शिक्षा

भारत में तकनीकी शिक्षा की पड़ताल

 

आज जब आई.आई.टी. से निकले इंजीनियरों को लेने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लाइन लगा कर खड़ी रहती हों, विश्व में भारतीय इंजीनियरों का डंका बज रहा हो, तब यह कहना कि अधिकांश भारतीय इंजीनियर दोयम दर्जे के ही हैं अटपटा लगेगा और ऐसी कोई भी बात पचाना मुश्किल होगा। लेकिन यह सही है कि आई.आई.टी. एवं अन्य भारतीय कॉलेजों से निकले 80% इंजीनियरों में व्यावहारिक ज्ञान तो होता नहीं, उसे मेक-अप करने वाली तकनीकी अभिरुचि का भी अभाव होता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसी हालत में यहाँ इतने कारखाने कैसे चल रहे हैं, भारत इतनी औद्योगिक प्रगति कैसे कर रहा है।

वास्तव में इन कारखानों को चलाने में वहाँ काम कर रहे अनुभवी कुशल कामगारों का अधिक हाथ होता है, वे पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम करते-करते दक्ष हो जाते हैं, इन्हीं में से कुछ के अन्दर जन्मजात तकनीकी अभिरुचि होती है और वे किसी भी प्रकार की तकनीकी समस्या पैदा होने पर उसका समाधान निकालकर सबको चकित कर देते हैं। अधिकांश इंजीनियर तकनीकी अभिरुचि के अभाव में सिर्फ वहाँ के मैनेजर, जनरल मैनेजर और चीफ जनरल मैनेजर बन कर ही जीवन गुजार देते हैं, इसे ही अपनी उपलब्धि मान कर खुश हो जाते हैं, कभी महसूस ही नहीं कर पाते कि अपनी अभिरुचि के क्षेत्र में जाकर वे आकाश छू सकते थे।

हम भारतीय लोग गणित में उस्ताद होते हैं, यही कारण है कि जैसे ही दुनिया में कंप्यूटर के लिये सॉफ्टवेयर विकसित करने का काम शुरू हुआ, भारतीयों ने सभी के कान काटने शुरू कर दिये। अमेरिका की सिलिकॉन वैली पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। आई.आई.टी. से निकले स्नातक जीनियस होने के कारण या तो आई.ए.एस. की प्रतियोगिताओं में सफल हो जाते हैं, या शीर्ष मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रवेश पा जाते हैं, या फिर उन्हें सॉफ्टवेयर कंपनियाँ ले लेती हैं, भले ही वे किसी भी ब्रांच के हों। यही कारण है कि पूरी दुनिया में भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का ही बोलबाला है, लेकिन कंप्यूटर के हार्डवेयर बनाने में हम आज भी फिसड्डी ही हैं।

मेकैनिकल, इलेक्ट्रिकल, सिविल, माइनिंग, केमिकल, मेटलर्जिकल या अन्य किसी भी ब्रांच के इजीनियर हों, सब कंप्यूटर सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन कर ही अपना नाम कमा रहे हैं। यही कारण है कि आज भी कंप्यूटर के जटिल पुर्जे हम बाहर से ही आयात करते हैं और यहाँ सिर्फ उनकी असेंबली होती है। कारखानों में विभिन्न सामग्रियों के उत्पादन के लिये आधुनिकतम मशीनें बाहर से ही आयात होती हैं, बाद में भले ही उनकी नकल करके यहाँ बना लें। ये नकल करने वाले भी ऐसे लोग होते हैं जो कभी इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं गये, लेकिन अपनी जन्मजात तकनीकी अभिरुचि के कारण ही ऐसे काम आसानी से कर लेते हैं। कल्पना कीजिए कि यदि इन्हें उचित तकनीकी शिक्षा मिली होती तो ये क्या गुल खिलाते।

बचपन से ही माता-पिता बच्चों के मन में भर देते हैं कि इंजीनियर बनने में ही फायदा है, बस फिर और कुछ सोचने की जरूरत ही क्या। जीनियस होने के कारण ये जिस क्षेत्र में भी जाएँगे औसत से काफी अच्छा ही करेंगे। यदि इनमें तकनीकी अभिरुचि की जाँच की जाए, तो अधिकांश शुरू में ही छंट जाएँगे। अफसोस तो यह है कि तथाकथित आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षाओं में भी तकनीकी अभिरुचि की कोई जाँच नहीं की जाती। बस उपरोक्त तीन विषयों की ही परीक्षा ली जाती है, इसमें भी जीनियस लोग ही आगे आ जाते हैं। टॉप क्लास इंजीनियर बनने के लिये इन विषयों में जीनियस होने की जरूरत नहीं।

जिनके अन्दर तकनीकी अभिरुचि है और इन तीन विषयों में औसत से ऊपर हैं लेकिन जीनियस नहीं हैं, वे इन प्रवेश परीक्षाओं में छँट जाते हैं। जरा गौर करें, यदि इन जीनियस लोगों को उनकी रुचि के क्षेत्र में डाला जाता, तो ये अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया को चमत्कृत कर देते, इनमें से ही न्यूटन या आईन्स्टीन या रामानुजम निकलते। लेकिन वे अपने लिए सुरक्षित कैरियर की लालच में अनेक ऐसे लोगों का चांस खराब कर देते हैं जिन्हें अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिल जाता तो वे भी अपनी तकनीकी प्रतिभा से पूरी दुनिया को हिला देते।

पूरे समाज में ही यह भ्रांति है कि केवल इंजीनियरिंग और मेडिकल कैरियर ही सुरक्षित और संपन्न भविष्य देते हैं, अधिकांश अभिभावक इसी गलतफहमी में अपने बच्चों की रुचि पर ध्यान दिये बिना उन्हें सुरक्षित कैरियर की ओर ढकेल देते हैं और देश वंचित रह जाता है अनेक संभावित टैगोरों, भाभाओं, एम एफ हुसैनों, रविशंकरों आदि-आदि से। दूसरा नुकसान होता है, सैकड़ों संभावित विश्वेश्वरय्या टॉप इंजीनियर बनने की जगह क्लर्क, स्कूल टीचर, मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, फिटर, केमिस्ट आदि के रूप में ही जिन्दगी गुजारने को मजबूर कर दिये जाते हैं, क्योंकि इंजीनियरिंग कॉलेजों की जिन सीटों पर उनका हक बनता था, उन्हें हथिया लेते हैं कुछ दिग्भ्रमित जीनियस। हाल के वर्षों में यह भ्रांति कुछ टूटी है, हो सकता है कि हालत में सुधार हो।

इंजीनियरिंग कॉलेजों में शुरू से ही पढ़ाई का गलत तरीका अपनाया गया, आज जो शिक्षक हैं वे भी इसी पद्धति की देन हैं, उनसे सुधार की उम्मीद करना बेकार है। ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग पढ़ाने वाला शिक्षक अपनी स्कूटर या कार में आई साधारण खराबी को ठीक नहीं कर सकता, एयरकंडीशनिंग पढ़ाने वाला शिक्षक अपना फ्रिज ठीक नहीं कर सकता, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पढ़ाने वाला शिक्षक अपने घर की वायरिंग नहीं कर सकता। इन शिक्षकों से पढ़ने वाले छात्रों का व्यावहारिक ज्ञान कितना होगा इसे बताने की जरूरत नहीं।

लैब में कुछ रटे-रटाये प्रैक्टिकल करा दिये, मौखिक परीक्षा में कुछ स्टैंडर्ड प्रश्न पूछ कर अच्छे अंक दे दिये, काम हो गया। छात्र वर्कशॉप में गये, कुछ काम करने की कोशिश भी की, ठीक से हुआ नहीं, धैर्य खो दिया, कुछ पैसे देकर इंसट्रक्टर को पटा लिया, काम हो गया, नंबर भी अच्छे मिल गये। लेकिन व्यावहारिक ज्ञान शून्य ही रह गया। रुचि थी नहीं, मन कैसे लगता, बस जान छुड़ा ली। शिक्षकों ने भी टाल दिया, उन्हें खुद भी न तो आता है, न रुचि ही है। बस पुराने जमाने से ऐसे ही चलता आ रहा है। ये शिक्षक किताबें पढ़कर आ जाते हैं, लेक्चर में सब उगल देते हैं, टेक्नोलॉजी सिर्फ साइंस बनकर रह जाती है। व्यावहारिक ज्ञान के लिये छात्रों को दो तीन बार 30-40 दिनों की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिये कारखानों में भी रहने का प्रावधान है, वे जाते हैं, वापस लौटकर मोटी-मोटी रिपोर्ट भी जमा करते हैं, अच्छे नंबर भी मिल जाते हैं, लेकिन यहाँ भी वही डंडी मारने वाला काम हो जाता है।

जिन कारखानों में इनकी ट्रेनिंग निश्चित की जाती है वहाँ के अफसरों को इन्हें ट्रेनिंग देने की कोई जिम्मेदारी और रुचि नहीं होती। दिन-रात अधिक काम का रोना रोने वाले ये अफसर इन्हें अपने लिये बवाल ही मानते हैं। इन प्रशिक्षणार्थियों के नाम लिख लिये जाते हैं, उन्हें अलग-अलग प्लांटों में कितने-कितने दिन बिताने हैं उसकी सूची थमा दी जाती है, बस उसके बाद उनकी खोज खबर लेनेवाला कोई नहीं होता। न तो इन प्रशिक्षणार्थियों को कोई काम दिया जाता है और न ही इन्हें कोई कुछ सिखाता और दिखाता ही है, ये अपने आप जो कुछ सीखें-देखें। जब ये कामगारों से बातें करते हैं तो वे सिर्फ अपने अफसरों की नाकाबिलियत की ही चर्चा करने में रस लेंगे, या फिर अपने कम वेतन एवं सुविधाओं का ही रोना रोते रहेंगे। अफसरों के पास तो वैसे भी वक्त नहीं होता, सुबह मीटिंग, दोपहर मीटिंग, शाम में मीटिंग। ट्रेनिंग की अवधि समाप्त होते ही ये प्रशिक्षणार्थी सर्टिफिकेट लेकर अपनी राह लेते हैं। कॉलेज में ट्रेनिंग की मोटी रिपोर्ट जमा करके ही खुश हो जाते हैं। सिर्फ इक्के-दुक्के कारखानों में ही उचित प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार अच्छे इंजीनियर बनाने का एक अच्छा अवसर हम खो देते हैं।

हमारे देश में तकनीकी शिक्षा आई.टी.आई., पॉलिटेक्निक और इंजीनियरिंग कॉलेजों के तीन स्तरों पर दी जाती है, दसवीं के बाद आई.टी.आई. में प्रवेश मिलता है जहाँ मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, फिटर, मशीन ऑपरेटर, वेल्डर, कारपेंटरी, ब्लैकस्मिथी, फोर्जिंग, फाउन्डरी, इलेक्ट्रोप्लेटिंग आदि विभिन्न ट्रेडों में से एक की जानकारी दी जाती है। लेकिन इन संस्थानों का बुरा हाल है, राज्य सरकारों पर निर्भर होने के कारण फंड के अभाव में, नाकाबिल प्रबन्धन के कारण एवं भ्रष्टाचार की वजह से इनमें से अधिकांश संस्थानों से निकले व्यक्तियों को उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पाता और उन्हें नौकरी के लिये बहुत कम कारखानों से ही ऑफर मिलता है।

दूसरे स्तर पर पॉलिटेक्निक हैं जिनका उद्देश्य है सुपरवाइजर, ओवरसियर, या फोरमैन स्तर का तकनीकी ज्ञान कराना, सामान्य तौर पर औसत छात्र जिन्हें इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल पाता, आर्थिक रूप से कुछ कमजोर होते हैं वे यहाँ प्रवेश लेते हैं। आई.टी.आई. की तरह इनका भी बुरा हाल है, यहाँ से प्रशिक्षित होकर निकले छात्रों की भी नौकरी के बाजार में बहुत कम प्रतिष्ठा होती है। बस उनके हाथों में इंजीनियरिंग डिप्लोमा होता है और अधिकांश बेरोजगार ही रह जाते हैं।

सबसे ऊपर तीसरे स्तर पर इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनकी दोषपूर्ण प्रवेश पद्धति, त्रुटिपूर्ण पाठ्यक्रम एवं कामचलाऊ स्तर के शिक्षकों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। इंजीनियरिंग कॉलेज भी कई स्तरों के हैं, प्रतिष्ठा के अनुसार सबसे ऊपर पांच आई.आई.टी., पिलानी, उसके बाद कुछ एन.आई.टी., बाद में बने आई.आई.टी., बी.आई.टी., वेल्लोर, मनिपाल और बाद में नये बने इंजीनियरिंग कॉलेज आदि और फिर बाकी सब। इधर हाल के वर्षों में तो सैकड़ों की तादाद में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज उग आये, जिन्होंने भ्रमित अभिभावकों और छात्रों का जमकर दोहन किया। जिन्हें उपरोक्त कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिल पाता, वे यहाँ प्रवेश ले लेते हैं, शायद 10% कॉलेज ही मान्य स्तर तक पहुँचेंगे, बाकी में न तो स्तरीय फैकल्टी है और न वर्कशॉप और लैब ही ठीक हैं। यदि हमें टेक्नोलॉजी में वास्तविक तरक्की करनी है, तो तीनों स्तरों पर सुधार की तत्काल आवश्यकता है।

आज़ हमारे यहाँ सरकारी संस्थानों में इंजीनियरों का काम रह गया है सिर्फ आकलन तैयार करना, खूब कमीशन लेकर काम ठेकेदारों को देना, फिर और अधिक कमीशन लेकर बिल पास करना। हर स्तर पर सिर्फ हस्ताक्षर करना और कमीशन बटोरना। साइट पर आये, तो सिर्फ अपना सतही तकनीकी ज्ञान बघार दिया, घेर कर खड़े जूनियर इंजीनियरों ने चमचेबाजी में वाह-वाह कर दी, बड़े साहब की बल्ले-बल्ले हो गयी।

अब तो एल एंड टी जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ सड़कों, पुलों, फ्लाईओवरों और गगनचुम्बी इमारतों के निर्माण का काम ले रही हैं, उनके पास अच्छे इंजीनियरों का प्रतिशत अधिक है, जो कमी होती है उसे विदेशी कंपनियों से तकनीकी साझेदारी करके पूरी कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में उपरोक्त सरकारी इंजीनियरों का तकनीकी दायित्व और भी कम हो जाता है, रोब जरूर बढ़ जाता है। बन जाते हैं चीफ इंजीनियर, बातें बड़ी-बड़ी करेंगे, लेकिन वास्तविक तकनीकी ज्ञान करीब-करीब शून्य। तकनीकी ज्ञान के अभाव में इनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी होती है, उन्नत तकनीकी का ज्ञान तो शून्य ही होता है, ऐसी हालत में ये प्रगतिशील और उपयोगी सुझावों को समझ नहीं पाते और अति आवश्यक निर्णयों को भी टालते रहते हैं।

नुकसान देश का होता है। प्राइवेट कारखानों में भी यही रोग गहराई तक है, मालिक तकनीकी निर्णयों के लिए अपने इंजीनियरों पर निर्भर करते हैं और वे टालते रहते हैं या फिर किसी भी परिवर्तन से इंकार कर देते हैं, भले ही उस परिवर्तन से अधिक लाभ की संभावना हो। सरकारी विभाग हों या कारखाने, या बड़े-बड़े प्रतिष्ठान, हर जगह पर जूनियर इंजीनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक हर कोई निर्णय का दायित्व लेने से घबराता रहता है, टालता रहता है, ऐसे 80% लोगों के बीच काम करते हुए 20% काबिल इंजीनियरों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। सारा काम ये करते हैं, साहसिक निर्णय ये लेते हैं, मेहनत करके उसे सफल ये बनाते हैं, लेकिन सारा लाभ और प्रशंसा चमचेबाज ले उड़ते हैं। धीरे-धीरे इनका भी जोश ठंढा हो जाता है। नुकसान फिर देश का ही होता है।

हमारे देश में प्रतिभाओं का अथाह भंडार है, और उसके बल पर हम पूरी दुनिया में शीर्ष पर पहुँच सकते हैं, बस जरूरत है इस दोषपूर्ण व्यवस्था में तत्काल सुधार की। हमें पहला कदम उठाना चाहिए इंजीनियरिंग शिक्षा को हर स्तर पर सुधारने और कारगर बनाने का। जब देश का राष्ट्रपति एक वैज्ञानिक को बनाया जा सकता है और वे सफल भी हो सकते हैं तो पहला काम होना चाहिये अनुसंधान में रुचि लेनेवाले वैज्ञानिकों के जीवन को अधिक सुविधापूर्ण एवं प्रतिष्ठित बनाने का, उन्हें लोकप्रिय बनाने का, ताकि जो छात्र विज्ञान में जीनियस हैं, लेकिन जिन्हें तकनीकी अभिरुचि नहीं, वे इंजीनियरिंग कैरियर से आकर्षित होकर इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश की कोशिश न करें और विज्ञान को ही अपना कैरियर बनाएँ। उनके लिए खूब अच्छे वेतनमान की प्रतिष्ठित नौकरी सुरक्षित हो।

 इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं में तकनीकी अभिरुचि जाँचने को प्राथमिकता दी जाए, तरीका निकालना आसान नहीं होगा, लेकिन कोशिश शुरू होनी चाहिए। इंजीनियरिंग कॉलेजों के सिलेबस में तुरंत बदलाव लाकर प्रैक्टिकल इंजीनियर बनाने पर जोर होना चाहिए। इंजीनियरिंग कोर्स पाँच सालों का कर दिया जाए, पहले वर्ष की पढ़ाई में सिर्फ हाथ से किये जाने वाले तकनीकी काम सिखाने पर जोर दिया जाये-जैसे मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, फिटर, मशीन ऑपरेटर, वेल्डर, कारपेंटरी, ब्लैकस्मिथी, फोर्जिंग, फाउन्डरी, इलेक्ट्रोप्लेटिंग आदि विभिन्न ट्रेडों में उन्हें पारंगत किया जाये। रोजमर्रे में इस्तेमाल किये जाने वाले यंत्रों में सुधार सोचने के लिये प्रेरित किया जाये, जिनके अन्दर अभिरुचि नहीं होगी, वे भाग खड़े होंगे, इंजीनियरिंग क्षेत्र को उनकी जरूरत भी नहीं, सिर्फ बोझ बढ़ाने से क्या फायदा? कारखानों में महीने दो महीने की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के दौरान इन्हें वास्तविक ट्रेनिंग दी जाये, सिर्फ खानापूरी न की जाये, इनसे काम लिया जाये।

पहले इन छात्रों को इंडस्ट्रियल टूर पर ले जाकर इन्हें संबन्धित कारखाने दिखाए जाते थे, इसे भी ठीक तरीके से करने की जरूरत है। सुधार के ढेरों उपाय निकल सकते हैं, बशर्ते कि सुधार की जरूरत महसूस की जाये। अभी तो हमें गलतफहमी है कि हमारे इंजीनियर टॉप क्लास हैं। पहली जरूरत है इस गलतफहमी को दूर करने की, उसके बाद सुधारों के लिये विचारमंथन की। पूरी प्रक्रिया में वर्तमान इंजीनियरिंग शिक्षक हर जगह अड़ंगे लगाएँगे क्योंकि नयी व्यवस्था में उन्हें पूरी परेशानी होगी, हो सकता है कि वे मिसफिट होकर बाहर ही हो जाएँ। नवनिर्माण के लिये कुछ तो खोना ही पड़ता है

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प्रभाकर अग्रवाल

लेखक इंजीनियर, उद्यमी और प्रतिष्ठित शिक्षाविद हैं। सम्पर्क +919431177036, prabhakars.ranchi@gmail.com
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