कविताघर

जो कहा जाए, वह कैसे कहा जाए

 

भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है- ‘यह तो हो सकता है’- जिसकी शुरुआती पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं- ‘यह तो हो सकता है कि / थक जाऊँ मैं पढ़ने-लिखने से / कवि की तरह दिखने से / अच्छा मानता हूं मैं किसी का भी / किसान या बुनकर दिखना।’

आगे वे कहते हैं कि अपने दुखड़े पर गीत लिखने से ज़्यादा अच्छा जमीन के टुकड़े पर फसलें लिखना है। कवि और कविता की इस भूमिका को लेकर कुछ सख्त लगती यह कविता लेकिन जहां खत्म होती है, वह जगह दूसरी है। यह दिल्ली आने का दुख है। कविता की आख़िरी पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं- ‘विनोबा कहते थे दिल्ली में बसना / स्वर्गवासी हो जाने का पर्याय है / और पूछते थे / क्यों भवानी बाबू / इस पर तुम्हारी क्या राय है?’

कविता भवानी बाबू की राय बताए बिना खत्म हो जाती है। इसे पढ़ते हुए कई खयाल आते हैं। कवि ने अचानक विनोबा भावे का जिक्र क्यों किया? और फिर जो प्रश्न उन्होंने पूछा, उसका उत्तर क्यों नहीं दिया? इसका बिल्कुल ठीक-ठीक जवाब तो शायद कवि ही दे सकते थे, हम बस कुछ अनुमान लगा सकते हैं- लेकिन किसी कविता के बारे में बाहर से अनुमान लगाने का कोई मतलब नहीं है, कविता के भीतर से ही उसे समझने की कोशिश करनी होगी। तो पहली बात तो यह कि कविता में विनोबा भावे का आगमन अचानक इस कविता को एक मार्मिक यथार्थपरकता दे डालता है- यह कवि के जीवन में सचमुच घटा एक प्रसंग, सचमुच आया एक प्रश्न है। इससे कविता कुछ तीक्ष्ण हो उठती है। लेकिन जवाब में जो चुप्पी है, सवाल पर कविता का जो अंत है, वह दरअसल इशारा करता है कि कवि का मौन भी इस प्रश्न का एक उत्तर है। दिल्ली में रहना स्वर्गवासी होने का पर्याय हो या नहीं, इसके अपने दुख हैं जो कवि की चुप्पी में मिलते हैं और उसके पहले की पंक्तियों में झलकते हैं। चाहें तो कह सकते हैं कि कविता यहीं खत्म नहीं होती- वह विनोबा भावे के प्रश्न और कवि की निरुत्तरता के बाद उस पाठक के भीतर भी यह प्रश्न या प्रतिप्रश्न पैदा करती है कि दिल्ली में रहने का अभिप्राय क्या है।

भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के ऐसे कवि हैं जो बेहद लोकप्रिय रहे हैं, जिन्होंने छंद का बहुत सधा हुआ और मौलिक इस्तेमाल किया है जिसकी कोई दूसरी नजीर नहीं मिलती (उसके बाद श्रीकांत वर्मा ही तुक और छंद का ऐसा दिलचस्प इस्तेमाल करते पाए जाते हैं)। उनकी कविता छंद से बंधी भी मिलती है और मुक्त भी। लेकिन भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं पर केंद्रित किसी गंभीर आलोचनात्मक उपक्रम की तत्काल याद नहीं आती। उनकी कविताएं पाठकों के बीच हैं, मगर आलोचना के परिदृश्य से बाहर हैं। संभवतः इसलिए कि शीतयुद्ध के वैचारिक संघर्ष की छाया में सातवें-आठवें दशकों की जो कविता और आलोचना पली-बढ़ी या विकसित हुई, उसमें या तो मार्क्सवादी होने की अहमियत मानी जाती रही या फिर मार्क्सवाद विरोधी होने का मोल माना जाता रहा। जबकि भवानी प्रसाद मिश्र ठेठ गांधीवादी रहे- बल्कि सख़्त गांधीवादी। उनमें देशज स्वाभिमान का भी एक अलग ठाठ रहा। इमरजेंसी के दौरान जब बहुत सारे लेखक-कवि अपनी खोल में छुप गए थे, तब भवानी प्रसाद मिश्र ने निश्चय किया था कि वे हर रोज सुबह-दोपहर-शाम इस आपातकाल के विरुद्ध कविता लिखेंगे। बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से छपा।

जिस कविता के उल्लेख से यह टिप्पणी शुरू हुई है, उसी में कविता की खेती-किसानी या बुनकरी से तुलना हुई है। इसके अलावा उनकी एक छोटी सी कविता है- ‘तुम नहीं समझोगे’।वे लिखते हैं- ‘तुम नहीं समझोगे केवल किया हुआ / इसलिए अपने किए पर / वाणी फेरता हूं / और लगता है मुझे / उस पर लगभग पानी फेरता हूं। तब भी नहीं समझते तुम / तो मैं उलझ जाता हूं / लगता है जैसे / नाहक अरण्य में गाता हूं। / और चुप हो जाता हूं फिर / लजा कर / अपनी वाणी को इस तरह / स्वर से सजा कर।‘

यह कविता कहना क्या चाहती है? संभवतः एक साथ कई बातें। पहली बात वाणी की ज़रूरत बताती है। हम जो करते हैं, वह पर्याप्त नहीं होता, उसे कहना भी पड़ता है। लेकिन ठीक इसके बाद कहने की सीमा सामने आ जाती है। जो किया जाता है, उसको कहना क्या उस पर पानी फेरने जैसा है? एक तीसरी बात भी है। कवि ने कह तो दिया, लेकिन उसे समझने या ठीक-ठीक उन्हीं आशयों में ग्रहण करने वाला कोई नहीं है। यह बात कवि को संकोच में डालती है- क्या हुआ वाणी को स्वरों में सजा कर।

तो खेल यह है। कविता में कहना ज़रूरी भी है और कहने की सीमा समझना भी। भवानी प्रसाद मिश्र ने इस कविता में जिस एक बात की ओर इशारा नहीं किया, वह यह है कि बात किस तरह कही जाए कि सुनने-पढ़ने वालों तक सीधे पहुंचे। लेकिन यहां उनकी दूसरी कविता काम में आती है। ‘कवि’ नाम की इस कविता में वे कवि को संबोधित करते हुए कहते हैं- ‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख / और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।‘

हालांकि जिस तरह बोला जाता है, उस तरह लिखना आसान नहीं होता- यह सरल लगता है, लेकिन बहुत जटिल होता है। कवि को इस सरलता के भीतर नए अर्थों का संधान करना पड़ता है। शब्दों को मांजना पड़ता है। एक अन्य कविता में वे लिखते हैं- ‘नए अर्थ की प्यास में डूब गया शब्द / मन का गोताखोर डूब गया उभर कर / भंवर के अविश्वास में।‘

ऐसी कविताएं और भी हैं। जो भीतर है, उसको बाहर से जोड़ने का इसरार करती हुई, पुराने दिनों को नए सिरे से याद करने का जतन करती हुई, शब्दों, अर्थों, कविता के उद्देश्यों और लक्ष्यों पर विचार करती हुई। उनको पढ़ते हुए समझ में आता है कि कविता लिखना कितनी ईमानदारी और गहराई से अपने को खंगालना है, अपने शब्दों और अपने मौन को समझना-साधना और फिर कविता में बाँधना है।

कविता अंततः जिस रसायन से बनती है, उसे बहुत सावधानी से तैयार करना पड़ता है। बेशक, यह बात सारी रचना-विधाओं के लिए सच हो सकती है। मगर लिखने से पहले सबसे जरूरी है लिखने की इच्छा होना, लिखने की जरूरत महसूस करना। कई बार यह बहुत स्पष्ट होता है कि आप क्यों लिखना चाहते हैं, लेकिन कई बार भीतर कोई चीज उमडती-घुमड़ती रहती है, वह एक बेचैनी पैदा करती है, एक अकुलाहट भरती है, लेकिन पकड़ में नहीं आती कि क्या कहना है। यहाँ कवि और कविता की चुनौती कुछ बड़ी होती है। चुनौती वहाँ भी होती है जहां बहुत स्पष्ट हो कि क्या लिखा जाना है। क्योंकि जो स्पष्ट है, उसके सपाट होने का खतरा है, जो बहुत चमकता हुआ है, उसके दूसरों तक पहुँचते-पहुँचते अपनी चमक खो देने का खतरा है। इसलिए यहां भी यह देखना ज़रूरी है कि जो लिखा जा रहा है, वह संप्रेषित हो रहा है या नहीं।

लेकिन कविता महज हथियार नहीं होती कि ठीक निशाने पर जाकर लगे और उसका काम ख़त्म हो जाए। उसमें जो बहुलार्थता होती है, वह एक हद के बाद उसे पाठक और पाठ के लिए स्वतंत्र छोड़ देती है। इस क्रम में संभव है कि कविता के आगे खुद कवि वेध्य साबित हो। उसकी कविता उसी से हिसाब मांगने लगे कि ‘अब तक किया क्या, जीवन जिया क्या।‘ फिर इस उत्तर-आधुनिक समय में हर कोई रचना के अपने पाठ के लिए स्वतंत्र है। हालांकि यह प्रक्रिया भी बिल्कुल नई नहीं है, लेकिन उत्तर संरचनावादी आलोचना वृत्त में इसे लगभग एक स्थापित मान्यता का दर्जा हासिल है। ऐसे में कविता के शिल्प की चुनौती कुछ और बड़ी हो जाती है। कहने और न कहने के बीच का, और कहते रहने के बेमानीपन का अंतर समझना पड़ता है। कवि मनमोहन के संग्रह ‘ज़िल्लत की रोटी’ में एक बड़ी छोटी सी कविता है- ‘आसानियां और मुश्किलें’- जिसमें वे कहते हैं- ‘न कहना आसान है / और कहना मुश्किल / लेकिन कहते चले जाना / न कहने जैसा है / और काफ़ी आसान है / इसी तरह न रहना आसान है / और रहना मुश्किल / लेकिन रहते चले जाना / न रहने जैसा है / और काफ़ी आसान है / चाहें तो सहने के बारे में भी / ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है।‘

तो कविता ऐसे बनती है- कहने और न कहने, रहने और न रहने और सहने और न सहने और कहते-रहते-सहते चले जाने के अंतर को समझती हुई

.

Show More

प्रियदर्शन

लेखक प्रसिद्ध कथाकार और पत्रकार हैं। सम्पर्क +919811901398, priydarshan.parag@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x