाए इतना विरोध कर रहे हैं तो फिर बिहार के किसानों में विरोध का मुखर तेवर क्यों नहीं नजर आ रहा? जबकि बिहार, किसान आंदालनों का देश भर में अग्रणी प्रदेश रहा है। आजादी के पूर्व से ही क्रान्तिकारी किसान नेता व स्वाधीनता सेनानी स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में चले जमींदारविरोधी किसान आन्दोलनों का परिणाम था कि यह राज्य जमींदारी उन्मूलन करने वाला देश का पहला राज्य बना था।
बिहार में आजादी के बाद से ही किसान आन्दोलन निरन्तर जारी रहा है पहले जहाँ भूमि व मजदूरी प्रधान एजेंडा हुआ करता था। भूमि इतना बड़ा मुद्दा रहा है कि भूदान आन्दोलन के दौरान बिनोबा भावे को सर्वाधिक भूमि ( लगभग 6 लाख ) एकड़ बिहार में ही प्राप्त हुई।
बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एन.डी.ए सरकार ने 2005 में सत्तासीन होने के मात्र एक वर्ष पश्चात ही मंडियों या बाजार समितियों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया था।
उसके बाद बाजार समितियों का स्थान ‘पैक्स’ (प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसायटी) ने ले लिया। इन पैक्सों के लिए चुनाव होता है। पंचायत स्तर पर होने वाले पैक्सों के चुनाव में किसान वोट देने के अधिकारी होते हैं। बिहार सरकार द्वारा इन पैक्स अध्यक्षों को धान की खरीद का टारगेट दिया जाता है। लेकिन वह टारगेट धान की उपलब्धता के मुकाबले काफी कम रहा करता है। पैक्सों के माध्यम से खरीद एक अनुमान के मुताबिक मात्र 10-15 प्रतिशत ही हुआ करते हैं।
‘पैक्स’ द्वारा धान क्रय केन्द्र खोल जाते हैं लेकिन धान का अपेक्षित क्रय नहीं किया जाता। धान के इन केन्द्रों की संख्या भी घटने लगी। रिपोर्टों के अनुसार बिहार में धान के क्रय केन्द्रों की संख्या 2015-16 में जहाँ 9000 हजार थे वहीं वह अब घटकर 2019-20 मात्र 1619 ही रह गये हैं।
बिहार का अनुभव यह बताता है यदि ए.पी.एम.सी को खत्म किया जाता है तब उसका प्रभाव देश के स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा? बिहार में ए.पी.एम.सी समाप्त करने के बाद किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल पा रही है। भारत सरकार के खाद्य व जनवितरण विभाग के आंकड़ों के अनुसार धान का मात्र 20 प्रतिशत एवं गेहूं का शून्य प्रतिशत की सरकारी खरीद हो पाती है। बिहार में पलायन में बढ़ोतरी का एक कारण ए.पी.एम.सी एक्ट को खत्म करना भी माना जाता रहा है।
2019-20 में धान का दर 1815 रूपया रखा गया था लेकिन किसानों ने व्यापारियों के हाथो मात्र 1200-1300 रूपये में बेचना पड़ा। गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रूपया था लेकिन किसानों ने उसे 1800 रूपये में ही बेचने पर मजबूर होना पड़ा। मक्के प्रति क्विंटल 1000 से 1300 रूप्ये में बेचने पर मजबूर होना पड़ा जबकि उसका न्यूनतम समर्थन मूल्य था 1850 रूपया। गेहूं से बनने वाले खाद्य पदार्थों की बहुतायत रहा करती है लिहाजा उसकी कीमतों में धान के मुकाबले कम गिरा करती है।
नवंबर 2019 में नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लायड रिसर्च ( एन.सी.ए.ई.आर द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार 2012-13 से 2016-17 के दौरान बिहार का कृषि विकास घटकर 2008-09 और 2011-12 के मुकाबले घटकर 1.3 प्रतिशत रह गयी है।
सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि बिहार में कोई ए.पी.एम.सी नहीं है परन्तु कृषि पदार्थों की कीमत अपने पड़ोसी राज्यों की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत कम है। ए.पी.एम.सी को खत्म करने के बाद भी बिहार ने किसी भी प्रकार का कोई निवेश कृषि क्षेत्र में आमंत्रित नहीं किया है। चुंकि यहाँ कृषि पदार्थों की कीमत दूसरे राज्यों की तुलना में कम है लिहाजा यदि निवेश आता तो उन्हें फायदा होता। लेकिन ऐसा कोई निवेश बिहार में नहीं आया। यह बात इस कारण भी महत्वपूर्ण है कि बिहार की उत्पादकता दूसरे प्रदेशों की तुलना कतई भी कम नहीं है। सिर्फ गेहूं के क्षेत्र में बिहार की उत्पादकता देशव्यापी स्तर पर दूसरी फसलों के मुकाबले कम मानी जाती है। धान में बिहार की उत्पादकता देश के लगभग बराबर है जबकि मक्का में यह बाकी प्रदेशों की तुलना में अधिक है। बिहार में गंगा का मैदानी इलाका और किसानों का हुनर ये दोनों मिलकर बिहार की खेती को लाभदायक बना देते हैं।
बिहार में ए.पी.एम.सी एक्ट (बाजार समिति) 2006 में नीतीश कुमार द्वारा समाप्त कर दिया गया। सवाल यह उठता है कि जिस बाजार समितियों को नीतीश कुमार ने एक झटके में खत्म कर दिया उसका व्यापक पैमाने पर वैसा विरोध क्यों नहीं हुआ जैसा कि जमीन व मजदूरी को लेकर हुआ करता रहा था?
जब ए.पी.एम.सी एक्ट को समाप्त कर दिया था तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के तत्कालीन विधायक रामदेव वर्मा ने इसकी जमकर मुखालफत की। तथ्यों व आंकड़ों का हवाला देकर रामदेव वर्मा ने एन.डी.ए सरकार को चेताया कि भविष्य में इसके क्या दुष्परिणाम होंगे। कुछ अन्य नेताओं ने भी आवाज उठायी। लेकिन इन विरोधों के बावजूद न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग बिहार के किसानों के आन्दोलन का मुद्दा क्यों नहीं बन पाया? सी.पी.आई.एम से जुड़े बिहार राज्य किसान सभा (जमाल रोड) के महासचिव विनोद कुमार झा के अनुसार ‘‘न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए किसानों के आन्दोलित न होने का मुख्य कारण यह है कि यहाँ के किसानों को उसका कोई अनुभव ही नहीं है। एम.एस.पी से किसानों को क्या फायदा मिल सकता है इसका उन्हें कोई अंदाजा ही नहीं है।’’ विनोद कुमार झा आगे बताते हैं ‘‘बिहार के किसान अपने उत्पादों की सबसे कम कीमत पाते हैं। अधिकांशतः छोटे व्यापारी किसानों के उत्पाद खरीदते हैं। किसान व्यापारियों से औने-पौने कीमत पर बेचने के लिए बाध्य होते हैं। जो बिहार के किसानों की दुर्गति हो चुकी है केन्द्र सरकार उसे देश के स्तर पर दुहराना चाहते हैं।’’
बेगूसराय क्षेत्र के किसानी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता उमेश कुंवर कवि के अनुसार ‘‘ बिहार में न तो मण्डी है न कोई सहकारी क्रय केन्द्र, किसानों को महाजन का कर्ज चुकाना है, बेटी ब्याहना है, बीमार परिजन का इलाज कराना है फसल तो बेचना ही होगा। बस इसी मजबूरी का फायदा उठाकर एम.एस.पी क्या उसकी चैथाई कीमत पर खरीद लेते हैं। किसान एक एकड़ में खेती पर न्यूनतम तीस हजार रूप्या खर्च करता है उसी उपज से खेती का खर्च भी नहीं निकल पाता है। नफा की तो बात ही छोड़िए। अब किसान आन्दोलन नहीं करेगा तो क्या करेगा?’’
विनोद कुमार झा साथ में यह भी जोड़ते हैं ‘‘अभी तक किसान आन्दोलन जमीन के मुददे पर लड़ा जाता रहा है। जमीन सामंतों के हाथों से वास्तविक किसानों के हाथो में जाए यह बड़ा व प्रमुख सवाल रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धान व गेहूं के लाभकरी मूल्य मिले, यह प्रधान एजेंडा बनता जा रहा है। इसके अलावा जिन जमीनों पर हमने कब्जा किया हुआ था उससे बेदखली और बासगीत की जमीन का सवाल आज भी प्रमुख सवाल बना हुआ है।’’
ऐसा भी नहीं है कि बिहार के सभी इलाकों में बाजार समितियां अस्तित्व में नहीं थीं। पटना से 35-40 किमी की दूरी पर स्थित बिहटा के पास स्थित राघोपुर में बाजार समितियां काफी ढ़ंग से संचालित की जाती थी। 2006 तक राघोपुर (बिहटा) में ए.पी.एम.सी या बाजार समिति के ठीक ढ़ंग से से चलते रहने कारण इस इलाके में सशक्त किसान आन्दोलन की परंपरा भी रही है। यहीं पर स्वामी सहजानंद सरस्वती का सीताराम आश्रम स्थित है जो देश भर के किसान आन्दोलनों का प्रधान केन्द्र रहा है।
इस इलाके के एक प्रमुख गांव अमहरा के 10 सालों तक मुखिया रहे डॉ. आनंद कुमार बाजार समितियों के लाभ के सम्बन्ध में बताते हैं ‘‘पहले अनाज लेने के लिए व्यापारी घूम-घूमकर आता था। बाजार में बेचने पर उसी दिन पैसा मिल जाता था। जो भी तय एम.एस.पी हुआ करता था फसल की कीमत कभी भी उससे कम नहीं होती थी। लोग बैलगाड़ी या टायरगाड़ी के सहारे अपने अनाज को बाजार समिति में लेकर आते थे। एक छोटा किसान एक साईकिल पर भी अपने अनाज लेकर बाजार समिति में बेच आता था। लेकिन अब तो सरकार ऑस्ट्रेलिया से जब गेहूं मंगाती है तब यहाँ के किसानों का गेहूं खरीदने में क्यों दिलचस्पी लेगा ? ’’
‘पैक्स’ के आने के पश्चात आए बदलावों को रेखांकित करते हुए आनंद कुमार कहते हैं ‘‘ पैक्स के पास पैसा नहीं है। मात्र 10 प्रतिशत का ही उसे क्रेडिट मिलता है। टारगेट मिनिमम है। दिसम्बर , जनवरी, फरवरी में खरीद होता है। अब तो एम.एस.पी ऐसे ही बहुत कम है। पहले बाजार का कीमत एम.एस.पी के आस-पास रहता था। यह एम.एस.एपी लगभग डेढ़ गुणा रहना चाहिए। अब मान लीजिए गेहूं का एम.एस.पी 1938 रू है तो आपाको बाजार में भी 1900 रू के आसपास तक मिल जाता था। लेकिन 1900 रू का गेहूं बहुत कम कीमत में बचेना पड़ता है। ’’
पुराने बाजार समिति के ढ़ांचे को स्पष्ट करते हुए आनंद कुमार बताते हैं ‘‘ पहले मार्केटिंग बोर्ड था। मार्केटिंग कमिटि में व्यापारी, किसान और सरकार तीनों के प्रतिनिधि रहा करते थे। उनमें भ्रष्टाचार था, कई दूसरे किस्म की समस्यायें थीं। लेकिन किसानों की आवाज सुनी तो जाती थी। अब तो बाजार पर कोई नियंत्रण ही नहीं है। उसे डिफंक्ट कर दिया गया और उसकी जगह एक एक्जेक्यूटिव ऑफिसर बना दिया गया। किसानों को पैसा धान कटने के वक्त ही मिल जाना चाहिए ताकि वह गेहूं रोप सके। लेकिन पैक्स सिस्टम में पैस सही वक्त पर नहीं मिल पाता लिहाजा किसान अपनी फसल को कम कीमत पर बेचने पर मजबूर हो जाता है। एक किस्म का एनार्की है यहाँ। किसानों को लगता है कि लड़ने से कोई फायदा नहीं क्योंकि कोई सुननने वाला नहीं है। जनप्रतिनिधि भी इस मामले में हाथ खड़े कर देते हैं कि हमारी बात थोडे़ ही सुनी जाती है। विधायक वगैरह करोड़ों रूपये अपनी योजनाएं पास करवाने में अधिक मशगूल रहते हैं। ’’
पहले और अब की तुलना करते हुए आनंद कुमार बताते हैं ‘‘ राघोपुर बाजार समिति में दूर-दूर से व्यापारी आया करते थे। पचास व्यक्तियों को तो सिर्फ कैलकुलेटर लेकर बैठना पड़ता था ताकि खरीद-बिक्री का हिसाब-किताब कर सकें। यह बात ठीक है कि बाजार समिति में लूट-खसोट था लेकिन कम से कम किसानों को आवाज उठाने का एक मौका तो था। सरकार को सेल्स और अन्य टैक्स वगैरह जाता था। लेकिन अब देखिए बाजार को खुला छोड़ देने से एक मन में 40 किलो के बजाए 35 किलो ही तौलता है। कोई बालने वाला नहीं है। पैक्स में रैयती और गैररैयती दोनों रजिस्ट्रेशन कराकर धान बेचने लगा। इन सबके खिलाफ बोलिए तो पाकिस्तान-खालिस्तान करने लगती है केन्द्र सरकार।’’
बिहार में ए.पी.एम.सी के खत्म होने से किसानों को बहुत अधिक नुकसान उठाना पड़ा उसके बावजूद यह राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया। उसकी एक वजह पहचान की राजनीति मानी जाती है जिसने हर सवाल को जाति के चश्मे से देखने की आदत बना दिया। जातिगत विभाजनों के गहरे होने के कारण किसानों की एकजुटता नहीं हो पायी।
अभी चल रहे किसान आन्दोलनों को तोड़ने के लिए केन्द्र सरकार पिछली शताब्दी के तीस के दशक में जमींदारों द्वारा हथकंड़ों की नकल की तरह हैं। उन्हीं के आजमाए नुस्खों को अब इस्तेामल किया जा रहा है। अभी केन्द्र सरकार द्वारा कुछ नकली किसान संगठनों को खड़ा कर कृषि कानूनों के समर्थन में बयान दिलवाए गये। तीस के दशक के किसान सभा वके बरक्स जमींदारों ने भी अपनी समर्थक किसान सभा ‘यूनाइटेड किसान सभा’ खड़ी करने का प्रयास किया था।
किसान सभा बनाम त्रिवेणी संघ – वर्ग को जाति से तोड़ने की कोशिश
बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में जब बिहार में किसान आंदेालन जोरों पर था तब किसान सभा को तोड़ने की कोशिश की गयी। तीन प्रमुख ओ.बी.सी जातियों- यादव, कुर्मी और कोईरी- के एक छोटे से हिस्से द्वारा बनाए गये संगठन ‘त्रिवेणी संघ’ द्वारा किसान सभा का यह कह कर विरोध किया गया कि स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व वाली किसान सभा सवर्णों के हाथों में है। ठीक इसी प्रकार जगजीवन राम को किसान सभा के विरूद्ध खड़ाकर खेतमजदूर सभा की स्थापना की गयी। लेकिन जमींदारों के प्रश्रय से चलने वाले इन दोनों प्रयासों को मुंह की खानी पड़ी। उसकी बड़ी वजह ये थी कि किसान सभा जमींदारी प्रथा के विरूद्ध खुलकर संघर्ष कर रही थी जबकि ‘त्रिवेणी संघ’ इस मामले में मुखर न थी रहा करती थी। 1933 में बने ‘त्रिवेणी संघ’ का अंततः जमींदारों के हितों को सुरक्षित रखने वाली कांग्रेस पार्टी में विलय ही हो गया था। जगजीवन राम द्वारा खड़ी की गयी खेतमजदूर सभा किसान सभा के सामने न टिक सकी।
लेकिन बीसंवी शताब्दी में नब्बे के दशक में सामाजिक न्याय के नारे के नाम पर ओ.बी.सी जातियों का अगुआ व धनी हिस्सा सत्तासीन हुआ। ठीक इसी वक्त में वैश्वीकरण के प्रभाव में किसानों को मिलने वाली तमाम सुविधाएं छीनी जाने लगीं। ठीक इसी वक्त बिहार के किसानों ने भूमि संघर्ष भी प्रारंभ किया। सैंकड़ों वामपन्थी कार्यकर्ताओं की इन संघर्षों में हत्या भी हुई। इसी दौर में बिहार में जाति आधारित निजी सेनाएं अस्तित्व में आने लगी। ये सभी निजी सेनाएं खुद को किसानों का संगठन होने का दावा करती थी। कुर्मी जाति के धनाढ़यों की भूमि सेना, यादव जाति के धनाढ़यों की लोरिक सेना, राजपूत जाति के धनाढ़यों की सनलाइट सेना, भूमिहार जाति के धनाढ़यों की रणवीर सेना। अस्सी के दशक से लेकर नब्बे के अंतिम वर्षों तक इन निजी सेनाएं कई बड़े नरसंहारों का कारण बनीं।
इसी वक्त यानी 1991 में वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की अवधारणा के तहत सरकारों द्वारा कृषि क्षेत्र से श्नैं:-श्नैः सब्सिडी को वापस लिया जाने लगा। जब देश की अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार के लिए खोला जा रहा था तब भारत के मध्यवर्ग द्वारा उसका स्वागत यह कह कर किया जा रहा था कि इससे विदेशी निवेश आएगा और विकास की गति बढ़ेगी। इंटरनेट, कंप्युटर, मोबाइल को सड़कों-पुलों के जाल को, महंगी व लक्जरी गाड़ियों की बहुतायत को, कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में हो रहे गगनचुबी इमारतों को विकास को नव उदारवादी आर्थिक नीति की सफलता के रूप में चिन्हित किया जा रहा था।
मध्यवर्ग भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण से मोहाविष्ट था। लेकिन इन नीतियों के परिणामस्वरूप कृषि संकटग्रस्त होने लगा। खेती-किसानी महंगे होते चला गया। चार लाख से अधिक किसानों ने सिर्फ आत्महत्या की। सुप्रसिद्ध पत्रकार पी.साईनाथ ने एक अनुामन लगाकर बताया था कि भारत में प्रतिदिन लगभग दो हजार किसान खेती छोड़ना पड़ जाता है। किसानों की संकटग्रस्ता की परिघटना के बाद नवउदारवादी आर्थिक दर्शन को संदेह की निगाहों से देख जाने लगा। क्योंकि इसके तहत खेती से सरकार लगातार समर्थन वापस लेती जा रही थी। कृषि को विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव से जोड़ा जाने लगा था।
यह कुछ-कुछ 1947 के पहले वाले हालात जैसे थे। 1947 के पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था और विशेषकर कृषि विश्व बाजार से जुड़ा हुआ था। जब अंग्रेज आए तब भारतीय मध्य वर्ग का एक हिस्सा अॅंग्रेजों द्वारा किये जा रहे विकास कार्यों- रेल लाइन बिछाना, पुल-सड़क का निर्माण, बिजली बल्ब आदि का इस्तेमाल आदि – से मोहाविष्ट था। लेकिन अॅंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की मार जब खेती-किसान पर पड़ने लगी तब इस ‘विकास’ के पीछे की असलियत क अहसास हुआ। चाहे अॅंग्रेजों का औपनिवेशिक राज हो या आज का नवउदारवादी राज किसानों को जीवन तबाह किये बिना इस राज को टिकाया नहीं जा सकता। पुराना या नया , ये दोनों किस्म का निजाम किसानों को मजदूर बनाने की ओर घकेलता रहा है। इस पूरी परिघटना को महान कथाकार प्रेमचंद ने अपने विख्यात उपन्यास ‘गोदान’ में पकड़ने का प्रयास किया था। आज भारत फिर से उसी निर्णायक मोड़ पर खड़ा है।
आजादी के बाद पूर्व औपनिवेशिक काल के कृषि जिस प्रकार विश्व बाजार के उतार-चढ़ावों से जुड़ा हुआ था। ए.पी.एम.सी एक्ट तथा खेती-किसानी में सब्सिडी बाजार के हलचलों से किसानों से बचाने के लिए राज्य या सरकार के समर्थन के रूप में आया था। एक.पी.एम.सी एक्ट की समाप्ति तथा कृषि से सब्सिडी वापस लेने का मतलब है कृषि क्षेत्र को 1947 से पहले की स्थिति में पहुँचा देना। यह भ्ज्ञी क्रूा संयोग है कि जिस भारतीय जनता पार्टी का आजादी के आन्दोलन से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं था वही आज उस आन्दोलन की कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी उपलब्धियों को अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध तथा नब्बे के पूर्वाद्ध में कृषि से सब्सिडी खींचने का स्वाभाविक परिणाम खेती-किसानी के महंगे होते चले जाने के रूप में हुआ। जब खेती-किसानी की लागत महंगी होती जा रही थी तब किसानों ने उसका बोझ मजदूरों पर डालने का प्रयास किया। इसकारण मजदूरी प्रधान एजेंडा बनती जा रही थी। बिहार के नरसंहारों पर मानवाधिकार संगठन पी.यू.डी.आर द्वारा किये गये अध्ययन में यह बात प्रमुखता से उभर कर आई थी कि इन अधिकांश नरसंहारों की जड़ में कहीं न कहीं मजदूरी बढ़ाने की माँग थी। बेलछी नरसंहार में मात्र चार आना मजदूरी बढ़ाने की माँग थी।
जाति आधिारित निजी सेनाएं मजदूरी की माँग को एक दायरे में रखने की सामंती- व नवधनाढ़्य तबकों द्वारा की गयी प्रतिक्रिया थी।
जब खेती-किसानों के सवाल प्रधान बनने चाहिए थे तब जातीय सेनाओं के गठन के माध्यम से बिहार में जातिगत विभाजनों को चैड़ा किया जाने लगा। फलतः बिहार के किसान कभी भी एकजुट होकर कृषि क्षेत्र में हो रहे नये हमलों का मुकाबला करने में अक्षम होते चले गये। सारे चुनाव ‘जाति’ को केन्द्र में रखकर लड़े । इन्हीं वजहाँे से जब नीतीश कुमार वाली एन.डी.ए सरकार ने ए.पी.एम.सी एक्ट को निरस्त किया तब एक सशक्त विरोध नहीं उभर सका। सी.पी.आई से जुड़े बिहार राज्य किसान सभा के महासचिव अशोक कुमार भी इस बात से सहमति जताते हुए क्हते हैं ‘‘ इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि किसानों को संगठित करने का प्रयास जिस बड़े पैमाने पर करना चाहिए था वह नहीं हो सका है। इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा है कि किसान जातिगत व धार्मिक आधार पर बंटे हुए हैं। हालिया विधानसभा चुनावों को देखिए किसानों के बदले जातीय मसले हावी रहे। जब बिहार के किसान खुद को यादव, कुर्मी, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर विभाजित हैं तो किसान आन्दोलन कहाँ से खड़ा हो पाएगा ?’’
इसके अतिरिक्त कारण बिहार के किसानी जीवन मे आए कुछ अन्य बदलाव भी हैं जिनकी वजह से किसान आन्दोलन में खड़ी करने में परेशानी होती है। जैसे कुछ सालों पहले जो किसान खुद खेती करता था वह खेती महंगी होती चले जाने के कारण वह उसे किराए पर लगा देता है यानी पट्टे या बटाई दे देता है। वह साल में सिर्फ एक बार ही किराए ले लेता है। यह नगदी या फिर फसल के एक निश्चित हिस्से के रूप में भी रहा करता है। इससे, बिना कुछ किये, उसके हाथ मे कुछ पैसे आ जाते हैं। इससे एक नई स्थिति पैदा होती है जमीन का जो मालिक है वो खुद खेती नहीं करता और जो किसानी करता है जमीन पर उसका अधिकार नहीं रहता। पैक्सों की व्यवस्था आने के बाद अब जमीन मालिक असल किसान से नगदी के बजाए फसल माँगता है। क्योंकि फसल मिलने पर पैक्स में अपने प्रभाव व संपर्क का उपयोग कर एम.एस.पी पर बेच सकता है। जबकि नगदी में खेती करने वाला किसान तो उसे बाजार भाव के आधार पर ही जोड़ कर देगा। जो अमूमन न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम रहा करता है। उदाहरण के लिए अभी धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य है 1860 रू जबकि बाजार भाव 1200-1300 तक ही है। इसप्रकार किसानों के अंदर भी एक वर्गीकरण संयुक्त किसान आन्दोलन में बाधा बन जाता है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य एक ऐसी चहज है जिसके तय होने से सबों का फायदा होगा। जमीन मालिक किसान हो या फिर खेती करने वाला असली किसान।
इसलिए इन तमाम बाधाओं के बावजूद किसानों ने अपनी आवाज उठाना छोड़ दिया हो, ऐसा नहीं है। उमेश कुंवर ‘कवि’ के अनुसार ‘‘ऐसा नहीं है कि किसानों ने आन्दोलन नहीं किया। धान की खरीद, न्यूनतम समर्थन मूल्य, फसल का लाभकारी दाम आदि को लेकर ये लोग निरन्तर आन्दोलनरत रहे हैं। लेकिन अखबारों व मीडिया में उसकी जगह कहाँ मिलती है? आप किसान सभा के जिला सम्मेलनों की रिपार्ट उठाकर देखिए तो पता चलेगा कि बिहार में किसान किस प्रकार आन्दोलनरत रहे हैं। यही देखिए न पंजाब के किसान पिछले तीन महीनों से आन्दोलन कर रहे थे। देश को कुछ पता नहीं था पर जब तक कि किसानों ने दिल्ली आकर घेर नहीं लिया। तब जाकर मीडिया ने उसको कवरेज देना शुरू किया।’’
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