क्या भारतीयता एक खोया स्वप्न है
- शम्भुनाथ
क्या भारतीयता में अब कोई आकर्षण नहीं बचा है? क्या यह अन्धों का हाथी है? यदि देखा जाय, भारतीयता को एक कल्पित चिन्तन माना गया या इसे ‘हिन्दुकरण’ में सीमित कर दिया गया| कई बुद्धिजीवियों को यह गैर-जरूरी विषय लगा, उन्हें अन्तर्राष्ट्रीयतावाद ज्यादा आकर्षक नजर आया| भारतीयता क्या है, यह बताना ऐसे भी कठिन हो जाता है क्योंकि भारत कई धर्मों, कई जनजातियों, 36 राज्यों – केन्द्र-शासित क्षेत्रों और सैकड़ों भाषाओँ वाला देश है| भारतीयता की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा बनाना मुश्किल है| फिर भी इन दिनों सभी किस्म के धर्मनिरपेक्ष लोग इतना मानने लगे हैं कि भारत की आत्मा पर संकट है, घृणा की राजनीति ने आम लोगों के भारतबोध को काफी प्रभावित किया है और भारतीयता को हिन्दुत्ववादियों ने ‘हाईजैक’ कर लिया है|
कुछ भी हो, भारतीयता को लेकर इकहरा हिन्दुत्ववादी चिन्तन अधिक हुआ है और अपने नए अर्थ में यह वस्तुतः भारत के लोगों की मानसिकता का हिस्सा अभी तक नहीं बन पायी है| भारतीयता को योग, अध्यात्म, आयुर्वेद, शाकाहार जैसी चीजों से ज्यादा समझा गया, बल्कि इसे ‘अपरिवर्तनशीलता’ से जोड़कर भी रखा गया| कईयों को लगा कि यह गूंगे के गुड़ की तरह है जिसका स्वाद लिया जा सकता है लेकिन उसका बयान नहीं किया जा सकता|
भारत आपस में लड़ते-झगड़ते, लूट-खसोट से आतंकित और रक्त से लथपथ देश का बिम्ब लेकर इतिहास में बार-बार उपस्थित हुआ हो, लेकिन ऐसे ही देश में वेदान्त, गौतम बुद्ध, भक्ति आन्दोलन, नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन जैसी घटनाएँ भी हुई हैं| भारत के अतीत में बड़ा अँधेरा रहा है और सबकुछ महान-महान, हरा-हरा नहीं है, जैसा पुनरुत्थानवादी बताते हैं, लेकिन युद्धों और टकराहटों के बीच संवाद, अन्त:चित्रण, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, सहिष्णुता, भेद में अभेद और सहकार के बोध के उदाहरण भी कम नही हैं| बहते रक्त के उन अँधेरों में भी ऐसे कई थे जो प्रकाशस्तम्भ बनकर खड़े थे| वे भारत की धारणा रच रहे थे और भारतीयता में कई स्रोतों से बहुत कुछ जुड़ता चला आ रहा था| इसलिए भारतीयता के बारे में पहली बात यही है कि इसका सम्बन्ध ‘अपरिवर्तनशीलता’ से नहीं है और यह ‘बहुस्रोत परक’ है| निश्चय ही भारतीयता को निरन्तरताओं के बीच नावोन्मेषों के साथ समझना होगा|
‘महाभारत’ महाकाव्य में अनगिनत राज्यों, जातियों और समुदायों की चर्चा है| इसमें कोई ‘बाहरी’ नही है| कोई ‘विजातीय’ के रूप में नही देखा जाता| हम इतिहास में अशोक, हर्षवर्धन, अकबर और नेहरु जैसे सत्ताधारी व्यक्तियों को इस देश के निरंकुश सत्ताधारियों से इस अर्थ में अलग पाते हैं कि उन्होंने कभी अलगाववाद, कूपमण्डूकता और अन्ध-राष्ट्रवाद को नहीं उकसाया, जो स्वेच्छाचारी शासन के लिए जरूरी होता है| कबीर जैसे सन्त कवियों ने ‘जातिवाद’ और धार्मिक पाखण्ड का विरोध किया ही था, सूर ने भी कहा था, “जाति पाति हमले बड़ नाहीं”| तुलसी ने लिखा है, ‘भलि भारत भूमि’| उन्होंने भलि हिन्दू भूमि नहीं लिखा| इन सभी की भारत भूमि पर ईश्वर के सामने सभी बराबर हैं| इसमें सन्देह नहीं कि भारत में ज्ञान और प्रेम को सदा एक स्वर से महत्त्व इसलिए दिया गया कि धार्मिक कट्टरवाद इन दोनों की राह में रुकावट था और यह हर काल में रुकावट था|
धार्मिक कट्टरवाद जब भी उभरेगा, प्रेम की जगह घृणा और हिंसा फैलेगी, ज्ञान भी उजड़ जाएगा| फिर गणेश का हाथी का सिर प्लास्टिक सर्जरी माना जाएगा| ब्रम्हास्त्र को आधुनिक मिसाइल का प्रतिरूप सिद्ध किया जाएगा| गोबर और गौमूत्र पर वैज्ञानिक अनुसन्धान शुरू हो जायेंगे| प्रेम के उजड़ने का असर ज्ञान पर तथा ज्ञान के उजड़ने का असर प्रेम पर पड़ता है| इसलिए भारतीयता उस सिक्के की तरह है जिसका एक पहलु प्रेम है तो दूसरा ज्ञान- एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती|
समस्या यह पैदा हुई कि ज्यादा ऊँची शिक्षा, ज्यादा बड़ी डिग्रियाँ व्यक्तियों को लोकविमुख और आत्मकेन्द्रित करने लगीं| इसी का एक रूप अन्ध राष्ट्रवाद है| अब प्रेम और स्वार्थ परता में अन्तर नहीं रह गया है| हमने चिन्तन और समाजवैज्ञानिक खोजों के स्तर पर भी देखा है कि किस तरह ‘टोटलिटी’ की जगह ‘फ्रैग्मेंट्स’ को प्रधानता मिली| समग्रता यदि केन्द्रवाद का खतरा पैदा करती है तो खण्डित चिन्तन पृथकतावाद को उकसाता है| आज भारत एक साथ दोनों की चपेट में है| नयी शिक्षा ने ज्ञान नही फैलाया, घृणा का बाज़ार खड़ा कर दिया| इसने ‘दूसरे’ के बोध को ईंधन दिया| ज्ञान का अर्थ हो गया ‘हुनर’ ‘चालाकी’ और अज्ञान के निर्माण में कुशलता| इस वजह से भी भारतीयता की धारणा में दरारें आयीं और समुदाय-आधारित स्वार्थ पनपे|
भारतीयता को ‘हिन्दू राष्ट्रीयता’ में सीमित करना भारत को तो तोड़ने का अभियान है ही, यह हिन्दू धर्म को भी संकुचित करके वर्ण वर्चस्व और लैंगिक वर्चस्व के हवाले कर देना है| यह एक तरह से 19वीं सदी के नवजागरण की उपलब्धियों को मिटा देना है| भारत के इतिहास में ब्रिटिश साम्राज्यवाद ही सबसे बड़ी चुनौती के रूप में था| इससे टकराहट की प्रक्रिया में भारतीयता एक सांस्कृतिक यथार्थ से राजनीतिक यथार्थ में रूपान्तरित हुई| हिन्दू राष्ट्रीयता की लड़ाई साम्राज्यवाद से नहीं थी| इस पर सबसे अच्छी टिप्पणी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की है| ‘हिन्दू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम|’ (अँधेर नगरी) आज भी हिन्दू राष्ट्रवाद और डोनाल्ड ट्रम्प सहोदर-से लगते हैं, अब इंग्लैण्ड की जगह अमेरिका है| अँग्रेज शासक जब हिन्दुस्तान को आजाद छोड़कर जा रहे थे, वे भारत के ऐसे ही विद्वेष और हिंसा भरे दिनों का खान देखते हुए जा रहे थे|
भारत के लोग अतीत और पश्चिम दोनों के एक साथ कैदी होते गये हैं| भीतर कूपमण्डूकता – बाहर आधुनिकता| हम देख सकते हैं कि भारत जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद से अपनी स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहा था, तब लोग कुछ बिन्दु पर अतीत की खोज कर रहे थे तो कुछ बिन्दुओं पर उससे आजाद भी हो रहे थे| वे रूढ़ियों, पाखण्डों और भेदभाव से आजाद हो रहे थे, जबकि आज फिर इन चीजों से घिर रहे हैं| इसी तरह पश्चिम से रिश्ते को भी उस दौर में औपनिवेशिक आधुनिकता से बाहर निकल कर देखा जा रहा था| कुछ बिन्दुओं पर पश्चिम का अनुकरण तो कुछ बिन्दु पर उससे छुटकारा| आज देखें तो सिर्फ अन्धानुकरण है| इसलिए आज जो जितना अधिक राष्ट्रवादी है, वह उतना अधिक न सिर्फ अमानवीय बल्कि भारतीयता का शत्रु भी है|
मैथिलीशरण गुप्त और मुंशी अजमेरी का आपस में बड़ा प्रेम था| मुंशी जी मुसलमान थे और हिन्दू देवी-देवताओं के प्रति बड़ा आदर रखते थे| उनकी ईश्वरता देखकर एक बार हिन्दू संगठन वालों ने उन्हें कहा- ‘मुंशी जी, आप शुद्ध होकर हिन्दू हो जाएँ|’ मुंशी अजमेरी ने गहरे दर्द से पूछा, ‘ऐसा मुझमे अशुद्ध क्या है जो मैं शुद्धि करने जाऊं|’ ये वही अजमेरी हैं जिन्हें मैथिलीशरण गुप्त के विवाह के समय जन पंगत से बाहर रखा गया तो मैथिलीशरण गुप्त ने विद्रोह कर दिया; जब तक अजमेरी साथ नहीं बैठेंगे, मैं नहीं खाऊंगा| नाराज दुल्हे की बात सभी को रखनी पड़ी| वह एक समय था जब भावनात्मक एकता की आँधी थी| कट्टरवादियों का विरोध आँधी में पतंग उड़ाने की तरह था|
आज 21वीं सदी में धार्मिक ध्रुवीकरण की भयंकर साजिश चल रही है| इसका एक उदाहरण हाल में हुई दिल्ली की हिंसा है| हालांकि धर्मनिरपेक्ष भाव से पड़ोसी को बचाने, दुसरे धर्म के लोगों को विपत्ति में सहर देने, मन्दिरों-गुरुद्वारों में पीड़ितों की सेवा करने के भी अदाहरण हैं| मनुष्य मनुष्य को बचाएगा, यही सम्भावित है| दरअसल मानवता ही भारतीयता की मुख्य बुनियाद है| जो ‘हम-वे’ का भेद न करे और ‘दुसरे’ का कृत्रिम निर्माण न करे, वही सच्चा भारत भाग्य विधाता है|
भारतीयता एक ‘कम्पोजिट विजन’ है, एक मिश्रित अंतर्दृष्टि है| भारतीयता की मंजिलें मानवता की मंजिलें हैं| तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती भारतीय महाजातीयता की बात कर रहे थे, ‘कावेरी घाटी की पान की कोमल पत्तियों के बदले हम गंगा-यमुना के मैदानों का गेंहू बटोर लेंगे/ केरल के हाथीदाँत के उपहारों के साथ हम करेंगे अभिनन्दन पराक्रमी मराठों की शौर्यगाथा गाने वाले कवियों का/ करेंगे कुछ ऐसा उपाय कि बैठ कर सुन सकें वाराणसी के शास्त्रार्थों को/ अपने होठों से भारत देश नाम उच्चारो/ आओ, उतार फेकें हम भय और गरीबी को’ (भारत देश)| भारतीय महाजातीयता के बोध से जुड़ी एक जरूरी चीज़ है, ‘जब भी कहते हैं मधुर तमिल भूमि/हमारे कानों में आ गिरता है मीठा मधु|’ भारतीय महाजातीयता और स्थानीय जातीयता में कोई अन्तर्विरोध नही है| इसलिए भारतीयता को ‘महान परम्परा- लघु परम्परा’ या ‘मुख्यधारा-उपधारा’ के विभाजनों के साथ नहीं समझा जा सकता| भारतीयता वस्तुतः विश्वबोध, भारतबोध और स्थानीय जातीय चेतना का बौद्धिक त्रिभुज है| भारतीयता एक बड़े होते मन का बोध है| यह राष्ट्रीय खुलेपन और पुनर्निर्माण की माँग है|
आज भारत के लोग कब भारतीयता के उच्च लहरमग्न पर होते हैं और कब छिटक कर अपने धर्म, जाति या क्षेत्रीय जातीयता में घुसकर आक्रामक हो उठते हैं, यह देखने की चीज है| उनका यह आक्रामक हो उठना एक बौद्धिक परिसीमन घटित करता है| जब एक जगह से बौद्धिक परिसीमन शुरू हो जाता है तो यह प्रक्रिया आदमी को साम्प्रदायिक, जातिवादी, जातीय या जनजातीय या व्यक्तिवादी घृणा के किसी भी स्वरुप तक ले जा सकती है| सभी संकीर्णतावादी अन्तर्धाराएँ आपस में उठापटक खेलती साथ-साथ चलती हैं| विखण्डित भारतीय मनुष्य एक साथ कई बौद्धिक कैदखानों में अपना निजी स्वर्ग रचता रहता है और देश को नरक बनाता जाता है| भारतीयता अपना सम्पूर्ण सामाजिक आकार ग्रहण नहीं कर पाती| फलस्वरूप जातिवाद के विलोप, अन्तरजातीयता और धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया भी कमजोर हो जाती है| मजबूत होती है सिर्फ कबूतर के साथ कबूतर के उड़ने, तोते के साथ तोते के उड़ने और हाथी के साथ हाथी का झुण्ड बनने की प्रक्रिया| इस तरह आदमी पशु-पक्षी धर्म से बाहर निकल कर अपनी मनुष्यता हासिल नहीं कर पाता|
कहना न होगा कि भारतीयता को विरूपित करने के लिए वैश्विक पूँजीवादी ताकतों के अलावा घरेलू सामन्ती तत्वों की सदा से एक भूमिका रही है| उपनिवेशवाद में जो भी विभाजन, खाइयाँ और फूट पैदा कर दी थीं, वह बौद्धिक स्तर पर आज भी सफलतापूर्वक काम कर रही है| फलस्वरूप कोई बड़ा राष्ट्रीय जनविरोध या आन्दोलन बहुत कठिन हो चुका है और घृणा की राजनीति भी सत्ता तक पहुँचने का हथियार बनी हुई है| मुँह से लोकतन्त्र, बहुलता की रक्षा और शान्ति की नीति और करनी में हिंसा को अप्रत्यक्ष समर्थन-आज यही दृश्य हैं|
भारतीयता में बहुलता को मिटाकर जब भी केन्द्रवाद पनपेगा, यह देश के लिए घातक होगा| भारतीयता एक ऐसी बहुलतावादी धारणा है जिसमें विशिष्टता तथा अखण्डता के बीच अन्तर्विरोध नही है| आज हम कल्पना नही कर सकते कि देश में जो अन्तरधार्मिक या अन्तरजातीय परिवार हैं, इसके स्त्री-पुरुष अपनी उदारता में कितने बेगानेपन और बेचैनी का अनुभव कर रहे हैं| समुदाय से समाज में ढलने की आधुनिक प्रक्रिया उलट गयी है| अब समाज समुदायों में विभाजित होता जा रहा है और दीवारें मोटी होती जा रही हैं| यह भारतीयता पर उपस्थित सबसे बड़ा संकट है|
निराला ने कहा था, ‘जिस भारतीयता के गर्व से दूसरे तुच्छ जान पड़ते हैं, वह भारतीयता में कुछ रूढ़ियों से चलती हुई अभारतीयता है|’ उन्होंने भारतीयता के हिन्दुकरण का विरोध किया था| ‘विजातीय भावों के मिश्रण से ही संस्कार हो सकता है| यदि किसी सृष्टि को प्रगतिशील रखना है तो इसकी शक्ति बढ़ाने के लिए विजातीय भावों का समावेश करना अत्यन्त आवश्यक है|’ निराला भारतीयता को छुई-मुई नहीं समझते थे| वे उसके एक प्रमुख गुण खुलापन को महत्त्व देते थे|
भारतीयता कोई ऐसी अमूर्त चीज भी नहीं है कि यदि कोई इसे सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहे तो समझ नही सकता| सैकड़ों साल से भारत में उदार चिन्तन की इतनी परतें बनी है कि उन्हें देखने-समझने की जरूरत है| भारतीयता न शर्म की चीज़ है और न अहंकार की| सवाल है ’भूमण्डलीय’ और ‘स्थानीय’ की जुगलबंदी में भारतीयता क्या अब एक फटा ढोल है? अब धार्मिक दूरियाँ ही नहीं बढ़ी है, एक राज्य में दुसरे राज्य या दूसरी जातीयता के लोगों को अनुदार भाव से देखा जाता है| धार्मिक कट्टरवादियों ने हिन्दीत्तर राज्यों में हिन्दी भाषियों के प्रति अनुदारता बढ़ा दी है क्योंकि वे हिंदी का अर्थ हिन्दू केन्द्रवाद समझते हैं| हर तरफ ही एक न एक रूप में कठोर हृदयहीनता पनप रही है| मानवता अब घृणा के समुद्र में छोटे-छोटे द्वीपों की शक्ल में है| वर्तमान विपर्यय के दौर में सोचने की जरूरत है कि धार्मिक कट्टरता और मुक्त बाज़ार-व्यवस्था की विडम्बनाओं से टकराते हुए भारतीयता को क्या अर्थ दिया जाए और इसे किन नवोन्मेषों से जोड़ा जाए|
निश्चय ही भारतीयता अतीत की ‘फॉसिल’ नहीं है| हर युग ने नये ढंग से इसका बौद्धिक पुनर्सृजन किया है और इसे अतीत के प्रेतों से मुक्त किया है| यदि विश्व में भारत की यही पहचान बनती है तो निश्चय ही यह भारतीयता को खोकर सम्भव नही है|
लेखक प्रसिद्द आलोचक, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता के निदेशक तथा ‘वागर्थ’ पत्रिका के सम्पादक हैं|
सम्पर्क +919007757887, shambhunath@gmail.com
.