- निवेदिता
यह कहना मुश्किल है कि बिहार के बालिका गृह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले के बावजूद बच्चियों को न्याय मिल पायेगा। जिस अपराध में सरकार और सरकारी मिशनरी ही शामिल हो उससे न्याय की उम्मीद हम कैसे कर सकते हैं। मेरे द्धारा दायर पीटिशन के बाद उच्यतम न्यायालय ने पटना के 16 शेल्टर होम की जांच सीबीआई को सौप दी है। पर अभी तक सीबीआई ने अपने अधीन नहीं लिया है। फिलहाल सीबीआई मुजफ्फरपुर शेल्टर होम की जांच में लगी है।
शर्मनाक तो यह है कि अनाथ और बेसहारा बच्चियों पर हुई भयानक हिंसा की खबर को लिखने पर पटना हाई कोर्ट ने इस नाम पर पावंदी लगा दी थी की इससे जांच प्रभावित होगी। अगर मैंने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर नहीं दी होती तो अखबारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर ही अंकुश लगा रहता। हैरानी इस बात से है कि कोर्ट के इस पावंदी के खिलाफ किसी मीडिया संस्थान ने कोई आवाज नहीं उठाई। इस दौर की मीडिया से शायद हम कोई उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए मुझे पटना हाईकोर्ट में ’व्लैनकेट बैंड’ ठसंदामज इंद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन दायर करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ पावंदी को खारिज किया बल्कि पूरे मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होगी ये फैसला लिया। मुझे खुशी है कि कम से कम बच्चियों के लिए न्याय का रास्ता तो खुला और अखबारों की आजादी पर से अंकुश हटा।
बालिका अल्पावास गृह की 44 लड़कियों में से 34 लड़कियां के साथ बलात्कार की पुष्टि हो चुकी है। तीन लड़कियां गर्भवती हैं। दो लड़कियां बीमार हैं जिसकी वजह से उनका मेडिकल जांच नहीं हो पाया है। गर्भवती लड़कियों को लेकर दो अलग-अलग रिपोर्ट है। पटना सिटी के गुरु गोबिंद सिंह अस्पताल की रिपोर्ट में इन लड़कियों के गर्भवती होने की पुष्टि की है,पर पीएमसीएच के मेडिकल बोर्ड द्धारा दी गयी रिपोर्ट में इसकी पुष्टि नहीं हुई है। ब्रजेश के सुधार गृह से 11 लड़कियां लापता हैं। मुजफ्फरपुर बालिका गृह का मामला अब सीबीआई को सौपा जा चुका हैं। पर ये भरोसा बनता नहीं है कि उन बच्चियों को न्याय मिल पायेगा।
महिला संगठनों की लगातार मांग थी कि मुजफ्फरपुर समेत तमाम बाल गृहों और आश्रय गृहों की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई करे। मेरे द्धारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महिला संगठनों के संघर्ष की जीत है। पहली बार इस मामले को लेकर पटना की सभी महिला संगठनों ने प्रदर्शन किया था। उनके प्रदर्शन को किसी स्थानीय अखबार ने नोटिस नहीं लिया। इतनी भयानक खबरों पर अखबार की चुप्पी कोई साधरण चुप्पी नहीं है। इसके पीछे पूरा तंत्र है। अखबारों की भूमिका पर पहले भी सवाल खड़े होते रहे हैं,पर इसबार अखबारों की भूमिका पर भी संदेह है। क्योंकि बालिका गृह को चलाने वाला ब्रजेश ठाकुर भी पत्रकार रहा है। पत्रकारिता को शर्मशार करने की कहानी लंबी है और इसकी शुरुआत उसके पिता के समय से हुई ।
एक शिक्षक से अखबार के मालिक होने और करोड़ों रुपए की कमाई के पीछे किन लोगों की सांठ-गांठ थी ये अब धीरे-धीरे खुल रहा है । ‘विमल वाणी’ नाम के अखबार चलाने वाले ब्रजेश ठाकुर के पिता राधमोहन ठाकुर मुजफ्फरपुर के हरिसभा के निकट कल्याणी स्कूल के टीचर थे। एक टीचर ने कुछ ही सालों में अपने अखबार के माध्यम से खूब सरकारी विज्ञापन बटोरा। अपने पिता के रास्ते पर चलते हुए ब्रजेश ठाकुर ने प्रातः कमल निकलना शुरु किया। अखबार की आड़ में सारे काले कारनामें किए। जिन तीन अखबारों के लिए प्रातः कमल, अंग्रेजी अखबार न्यूज नैक्स्ट, उर्दू अखबार हालात-ए-बिहार के लिए ब्रजेश ठाकुर को लाखों रुपए के विज्ञापन मिलते थे उस विभाग के मंत्री खुद नीतीश कुमार हैं। इसमें उनके प्रधान सचिव अतीश चंद्रा का भी नाम शामिल है। इस विभाग की जो गवर्निंग बॉडी है, उसमें आउट सोर्सिग एजेंसियों के संचालक भी शामिल हैं। इन दो एजेंसियों में से एक संध भाजपा का एनजीओ भी शामिल है। जिसके पास मुख्यमंत्री के बयानों और कार्यक्रमों की खबरों के प्रसारण का जिम्मा है।
करोड़ों का साम्राज्य खड़ा करने वाला ब्रजेश ठाकुर ने ‘सेवा संकल्प और विकास समिति’ के नाम से 8 अप्रैल 1987 अपनी संस्था का अनुबंध कराया। नियम ये है कि ऐसी समिति में परिवार का एक ही सदस्य हो सकता है पर उसके पुत्र राहुल आनंद सहित कई रिश्तेदार शामिल हैं। यहीं से सत्ता, पैसा और बच्चियों की देह को बेचने का कारोबार शुरु हुआ। ब्रजेश ठाकुर की राजनीतिज्ञों के बीच गहरी पैठ थी। आनंद मोहन की पार्टी से उन्होंने 1995 विधान सभा का चुनाव लड़ा। आनंद मोहन से लेकर राजद, जदयू और भाजपा के नेताओं से इसकी गहरी सांठ-गांठ की बात खुल रही है।
आंकड़े बताते हैं कि हर रोज महिलाओं पर की जा रही हिंसा में इजाफा हो रहा है। निर्भया कांड के बाद जब पूरा देश आंदोलित था तो उम्मीद थी कि जुल्म की रात खत्म होगी। जस्टीस वर्मा कमिटी के कई महत्वपूर्ण सुझाव को सरकार ने माना भी है। पर सच ये है कि जैसे -जैसे कानून सख्त हुए महिलाओं पर हिंसा तेज हुई। अब तो छोटी बच्चियां निशाने पर हैं।
इस जधन्य और अमानवीय घटना की जिम्मेदारी को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं उसका जबाव तो भाजपा और नीतीश की सरकार को देना ही होगा। पिछले 1 फरवरी 2018 में सरकार को टीआईएसएस की रिपोर्ट मिल गयी थी। तब मई के अंत तक कार्रवाई और एफआईआर के लिए इंतजार क्यों किया गया? 28 मई को एफआइ्र्रआर दर्ज होने के बाद वहां रहने वाली लड़कियों को अलग-अलग जिलों में भेज दिया गया। उनके बयान लेने और जांच में काफी समय लगाया गया। जिस बालिका गृह में 44 में से 34 लड़कियों के बलात्कार की पुष्टि हुई यह कैसे संभव है कि वहां हर महीने जांच के लिए जाने वाले एडिशनल जिला जज दौरे के बाद भी मामला सामने नहीं आया? बालिका गृह के रजिस्टर में दर्ज है कि न्यायायिक अधिकारी भी आते थे और समाज कल्याण विभाग के अधिकारी के लिए भी सप्ताह में एक दिन आना अनिवार्य था। जबकि बालिका गृह के लिए पूरा नियम बना हुआ है। जिसमें समाज कल्याण विभाग के पांच अधिकारी होते हैं, वकील होते हैं,सामाजिक कार्य से जुड़े लोग होते हैं। इतने लोगों की निगरानी के बावजूद 34 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ। क्या ब्रजेश ठाकुर को 12 एनजीओ चलाने की इजाजत उच्च स्तर के मिली भगत के बगैर संभव है ? समाज कल्याण मंत्रालय की मंत्री उनके पति और कल्याण विभाग के सचिव की इसमें क्या भूमिका है, इसका राज खुल गया है। पर सत्ता उसे बचाने में लगी है। ये अंदेशा है कि जैसे जैसे जांच होगी इसमें कई वैसे लोगों का मामला सामने आयेगा जो सत्ता से जुड़े हैं। अभी तो जांच के घेरे में कमजोर लोग आयें हैं। असली गुनाहगार बचे हुए हैं। जब पूरा तंत्र ही बलात्कारी हो तो न्याय की उम्मीद किस से करें।
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं’ जैसे जुमले और दहेज के खिलाफ बिहार में नयी मुहीम चलाने वाली नीतीष सरकार के राज्य की बेटिया जिंदा लाश हैं। इस से भयावह क्या होगा कि 7 वर्ष से लेकर 15 वर्ष की बच्चियों का सरकारी संरक्षण में बलात्कार किया गया हो। नीतीश कुमार के लिए अब यह मामला आसान नहीं है। आने वाले चुनाव में ये सवाल उनके लिए गहरी खायी खोद सकती है। भाजपा के तार भी इस घटना से जुड़े हैं। समाज कल्याण विभाग की मंत्री मंजू वर्मा , उनके पति और नगर विकास मंत्री सुरेश शर्मा का ब्रजेश ठाकुर के साथ गहरे संबंध के खुलासे हुए हैं। ब्रजेश ठाकुर की पत्नी के बयान के मुताबिक मंजू वर्मा के पति मुजफ्फपुर बालिका गृह में आया-जाया करते थे।
बिहार सरकार की राह आसान नहीं है। विपक्ष इस मुद्दे पर लगातार घेर रही है। नीतीश सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है। इन तमाम बहसों और राजनीतिक शोर के बीच क्या हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि जिन 29 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ उन्हें न्याय मिल पायेगा? उनमें से अभी कितनी बच्चियां सुरक्षित हैं ये कोई नहीं जानता। वे किस हाल में हैं? मीडिया में उनकी कोई उनकी खबर नहीं है।
जब पूरी दुनिया में हमारा मुल्क महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित जगह घोषित हो वैसे देश की गरीब और अनाथ बच्चियों के लिए कौन सोचता है! जिन्हें सिगरेट से जलाया गया, रॉड से पीटा गया, नींद की गोलियां देकर बलात्कार किया गया। गर्म लोहे से दागा गया। फिर भी वे जिंदा हैं। इस दागदार दुनिया के बावजूद कुछ उम्मीदें बचीं हैं। हम कामना करें अक्षम्य बर्बरता और असमानताओं के हम कभी आदि ना हों । घोर दुखों के बीच ख़ुशी के अंकुर तलाश लें। लजाते सौन्दर्य का उसकी खोह तक पीछा करें, और सबसे अहम है न्याय के लिए उम्मीद बनी रहें।
लेखिका संस्कृतिकर्मी और स्वतन्त्र पत्रकार हैं|
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