भाषाई जनतन्त्र का आग्रह
भारतीय भाषाओं को लेकर कई मसले हमेशा जीवन्त रहते हैं। इसके दो महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। एक तो अँग्रेजी का ‘अलौकिक साम्राज्य’ और दूसरा भारतीय भाषाओं के बीच संवाद। औपनिवेशिक काल में जिस ‘ब्राऊन साहिब’ (वारिंद्र तरज़ी विट्टाची की पुस्तक का यह शीर्षक है जिसमें इस नाम से उन्हें सम्बोधित किया गया है जो स्वतन्त्रता के बाद भी भारत में अँग्रेजों जैसा जीवन यापन करते हैं) का वर्चस्व भारत में काबिज हुआ उसे अब तक इतना स्वाभाविक मान लिया गया है कि आम लोगों के लिए प्रक्रिया को समझ पाना भी मुश्किल है। अँग्रेजी का यह साम्राज्य स्वतन्त्रता के बाद भी लगातार मजबूत होता चला गया। भाषा को ठीक से समझने के लिए सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व से उसके सम्बन्ध को समझना ज़रूरी है। स्कूली शिक्षा के मामले में भारत में लगभग 90% बच्चे ग़ैर हिन्दी भाषा में अपनी शिक्षा पाते हैं। लेकिन उनमें से केवल कुछ ही प्रतिशत बच्चे ऊँची नौकरियों में जा पाते हैं। भारतीय समाज में अँग्रेजी शिक्षा सफलता की कुँजी मान ली गयी है। ऐसे में कुछ दलित चिन्तक यदि अँग्रेजी को माता कहते हैं तो ग़लत क्या है? उनके लिए जाति प्रथा के द्वारा हरण कर ली गयी उनकी प्रतिष्ठा को वापस पाने की सीढ़ी केवल अँग्रेजी शिक्षा सकती है। लेकिन यह उनकी चाहत भर है। वास्तविकता उससे अलग है। दलित बच्चों के लिए अँग्रेजी शिक्षा की उपलब्धता आसान नहीं है।
संख्या बल के बावजूद हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों की तुलना में अँग्रेजी के लेखकों की आमदनी कई गुणा ज्यादा होती है। कई नामचीन प्रोफ़ेसरों का मानना है कि किसी संगोष्ठी में इस बात का महत्त्व ज़्यादा है कि आप कैसी अँग्रेजी बोल रहे हैं, आम तौर पर लोग ध्यान नहीं देते कि आपकी बातों में तथ्य और तर्क कितना है। इन संगोष्ठियों में अँग्रेजी को लेकर जो दंश उन्हें झेलना पड़ता है उसे कई बार लिखा जा चुका है। हाल ही में अमेरिका में कार्यरत एक प्रसिद्ध महिला भारतीय चिन्तक को लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में एक विवाद हुआ था। इस विवाद में औपनिवेशिक समाज के महान बुद्धिजीवियों में अँग्रेजी को लेकर जो कुंठा है वह सामने आ गयी। क्या हाशिये के लोग बोल सकते हैं? इस सवाल पर लिखे एक लेख ने इन्हें बहुत प्रसिद्धि दी थी। लेकिन इस सभा में एक दलित लड़के द्वारा किसी विदेशी विद्वान के नाम का उच्चारण शुद्ध नहीं कर पाने पर नाराज़ हो गईं और उस छात्र को अपमानित करने लगीं। उस छात्र ने जब उनसे अनुरोध किया कि उच्चारण की शुद्धता से आगे जा कर मुद्दे की बात की जाये तो और बिफर गईं। दरअसल इस वाकये से उनके महान बौद्धिक होने के दम्भ को झटका लगा था। कमोबेश भारत के अँग्रेजीदान बुद्धिजीवियों का यही हाल है। कहने को तो जनतन्त्र, मानवाधिकार और न जाने किन किन विषयों पर लिखते नहीं थकते, लेकिन भाषा के वर्चस्व को यथावत बनाये रखना चाहते हैं। राजनीति शास्त्र के बड़े विद्वान प्रोफेसर गोपाल गुरु कहते हैं कि इन बौद्धिक सभाओं में क्या कहा जा रहा है इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है कि अँग्रेजी का उच्चारण सही है या नहीं।
भाषा का वर्चस्व बनता कैसे है? पहला तो संरचनात्मक वर्चस्व है। स्वतन्त्रता के बाद भी भारत में अँग्रेजी ज्ञान की भाषा बनी हुई है। भारत ने ईरान की तरह दुनिया के ज्ञान को अपनी भाषा में लोगों तक पहुँचाने के बदले उसे अँग्रेजी के माध्यम से हासिल करने का निर्णय लिया। नतीजा हुआ कि आधुनिक ज्ञान तक कुछ चुने हुए लोगों की ही पहुँच बन पायी। ज्ञान का वर्गीय आधार तय हो गया। स्वतन्त्रता के बाद भी अँग्रेजी का यह वर्चस्व बढ़ता ही गया। इतना तो हुआ कि प्रारम्भिक दौर में शिक्षा के जो श्रेष्ठ केन्द्र बने उन तक पहुँचने के रास्ते खुले हुए थे। सैद्धान्तिक तौर पर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी अपनी क्षमता के अनुसार उसमें प्रवेश सम्भव था। इससे लोगों को अपनी सामाजिक स्थिति में बदलाव का एक मौक़ा मिला। उच्च शिक्षा में उच्च जातियों का जो वर्चस्व था, आरक्षण ने उसे चुनौती दी। लेकिन शिक्षा के निजीकरण ने गरीब और निम्न मध्य वर्ग के बच्चों की दुनिया फिर से बदहाल बना दी। अमीर और प्रभावशाली वर्ग के बच्चे महँगे विद्यालयों में जाने लगे और सरकारी शैक्षिक संस्थाओं की स्थिति ख़राब होने लगी। भारत के धनी वर्गों ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को अलग कर लिया और उससे निकले छात्रों को ही यहाँ की सता और समृद्धि में बड़ी हिस्सेदारी मिलने लगी। स्वभावतः अँग्रेजी उनकी मातृभाषा जैसी हो गयी और धीरे-धीरे समाज में भाषा की खाई और बढ़ने लगी।
पिछले कुछ दशकों में इस बढ़ती खाई के कई दुष्परिणाम हुए हैं। एक तो नयी पीढ़ी में अच्छी अँग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण अपमान बोध और बढ़ता जा रहा है। ग़ैर अँग्रेजी भाषी छात्रों में स्वतन्त्रता के बाद के दशकों में जो स्वाभिमान हुआ करता था धीरे-धीरे समाप्त हो गया। उनका आर्थिक और जातीय पिछड़ापन भाषाई विभेद के साथ मिलकर और भी गहरा अपमान बोध करवाने में सक्षम हो गया। निजी क्षेत्रों के रोज़गारों में बिना अँग्रेजी के नौकरियों का मिलना लगभग मुश्किल है। निजी क्षेत्रों के विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी एक ख़ास तरह के उच्चारण वाली अँग्रेजी का आना ज़रूरी है। सच तो यह है कि स्वतन्त्रता के कई दशकों के बाद अँग्रेजी का महत्त्व घटने के बदले बढ़ा है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। आख़िर अँग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण हुई है। कम्प्यूटर और आर्टिफिकल इंटेलिजेंस के जमाने में इस भाषा का महत्त्व बढ़ना स्वाभाविक ही है। इस भाषा का महत्त्व तो चीन और अन्य यूरोपीय देशों में भी बढ़ा है। समस्या उसके बढ़ते महत्त्व से नहीं है। समस्या अँग्रेजी से उत्पन्न मानसिक कुंठा से है। आश्चर्य की बात है कि भारतीय युवा बहुत जल्दी किसी भी और भाषा पर कम समय में ही अधिकार कर लेते हैं। लेकिन कई वर्षों तक अँग्रेजी पढ़ने के बावजूद अँग्रेजीयत की कुंठा से मुक्त नहीं हो पाते हैं। एक बार मुझे कुछ युवाओं को चीनी भाषा में पर्यटकों के साथ द्विभाषीये का काम करते देख आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा उन्होंने कहीं औपचारिक रूप से भाषा को सीखा होगा। मैं जान कर हैरान था कि यह उनका निजी अभ्यास था, उसमें उनकी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी।
भाषा और वर्गीय शक्ति के साथ के सम्बन्ध को समझ लेना ज़रूरी है। अँग्रेजी भारत में केवल भाषा नहीं है बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा, शक्ति और जीवन यापन के साधनों को प्राप्त करने का माध्यम है। इससे किसी को कोई एतराज नहीं होता। समस्या तब होती है जब अपनी भाषा को जानना ही अपराध हो जाए, उससे हीनता की भावना हो। कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुदिप्त कविराज हमारा ध्यान इस और दिलाते हैं कि भारत अकेला ऐसा देश है जिसमें लोग अपनी भाषा को जानने के कारण अपमानित होते हैं। भारत के ज़्यादातर शहरी विद्यालयों के छात्र अपनी ख़राब हिन्दी से गर्वान्वित होते हैं। मैंने कई छात्रों को ‘मेरी तो हिन्दी हो गयी’ मिट्टी पलीत होने के अर्थ में मुहावरे की तरह उपयोग करते सुना है।
इस अपमान बोध का नतीजा क्या है? आज जब हम उत्साह के साथ कहते हैं कि भारत को युवा जनसंख्या का देश होने का गर्व है तो हम भूल जाते हैं कि उनमें से ज़्यादातर युवा कुंठाग्रस्त है, अपमानित और बेरोज़गार है। अँग्रेजी नहीं जानना इन सबका बड़ा कारण है। अपनी भाषा में सोचने समझने को त्याग देने के कारण उनकी रचनात्मक और नवीन ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उनकी रचनात्मकता का कोई राष्ट्रीय उपयोग नहीं हो पाता है। भाषा का वर्चस्व एक तरह की असमानता की एक ऐसी संरचना का निर्माण करता है जिसे तोड़ना सैद्धान्तिक रूप से जितना सरल दिखता है व्यावहारिक रूप से वह उतना ही कठिन है। उनका एक दूसरा संसार बनता है जिसमें निराशा और भय है।
अँग्रेजी से सम्बन्धित एक और बात को स्पष्ट समझ लेना चाहिए। जब भी इस भाषा के वर्चस्व की बात होती है दो सवाल उठाये जाते हैं। एक तो कहा जाता है कि भारत में कोई और लिंक भाषा नहीं है। यह बात सही भी है। देश और विदेश की भाषाओं के बीच अँग्रेजी लिंक का काम करती है। और यह हमारे देश के लिए एक बेहतर स्थिति है कि आसानी से यह लिंक भाषा हमें उपलब्ध है। लेकिन सवाल केवल लिंक भाषा का नहीं है, बल्कि सवाल उसके वर्चस्व और दबदबे का है। भारत की सामाजिक और आर्थिक सम्पदाओं पर भाषा के कारण कुछ लोगों के अधिकार है। हिन्दी हो या अँग्रेजी भाषा के कारण सामाजिक असमानता पर अंकुश लगाना ज़रूरी है। दूसरा सवाल भाषा और अस्मिता के सम्बन्धों का है। शायद अँग्रेजी के ख़िलाफ़ उठने वाला सबसे मुखर स्वर हिन्दी जगत का होता है इसलिए इस सवाल को हिन्दी भाषी अस्मिता से जोड़ दिया जाता है। भाषा ज्ञान के सृजन और सम्प्रेषण का माध्यम है उसका सम्बन्ध अस्मिता से जोड़ना बिलकुल सही नहीं है। हर भाषा में हुए ज्ञान सृजन को महत्त्व दिया जाना चाहिए। भाषा जीवन्त तभी हो सकती है जब उसमें नवीन ज्ञान सृजन की प्रक्रिया चलती रहे और यह ज्ञान दुनिया भर की दूसरी भाषाओं तक भी पहुँचती रहे। किसी भाषा में नवीन ज्ञान सृजन तभी सम्भव है जब उसका पूरा सम्मान हो। और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए हर समाज को अनुवाद पर यथेष्ट खर्च करने की ज़रूरत होगी।
इस सिलसिले में प्रोफ़ेसर अरविंद शर्मा ने एक महत्त्वपूर्ण बात उठाई है। भारत के ब्रिटिश हुकूमत के प्रारम्भिक दौर में जब शिक्षा पर बहस शुरू हुई तो राजा राम मोहन राय का विचार था कि भारतीयों को यूरोपीय ज्ञान से अवगत कराना ज़रूरी होगा। यह निर्णय तो सही था लेकिन इसके साथ ही यह विचार भी आया कि उनके ज्ञान को हम उनकी ही भाषा में सीखें। शायद यह सही विचार नहीं था। इसकी जगह यदि यह सोचा गया होता कि हम उनके ज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखें तो बात ही अलग होती। बाद के वर्षों में जब के. सी. भट्टाचार्य ने विचारों के स्वराज की बात की तो विदेशी भाषा में उनके ज्ञान को हासिल करने का संकट समझ में आने लगा। इसका नतीजा ठीक वही निकला जो मैकॉले सोचते थे कि रूप रंग और वेशभूषा में भले ही हम भारतीय रहे लेकिन हमारे सोचने क तरीक़ा अंग्रेजों की तरह हो। हम भारत के लोग सांकृतिक और वैचारिक पृष्ठभूमि से कटने लग गये। इसी का व्यापक रूप आज हम शहरी अँग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़े छात्रों में देख सकते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नायकों को इस बात का आभाष तो था लेकिन जिस मध्यम वर्ग ने स्वतन्त्रता के बाद सत्ता में दखल दिया उनकी समझ में यह बात नहीं आयी। इसका नतीजा आज हम भुगत रहे हैं।
बहुत से भारतीय चिन्तक जो लम्बे समय से विदेशों में पढ़ा रहे हैं उनमें से कइयों का मानना है कि भारतीय ज्ञान परम्परा को सम्मान तब तक मिलना सम्भव नहीं है जब तक हम अपनी भाषाओं में नवीन ज्ञान सृजन करने की क्षमता विकसित नहीं करते हैं। आज के दार्शनिक संकट को देखते हुए बहुत से विद्वानों का यह मानना तो है कि भारतीय ज्ञान परम्परा के पास बहुत कुछ है जिसकी ज़रूरत आज मानवता को है लेकिन उन्हें यह समझाना कठिन है कि इसके लिए इस विचार पद्धति को गतिमान करना ज़रूरी है और यह काम वही कर सकता है जो इस समाज के सामूहिक चेतना में रचा बसा है। इसके लिए उस भूमि का उर्वरक बनना ज़रूरी है जिसमें उसकी उपज अच्छी हो सकती है।
रचनाशीलता, चिन्तन और नवीन ज्ञान सृजन के लिए भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने की पहली शर्त है भाषा का जनतन्त्र। भाषा को अस्मिता की राजनीति से अलग कर ज्ञान के सृजन और सम्प्रेषण के माध्यम के रूप में समझना ज़रूरी है। राष्ट्रीय भाषा नीति में यह बात शामिल होनी चाहिए कि किसी एक भाषा को अत्यधिक महत्त्व नहीं दे कर उनके बीच एक सामंजस्य बनाया जाये। लेकिन जिस वर्ग को अँग्रेजी के कारण फ़ायदा मिलता है और उसके पास राजसत्ता है और राजनीति की दिशा भी वही तय करता है तो फिर इस बात में उसकी रुचि क्यों होगी। यही जनसंघर्ष की ज़रूरत है। भाषा के जनतन्त्र के लिए जनआन्दोलनों को आगे आना पड़ेगा। एक नीतिगत फ़ैसला लेना होगा कि चाहे जिस मुद्दे को लेकर आन्दोलन चल रहा हो उसके साथ ही भाषा के एक आयाम को भी जोड़ना होगा। विश्वविद्यालयों में भाषा के जनतन्त्र के लिए व्यापक आन्दोलन की ज़रूरत होगी। भाषा का जनतन्त्र विचारों के स्वराज के लिए ज़रूरी है, नवीन ज्ञान सृजन के लिए ज़रूरी है और हमारे ज्ञान से जनहित को जोड़ने के लिए ज़रूरी है।
इसे व्यापक आन्दोलन में परिवर्तन करने के लिए लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों को अपनी भाषाओं में लिखने का प्रण लेना होगा। यह काम आसान नहीं है। एक तो लम्बे समय तक अँग्रेजी में लिखने के कारण अपनी भाषा में उनकी गति कम हो गयी है। दूसरे, अँग्रेजी एक पारिभाषिक भाषा है। यह उसकी ख़ासियत भी है और कमजोरी भी। इसके चलते बहुत से तथ्यों को एक साथ जोड़ कर चलने की उसकी क्षमता कम हो जाती है। भारतीय भाषाओं में परिभाषा के बदले लक्षणों के वर्णन पर ज्यादा ज़ोर रहता है। इससे अर्थ विस्तार सम्भव हो पाता है। इसलिए भारतीय भाषाओं में लिखने के लिए पारिभाषिक आग्रह से बाहर निकलना पड़ेगा। तीसरा, ऐसा लगता है कि भारतीय भाषाओं के प्रकाशक आर्थिक रूप से कमजोर हैं और उनमें अँग्रेजी की तरह की व्यवसायिक कुशलता नहीं है। कई बार उनका व्यवहार छोटे दुकानदारों की तरह का होता है। इसके अलावा प्रकाशकों की शिकायत है कि उनकी किताबें बिकती नहीं हैं। पढ़ने वालों की संख्या में भारी कमी हुई है और उनकी क्रय शक्ति भी कम है।
कारण जो भी हो लेकिन अँग्रेजी में लिख कर नाम और धन कमाने वाले लेखकों से यदि भारतीय भाषाओं में लिखने का आग्रह करना हो तो कई और आयामों पर साथ-साथ काम करना होगा। स्वाध्याय के महत्त्व को जनआन्दोलनों का हिस्सा बनाना होगा। इस बारे में सांसद मनोज झा के एक सराहनीय काम का ज़िक्र करना सही होगा। उन्होंने न केवल सांसद निधि से पुस्तकालयों की सहायता का व्रत लिया है बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं से भी अनुरोध किया है कि अपने नेताओं से मिलने के समय यदि कुछ सौग़ात लाने का मन हो तो अपनी पसन्दीदा पुस्तक ही लायें। इसका प्रभाव देखा जा रहा है। पार्टी कार्यालयों में भी पुस्तकालय बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों से शायद भारतीय भाषाओं के पठन-पठान को जोड़ा जा सकता है।
कुल मिलाकर इतना ही आग्रह है कि भाषा के जनतन्त्र का प्रयास केवल सरकारी दायित्व नहीं होना चाहिए। यह हम सबका सामूहिक सामाजिक दायित्व है। यह राष्ट्रहित में है और यह मानवता के हित में भी है कि हम अपनी भाषाओं का सम्मान करें। उसे अस्मिता की राजनीति से न जोड़े और भाषाओं के बीच संवाद स्थापित करने के लिए अनुवाद का विस्तार करें। इसके लिए किए गये छोटे-छोटे प्रयासों का भी बहुत महत्त्व है। हो सकता है इसमें समय लगे लेकिन इन छोटे-छोटे प्रयासों को यदि कभी एक साथ मिलाया जा सके तो यह काम असम्भव नहीं होगा।