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आरक्षण की विडम्बना

  • राणा यशवंत की facebook से साभार

साव जी की चाय-पकौड़े की दुकान पर पांडे जी का बेटा ग्राहकों की सेवा करता है, प्लेट-ग्लास भी धोता है. मैं बर्षों से यह देख रहा हूं. गांव में मेहनत-मजूरी की लाज से बचने के लिए कई नौजवान सूरत जाकर वहां की कपड़ा मिलों में बोझा ढोते हैं. पिछले 15-20 साल से यह आबादी बढती ही गई है. घर पर मां-बाप ठीक से खा-पी सकें, इलाज के पैसे रहें – इसके लिए देश के कई शहरों में अगड़ी जाति के लड़के देह पीटते रहते हैं. जिन साव जी की दुकान पर पांडे जी का बेटा बर्तन धोता है- वे आरक्षण कोटे में आते हैं लेकिन वो बर्तन साफ करनेवाला नहीं. यही विडंबना है आरक्षण की. इस देश की राजनीति ने समाज का नाश किया है. संविधान ने सामाजिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़े वर्ग को मजबूत करने के लिए आरक्षण की हिमायत की कई है तो उस वर्ग में जाति को ढूंसने को किसने कहा? क्लास का नाम देकर कास्ट को उसमें रख दिया गया. इस आधार पर आपने देश की एक बड़ी आबादी के साथ नाइंसाफी की जो गरीब, कमजोर औऱ जरुरतमंद थी लेकिन अगड़ी जाति की थी. आज आप कहते हैं कि अगड़ों को 10 फीसदी आरक्षण देने से उनकी आबादी के 60 फीसदी को फायदा पहुंचेगा. ये आबादी क्या पहले इस तरह की मदद के लायक नहीं थी? जाति के आधार पर आरक्षण देकर किसको फायदा पहुंचाया गया? पिछड़ी जाति के मजबूत तबके को. आज भी एक बड़ा जरुरतमंद हिस्सा आरक्षण के दायरे में आकर भी उसका फायदा नहीं उठा पा रहा है. यह अवसर की समानता के उस मूल अधिकार को ध्वस्त करता है जहां से आरक्षण की नीति पैदा हुई. औऱ यही अगड़ी जाति के गरीब-मजलूम लोगों के अधिकारों का अपहरण भी करता है, जिनको आगे बढाने के लिए राज्य की तरफ से मदद मिलनी चाहिए थी. लेकिन वो गरीब थोड़े है, वो तो अगड़ी जाति के है! हम नागरिक की हैसियत से इस देश में नहीं, अपनी माली हैसियत और हालात के साथ नहीं- हम अपनी जाति के साथ खड़े हैं. हमारी यही पहचान है, हमें इसी आधार पर देश की राजनीति और सत्ता में देखा जाता है.

इसका अंदाजा आजादी के बाद के नेताओं को रहा था. यही वजह है कि नेहरु सरकार के तहत जब पहला पिछड़ा वर्ग आयोग काका कालेलकर की अगुआई में बना तो खुद कालेलकर साहब ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर ये कहा था कि जाति के आधार पर आरक्षण देश में जातीय संघर्ष का मुद्दा बन जाएगा- इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए. प्रधानमंत्री नेहरु ने देश के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखकर आरक्षण पर अपनी राय जाहिर की थी और कहा था कि मैं जाति के आधार पर आरक्षण के खिलाफ हूं. जब संविधान सभा की आखिरी बैठक चल रही थी औऱ बाबा साहेब समापन भाषण दे रहे थे तो उन्होंने सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी को खत्म करने को राष्ट्रीय एजेंडे के तौर पर रखा. 26 जनवरी 1950 को जब देश को संविधान सौंपा गया तो बाबा साहेब ने कहा था कि हम सबसे अच्छा संविधान लिख सकते हैं, लेकिन उसकी कामयाबी आखिरकार उनलोगों पर निर्भर करेगी, जो देश चलाएंगे. इस देश को चलानेवालों ने नागरिक को जाति के रुप में देखा, जाति को वोट के तौर पर और नतीजा ये कि वोट के लिहाज से कमजोर जातियों के जरुरतमंद लोग धकिया-लतिया दिए गए.

देश के नागरिक के नाते सोचिएगा कि एक लड़का जो 80 फीसदी अंक लाकर भी नौकरी नहीं ले पाता और दूसरा 30 फीसदी लाकर नौकरी पा जाता है- क्या ये सही है? जबकि पहले वाले को नौकरी की जरुरत ज्यादा है. वह खाली हाथ इसलिए रह जाता है, क्योंकि वह उस जाति से नहीं जो आरक्षण के दायरे में है. पिछले साल टीना डाबी ने जब आईएएस टॉप किया था तो बवाल खडा हुआ था. टीना के माता-पिता भारत सरकार की इंजीनियरिंग सेवा में है और वे आरक्षण के दायरे में थीं. टीना ने प्रीलिम्स की परीक्षा कोटे के तहत ही निकाली थी.आखिर उनको आरक्षण की क्या जरुरत थी? इसतरह के भेदभाव से समाज के टकराव और आक्रोश दोनों बढेंगे और संविधान अपनी मूल भावना से दूर होता चला जाएगा. 1970 में देश के प्रसिद्द बुद्दिजीवी औऱ राजनयिक आबिद हुसैन साहब ने कहा था कि प्रतिभा के नष्ट होने से बेहतर है कि वह पलायन कर जाए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था. बाबा साहेब ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये 22 फीसदी आरक्षण पर हामी भी सिर्फ दस साल के लिए भरी और माना कि सन 1960 में इसे खत्म कर दिया जाए. वो मानते थे कि कमजोर तबके के विकास के लिए आरक्षण वैसाखी है, एक वक्त से ज्यादा इसकी मदद नहीं देनी चाहिए. लेकिन आरक्षण की मियाद ना सिर्फ बढती रही बल्कि वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर पिछड़ी जातियों के लिये 27 फीसदी का आरक्षण और जोड़ दिया. यह मियाद बढते-बढते 2020 तक चली गई है औऱ जाहिर है मौजूदा राजनीति में यह आगे बढती ही जाएगी. अब आपको अगड़ों को आरक्षण देना है तो संविधान में संशोधन करेंगे, 50 फीसदी के आरक्षण के कोटे से बाहर जाते ही सुप्रीम कोर्ट खारिज कर देगा, तो बचने के लिये संवैधानिक व्यवस्था करेंगे. मगर उससे क्या होगा? नौकरियां कहां हैं? चपरासी के पद के लिये पीएचडी और एमए, एमबीए किए हुए लोग आवेदन करते हैं. देश में काम करनेवाले कुल लोगों का 4 फीसदी भी सरकारी नौकरी नहीं कर रहा. तो फिर? दावत पर 10 की जगह 20 को बुला लिया लेकिन खाना उतना ही है तो क्या मतलब. लोग फिर पूछेंगे ही कि मंशा क्या है? चुनाव आ रहे हैं- ये सवाल अपना जवाब लिए खड़ा है.

 

लेखक इंडिया न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर हैं|

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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