ईशनिंदा की नयी परिभाषा !
क्या बाइबिल, हदीथ और कुरआन जैसे धर्मग्रंथों में लिखी किसी बात को सार्वजनिक रूप से पढ़ना, लिखना या उस पर विचार-विमर्श करना ईशनिंदा माना जाना चाहिए? स्ट्रासबर्ग स्थित मानवाधिकार की यूरोपियन अदालत (European Court of Human Rights) के हाल में ही दिए गए एक निर्णय के अनुसार अनुयायियों की दृष्टि से दुनिया के सबसे बड़े धर्मों में से एक इस्लाम के संस्थापक को ‘पेडोफिल’ (Paedophile) कहना ईशनिंदा की श्रेणी में आता है।
अंग्रेजी शब्द ‘पेडोफिल’ का अर्थ है ‘बच्चों के प्रति यौनिक दृष्टि से रुझान रखने वाला व्यक्ति, मुख्यतः पुरुष।’ कालिंस शब्द कोश के अनुसार उसके 50 प्रतिशत यानी 30 हजार सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में से यह एक शब्द है। अरबी, पोर्तुगाली, चीनी, क्रोएअशियाई, चेक, डेनिश, डच, स्पेनिश, फिनिश, फ्रेंच, जर्मन ग्रीक, इतालवी, जापानी, कोरियाई, नार्वेजियन, रूसी, स्वीडिश, थाई, तुर्की, यूक्रेनी, वियतनामी आदि भाषाओं में इस अंग्रेजी शब्द के पर्यायवाची उनके अपने शब्द हैं पर हिन्दी में कोई एक शब्द नहीं, यद्यपि अंग्रेजी हिन्दी-कोशों में इस शब्द का अर्थ अवश्य बतलाया गया है।
यह कैसी विडम्बना है कि मानवाधिकार की यूरोपीय अदालत ने आस्ट्रिया की एक अदालत के इस निर्णय पर अपनी मुहर लगा दी कि इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की आलोचना करना, कुछ भी कहना या टिप्पणी करना वाक्स्वातन्त्र्य की परिधि में नहीं आता। यह निश्चय ही दुनिया भर के मुसलमानो के लिए खुशी की बात और बहुत बड़ी विजय है। संक्षेप में कहा जाए तो बात यह रही कि एक आस्ट्रियन महिला ने जगह-जगह सेमिनार कर इस्लाम के धर्म ग्रन्थ के आधार पर मोहम्मद को यौनिक दृष्टि से बच्चों के प्रति रुझान रखने वाला बतलाया। इसे आस्ट्रिया की एक अदालत ने धर्म की अवमानना मानते हुए उस पर 500 यूरो जुर्माना लगाया जिसके विरुद्ध इस आधार पर यूरोपीय अदालत में अपील की गई कि यह निर्णय उसके वाक्स्वातन्त्रय के अधिकार का हनन था। पर अदालत ने उसका यह तर्क नहीं माना।
मानवाधिकार की यूरोपीय अदालत के इस निर्णय को लेकर ब्रिटेन के बौद्धिक जगत में जबरदस्त विवाद छिड़ा हुआ है। इसके पक्ष-विपक्ष में लेख लिखे गए हैं और पाठकों के पत्रों के रूप में प्रतिक्रयाएं हो रही हैं। यूरोपीय अदालत का मानना है कि इस प्रकार का कोई कथन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या विचार-स्वातंत्र्य के अंतर्गत नहीं माना जा सकता भले ही वह मुसलमानों के धर्म ग्रन्थ हदीथ (इस्लाम के अनुयायियों के अनुसार कुरआन के बाद दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ) में लिखी गयी कोई बात हो। इसमें बतलाया गया है कि इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद के 9 वर्षीय लड़की के साथ यौन सम्बन्ध थे। इस लड़की के साथ जब मोहम्मद का विवाह हुआ तब वह 6 वर्ष की थी और मोहम्मद 53 वर्ष के थे।
मोहम्मद का यह कृत्य आजकल ‘पेडोफिल’ के अंतर्गत मानने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए, भले ही उस समय अलग-अलग मान्यताएं रही हों और उसी सन्दर्भ में इस पर विचार किया जाना चाहिए। अदालत ने अपने निर्णय में कहा है कि इस सन्दर्भ में सच्चाई को न्यायसंगत तर्क या औचित्य नहीं माना जा सकता , क्योंकि इसका सम्बन्ध ‘धार्मिक शान्ति’ से है। इस्लाम के धार्मिक ग्रंथों में इस प्रकार की जो बातें लिखी गयी हैं, वह कहना लोगों के बीच अभी शान्ति के लिए खतरा माना जाना चाहिए।
शिष्टता और सभ्यता की दृष्टि से स्ट्रासबर्ग की अदालत के इस निर्णय से यूरोप में धार्मिक आलोचना के दो अलग-अलग मापदंड स्थापित किये जा सकते हैं। एक तो यह कि कोई भी व्यक्ति मोहम्मद के अलावा अन्य किसी भी मृत व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ भी लिख-पढ़ या कह सकता है, कालान्तर में लोग इसका उपयोग/दुरूपयोग अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं। और यदि उनके घरेलू विषयों के सम्बन्ध में अपने को बचाते हुए कुछ कहना संभव न हो तब फिर कोई कारण नहीं कि लोग उनके कैरियर की अन्य बातों के सम्बन्ध में नकारात्मक बातें कहना शुरू कर दें। इस्लाम के सम्बन्ध में अभी जो कुछ कहा गया है, आलोचना की तो बात ही दूर उसे छोड़ भी दें तो ‘फ्री सोसायटी’ या वाक्स्वातन्त्र्य का अर्थ ही क्या रह जाता है।
तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस सन्दर्भ में बहुत-कुछ दांव पर है, विशेषकर स्वतन्त्र रूप से आलोचना की वह पूरी परम्परा जिसने यूरोप को वह बनाया है जो वह आज है। और भी बहुत-कुछ है जो इस सीधे-सादे प्रश्न के इर्द-गिर्द घूम रहा है। पुस्तकों में हम जो पढ़ते हैं, क्या हम स्वतन्त्रतापूर्वक कह सकते हैं। हम ईश-निंदा की अपने समय की इस नयी परिभाषा को मान कर अपने को बचाते रहें, पर यह निश्चय ही वाक्स्वातन्त्र्य की समाप्ति है यदि हम पेडोफेलिया के लिए मोहम्मद की आलोचना नहीं कर सकते। अब सातवीं सदी का एक अरब व्यक्ति यूरोपीय संघ को बतला रहा है कि उसे क्या करना चाहिए। हमें भगवान से प्रार्थना करना चाहिए कि स्थिति और भी खराब न हो, पर संभवतः वह होगी ही। सैकड़ों वर्ष बाद ईश-निंदा के पुराने नियमों की वापसी! क्या यूरोप अन्धकार युग की ओर लौट रहा है? एक विदेशी संस्कृति के आगे झुक रहा है?
मोहम्मद के यौनिक दृष्टि से बच्चों के प्रति रुझान की बात से सहमत न होते हुए भी यूरोपीय अदालत के निर्णय से सहमत होने का कोईकारण नजर नहीं आता। अदालत के इस निर्णय का क्या यह अर्थ लगाया जाए किलोगों के वाक्स्वातन्त्र्य और उससे होने वाली मुसलमानों की नाराजगी के बीच हमें संतुलन बनाए रखना चाहिए। यह समझ से बाहर की बात है कि किसी धर्म या आस्था के प्रति किसी व्यक्ति के विचारों का उस धर्म पर कोई प्रभाव पड़ सकता है। इस्लाम के प्रति उस महिला के अज्ञान से किसी मुसलमान को क्यों परेशान होना चाहिए। यूरोपीय अदालत का यह भी मानना था कि उस महिला की दृष्टि में मोहम्मद पूज्य नहीं है। पर यह तो मुसलमान लोग स्वयं मानते हैं। कुरआन में स्पष्ट कहा गया है कि पूज्य होने के लिए स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व रखने वाला एक मात्र अल्लाह या ईश्वर है।
यूरोपीय अदालत के इस निर्णय से कुछ दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं जिनकी ओर अभी किसी का ध्यान नहीं गया जान पड़ता है। यह निश्चय ही उन लोगों के लिए ख़ुशी का अवसर है जो इस्लाम की आलोचना करने वालों को अपराधी मान कर उन्हें दण्डित करना या दण्डित होना देखना चाहते हैं। यूरोपीय अदालत के इस निर्णय की तुलना – या यह महज संयोग ही है – पाकिस्तान की एक अदालत के इस निर्णय से करना चाहिए जिसने ईश-निंदा के अपराध से एक ईसाई महिला को बरी कर दिया है। यूरोपीय अदालत का निर्णय मुख्यतः इस बात की पुष्टि करता है और यह कहना गलत भी नहीं होगा कि यूरोप में रहने वाले मुसलमान अपने मजहब की आलोचना सुनना या उस पर किसी भी प्रकारके बौद्धिक विचार-विमर्श के लिए तैयार नहीं हैं। फिर भी एक बात निश्चित है। अदालत का यह निर्णय यूरोप के साथ ही उन बौद्धिक मुसलमानों के लिए भी बुरी खबर है, वस्तुतः उनकी स्थिति कमजोर करता है जो इस्लाम के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की बहस के लिये तैयार रहते हैं।
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