स्वतन्त्र होकर बोले नारी ‘मैं स्वतन्त्र हूँ’
देश और विश्व की आधी आबादी महिलाओं के सम्मान में विश्व महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है। अपने अपने कार्य क्षेत्र में प्रगति कर रहीं और उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करने वाली महिलाएं आज सम्मानित होती हैं। इस अवसर पर अनेक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। वस्तुतः महिलाओं का सम्मान समुन्नतव सभ्य समाज की पहचान है। किन्तु कहीं न कहीं नारी आज भी अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं करती है। देश प्रदेश में हो रही नारी विरोधी घटनाएँ नारी के प्रगति चक्र की गति में अवरोध उत्पन्न करती हैं।
नारी की स्वतन्त्रता को लेकर समाज और साहित्य जगत में काफी बहस हुए हैं और हो रहे हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् नारी जीवन में उसके व्यक्तित्व, अस्मिता और स्वातंत्र्य की दृष्टि से बदलाव अवश्य आया है। उसकी संघर्ष गाथा बहुत प्राचीन है। वैदिक काल से आज तक यानि 21 वीं सदी के इन दो दशकों तक नारी की यह संघर्ष यात्रा जारी है। वैदिक काल में वह देवी मानी गयी। “यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”। वैदिक साहित्य में नारी की स्वतन्त्रता और उसके अधिकारों का उल्लेख मिलता है। वह माता, पुत्री, भार्या, भगिनी आदि रूपों में वर्णित है। वह विदुषी और शास्त्रों में पारंगत थी।
वैदिकोत्तर काल तक आते आते वह देवी से पुरुष की सहधर्मिणी या सहगामिनी बन गयी। वह उच्च देवतुल्य पद से उतारकर समान स्तर पर आ बैठी। वैवाहिक व्यवस्था के कारण पुरुष प्रधान केन्द्रित युग हो जाने कारण भी क्रमशः उसकी स्थिति और जीवन में बदलाव हुए और समस्याएं भी उत्पन होने लगी थीं। पश्चात् उसके स्वातंत्र्य का सीमांकन भी निर्दिष्ट किया गया। नारी चाहे देवी रूपा हो या पवित्र सहधर्मिणी या शास्त्रार्थ में पंडिताइन, उसका अस्तित्व सुरक्षित रहा। वह स्वातंत्र्ययुक्ता और स्वयंवरा थी। रामायण और महाभारत काल में नारी का आदर्श रूप प्रस्तुत हुआ।
बौद्ध काल में नारी धर्म, शिक्षा और दर्शन के क्षेत्र में प्रवीण थी। गौतम बुद्ध भिक्षु जीवन की ओर प्रेरित होने का उपदेश देते थे। वे नारी को संघ में प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे। आनंद के आग्रह पर उन्होंने नारी को संघ में प्रवेश की अनुमति दी थी। बौद्ध धर्म की शाखाओं में विभक्त होना और अनेक विकृत सम्प्रदायों के प्रवेश के बाद नारी की दशा दयनीय बन गयी। इस प्रकार नारी वैदिक काल के उच्च देवी के प्रतिष्ठित रूप से धीरे धीरे युगीन परिस्थितियों और विडम्बनाओं के कारण घट कर अपनी अस्मिता और स्वातंत्र्य के लिए संघर्ष करती हुई उपस्थित हुई।
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हिंदी साहित्य के आदिकाल में केन्द्रीय सत्ता का अभाव और विदेशी आक्रमणों के समय नारी की दशा अच्छी नहीं थी। वह असुरक्षा भाव से जीवन बिताती थी। कभी वह युद्ध का कारण भी बनी हुई थी। तो नारी इस काल में स्वतन्त्र नहीं थी। वह मात्र वस्तु के रूप में मान्य रही। यही भावना आगे चलकर रीतिकाल में अतिशय श्रृंगारिकता में व्याप्त हुई। आधुनिक काल में ही द्विवेदी काल में और उसके बाद “नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पद तल में / पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में” कहकर प्रसाद ने और अन्य छायावादी कवियों ने नारी चेतना और उसकी स्वतन्त्रता के प्रति आवाज़ उठायी। प्रसाद की नारी (श्रद्धा – ‘कामायनी’ में) जीवन के अँधेरे को दूर कर प्रकाश-सम आशा का संचार करनेवाली हृदय का प्रतीक बनकर आई।
“जीवन निशीथ का अंधकार / भाग रहा क्षितिज के अंचल में तुम को निहार” नारी ने झाँसी लक्ष्मीबाई बनकर स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अपना योग दिया था। स्वतन्त्रता की प्रथम महिला सत्याग्रही श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने साहित्य के माध्यम से नारी जीवन से जुडी अनेक समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए नारी स्वातंत्र्य पर जोर दिया था।महादेवी ने उसके मन की सूक्ष्म भावनाओं का चित्रण अपनी कविताओं में किया। पन्त ने उसे मानवी कहा– “मुक्त करो नारी को मानव, चिर वन्दिनी नारी को। / युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखि प्यारी को।।” और प्रगतिवादी कवि ने नारी के इसी मानवी रूप की प्रतिष्ठा समाज में करने का प्रयास किया। छायावादोत्तर काल तो व्यक्ति की वैयक्तिक चेतना और व्यक्ति स्वातंत्र्य को महत्व देने वाला काव्य रहा है।
स्वातन्त्रता के पूर्व नारी जागरण के आन्दोलन हुए। समाज सुधारकों द्वारा विधवा विवाह, वेश्या विवाह और नारी शिक्षा पर आवाज़ उठायी गयी। उसके स्वातंत्र्य को लेकर समाज में जागरूकता उत्पन्न हुई। भारत की आधी आबादी यानि महिला का सशक्तिकरण स्वतन्त्रता के बाद ही हुआ। वह शिक्षा, प्रशासन, राजनीति, धर्म, अर्थ तन्त्र आदि सभी क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा के कारण अपनी उपस्थिति और महिला की प्रतिष्ठा दर्ज कराई। वह पूर्ण स्वतन्त्र है। अपनी स्वेच्छा से वह जी सकती है और जी भी रही है। सुचना प्रौद्यिगिकी के क्षेत्र में भी उसका महत्वपूर्ण योगदान है। पुरुष के समकक्ष उसकीकार्य प्रतिभा का प्रदर्शन आज प्रमाणित है। कल्पना चावला औरसुनीती विलियम्स ने अंतरिक्ष विज्ञान में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। विश्व मेंनारी राष्ट्रपति, प्रधान मन्त्री और राज्यपाल जैसे उच्च पदों पर विराजमान हुई है।
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वैश्वीकरण के दौर में वह बाजारवाद के कारण वाणिज्य जगत में बैंक आदि वित्तीय उपक्रमों को सफलता पूर्वक संभालती है। अनंत आकाश उसकी प्रतिभा की सीमा है। फिर भी, आजादी के सातवें दशक के बाद भी देश में नारी अत्याचार, बलात्कार, हिंसा, समाज में भेद भाव का शिकार बन रही है। स्वतन्त्र होते हुए भी महिला परिवार और समाज में कही न कहीं प्रतिबंधित है। अपनी आज़ादी का चाहकर भी पूर्ण उपयोग नहीं कर पाती है। पुरुष के समकक्ष या उससे आगे पहुँचने की क्षमता रखनेवली नारी अपने आप को बंधनों में जकड़ा हुआ अनुभव करती है। निर्भया काण्ड जैसे अनेक हादसे देश में हो रहे हैं। यद्यपि निर्भया के दोषियों को दण्ड मिला, पर कितनी ही महिलायें असहाय स्थिति में अपने आप को सामाज के सामने स्वतन्त्र होकर अन्याय – अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने से भयभीत हैं।
महिला परिवार की पोषिका भी बनती है। फिर भी परिवार उसे स्वतन्त्र होने नहीं देता जितना पुरुष होने के नाते लड़के को देता है। कहीं कहीं नारी अपनी स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करते हुए दिखाई देती है। स्वच्छन्द जीवन जीने या पाने के प्रयास में वह परिवार और समाज से कट जाती है। यह सच है कि पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव और औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् के परिणामों के कारण नारी मुक्ति, जागरण और चेतना का स्वर उभर आया है। वैश्वीकरण और बाजारवाद ने इस स्वर को और मुखर बनाया है। फिर भी पाश्चात्य रहन-सहन और शैली का अन्धानुकरण कर आज नारी लम्बी संघर्ष यात्रा के बाद प्राप्त आजादी का नकारात्मक उपयोग कर रही है।
आज नारी उच्च स्तर की लेखिका है। समाजविद और शिक्षाविद है। अपनी ही रचनाओं के माध्यम से महिला कथाकारनारी जीवन से जुडी समस्याओं पर प्रकाश डालती है। नारी स्वातंत्र्य पर अपनी लेखनी के माध्यम से आवाज़ उठाती है। प्रवासी लेखिकाओं के साहित्य में नारी के स्वातंत्र्य के साथ उसके उच्छृंखल जीवन शैली के समाज और परिवार पर पड़ते प्रभाव का भी चित्रण है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महिला वैदिक काल में और बाद भी गरिमामय स्थान पर प्रतिष्ठित रही। आज वह स्वतन्त्र है। सुषम बेदी, अचला शर्मा डॉ. हंसा दीप, दिव्या माथुर ,जकिया जुबैरी आदिने हिंदी साहित्य के प्रति अपनी सजगता का प्रमान दिया है। नारीअपने जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय वह स्वयं ले सकती है। वह परिवार की कर्ता धर्ता भी है। जहाँ कहीं उसकी स्थिति शोचनीय है, इसके लिए कुछ सीमा तक वह स्वयं उत्तरदाई है।।
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स्त्री – पुरुष दोनों समान हैं। परिवार की गाडी के ये दो पहिये हैं। नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर डॉ. जगदीश गुप्त ने “शांता” काव्य के माध्यम से नारी–पुरुष की समानता पर प्रकाश डाला है। उनकी शांता उपेक्षित नारी समाज का प्रतीक है। वह नारी पक्ष लेकर बोलती है “ कन्या होना पाप नहीं है / नारी जीवन अभिशाप नहीं है।” आधुनिक नारी के रूप में वह अपनी अस्मिता के प्रति सजग है। जीवन की होड़ में वह अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं कर सकती है। बस, नारी को उसके शरीर से इतर मन से स्वीकार करने की आवश्यकता है। रीतिकालीन भोग्या नहीं, वह शक्तिस्वरूपा योग्या है।
हमें मध्याकालीन नारी दृष्टिकोण से बाहर निकलना होगा। राजनीति में हाशिये पर खड़ी महिलाओं के आरक्षण विधेयक को सहमति प्रदान कर उनके उत्थान को सुनिश्चित करना होगा। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ को प्राथमिकता देकर आगे बढ़ाना होगा। स्वतन्त्र भारत में महिलाओं की आज़ादी सच्चे रूप में सुनिश्चित हो। स्वयं महिलाएं आश्वस्त हों कि देश सचमच स्वतन्त्र हुआ है। यहाँ वह निडर निर्भीक होकर अपना कार्य कर सकती है। देश की प्रगति में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसे समाज में वह खुलकर जीना चाहती है जहाँ उसपर कोई अत्याचार, अन्याय और हिंसा न हो। वह पुरुष से पीड़ित और समाज से प्रताड़ित न हो। जब नारी स्वतन्त्र होकर कह सकती है कि ‘वह स्वतन्त्र है’, तभी महिलाओं की आज़ादी पर स्वस्थ और सार्थक बहस होगी। विश्व महिला दिवस सार्थक होगा।