कितना डरते हैं अन्यायी शासक
- यादवेन्द्र
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से बिहार से लाखों की संख्या में गरीब खेतिहर किसानों, मजदूरों और बेरोजगार पुरुषों और स्त्रियों को मामूली कर्जों की शर्तों में बाँध कर और खुशहाल व इज्जतदार जिन्दगी का सपना दिखा कर ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन रहे कैरीबियन देशों में ले जाने के सिलसिले का अध्ययन करते हुए मुझे कई ऐसे प्रसंग मिले जिनमें मजदूरों के विद्रोह की चिंगारी छुपी हुई दिखी – अंग्रेज शासक इनको बगावती प्रवृत्ति (म्यूटिनस ऐटिच्यूड) कहते थे। ऐसा ही एक दिलचस्प प्रसंग यहाँ प्रस्तुत है :
1862 में सैकड़ों भारतीय मजदूरों को लेकर “क्लास्मेर्डन” नामक जहाज कोलकाता से डेमेरारा (गुयाना) जा रहा था, उसके जो लिखित विवरण उपलब्ध हैं वे “बगावत के खतरे “(थ्रेट ऑफ़ म्यूटिनी) की बात करते हैं। अँग्रेज शासकों ने उसकी छानबीन के लिए बाकायदा जाँच कमेटी बैठाई गई – उस जाँच में एक-एक व्यक्ति का वक्तव्य लिया गया, उस वक्तव्य को उनसे सर्टिफाई करवाया गया और उसमें जो चीजें निकल कर सामने आयीं वे आँखें खोलने वाली हैं…. कि बीच समुद्र में सैकड़ों भारतीय मजदूरों के बगावत की संभावना जहाज के कप्तान के सिर पर इतनी हावी हो गई थी कि जहाज को निर्धारित मार्ग बदल कर ब्राज़ील के एक बंदरगाह पर रोकना पड़ा, अतिरिक्त व्यक्तियों को जहाज पर चढ़ाना पड़ा, गोला बारूद और हथियार भी लादना पड़ा। पर पूरी यात्रा निर्विघ्न निबट गई, कहीं कुछ हुआ नहीं। इस यात्रा से संबंधित जो विवरण उपलब्ध हैं उसमें भारतीय मजदूरों की आपस की बातचीत का हवाला दिया गया है जिसमें उन्होंने रात के 12:00 बजे चालक दल और जहाज पर मौजूद गोरों को पकड़ लेने या समुद्र में फेंक देने की बात कानाफूसी के तौर पर कथित तौर पर कही थी। जाँच में कुछ चाकू, कुछ पत्थर, कुछ लकड़ी के टुकड़े, कुछ कीलें यह सब बरामद होने की बात रिकॉर्ड की जाती है लेकिन वास्तव में विद्रोह हुआ नहीं। भारतीय मजदूरों को कोलकाता से डेमेरारा के लिए ले जाने की निगरानी के लिए नियुक्त एजेंट हंट मैरियट ने बंगाल के गवर्नर को इस सिलसिले में जो चिट्ठी लिखी उसमें उसने सारा दारोमदार जहाज पर सवार पच्चीस तीस वैसे मजदूरों पर डाल दिया “जिनके कारनामों को देख कर लगता था कि वे मिलिट्री ट्रेनिंग लिए हुए हैं (सीधा इशारा 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के विद्रोही सैनिकों की ओर था) और वे अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाली सैनिक टुकड़ियों के हिस्सा हो सकते हैं। “कुछ अन्य दस्तावेज इस घटना के पीछे उन यात्रियों का रोष बताते हैं जिन्हें उनकी मर्जी के विरुद्ध जबरन जहाज पर चढ़ा दिया गया … यात्रा में जितना समय लगने के बारे में उन्हें बताया गया था उससे बहुत ज्यादा समय लग रहा था।
जब भी कोई अपने वैध अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर किसी समाज पर कब्जा करता है, अनैतिक ढंग से शासन करता है…. या हमारे बीच का ही कोई आदमी या समूह नियमों को तोड़ फोड़ कर अपने हितों के लिए गलत ढ़ंग या बहुमत का नाम दे कर सत्ता पर काबिज होता है तो अपार दिखने वाले बहुमत के रहते हुए भी उसके मन में इसी तरह की आशंकाएँ हमेशा बनी रहती हैं। इन आशंकाओं का आधार ही यह होता है कि वास्तविकता यह है कि सभी लोग जो समर्थन में गला फाड़ते और झण्डे फहराते दिखाई दे रहे होते हैं वह उनका एकमात्र और अविभाजित अखण्ड पक्ष नहीं होता। समाज का अच्छा खासा हिस्सा जरूर अस्तित्व में होता है जो ऊपर से देखने पर भले ही दिखाई न दे रहा हो, निष्क्रिय लग रहा हो लेकिन वह अन्दर ही अन्दर उनकी अनैतिक सत्ता के विरोध में होता है और जैसे ही आपस में कुछ लोग मिलते हैं, एक दूसरे के साथ संवाद करते हैं शासकों के कान खड़े होने लगते हैं… वे इस तरह के संवादों को तत्काल प्रभाव से खण्डित कर देना चाहते हैं। उनको यह लगता है कि जहाँ एक से दो मिले, दो से चार मिले और उनकी बातें वर्तमान स्थितियों पर हुईं तो उनका प्रतिरोध संगठित हो कर बगावत के रूप में सामने आ सकता है सो इस कली को फूल बनने से पहले कुचल डालना जरूरी है।
मुझे यह प्रसंग पढ़ते हुए इस संदर्भ में अपने विद्यार्थी जीवन में दशकों पहले पढ़े अमृतराय के किए हुए ब्रेख्त के एक नाटकों के संकलन की याद आई जिसका शीर्षक था ” खौफ़ की परछाइयां”। मुझे जहाँ तक याद पड़ रहा है अमृत राय ने अपने प्रकाशन हंस प्रकाशन से ब्रेख्त के छः सात छोटे नाटकों का एक संकलन यह कहते हुए निकाला था कि हिटलर दरअसल मरा नहीं अब भी अमेरिकी युद्धोन्माद के साथ जिंदा है जो आपसी अविश्वास और खौफ़ की जमीन पर खड़ा है। और नाटक इस वक्त मुझे याद नहीं आ रहे, एक नाटक (घर का भेदी) मुझे अब भी याद है और खासतौर पर जहाज पर संभावित बगावत के दस्तावेजों को पढ़ते हुए एकदम से याद आया जिसमें नाजी हिटलर के जमाने में इसी तरह की दमन,प्रताड़ना और विश्वासघात की आशंकाएँ कितनी प्रबल थीं इसका चित्रण है। इस नाटक में माँ-बाप घर के अन्दर आपस में बात करते हुए भी निरन्तर चौकन्ने रहते हैं कि उनका बेटा उनकी बातें सुन रहा है वह नाजी सरकार का एक मुखबिर हो सकता है। बाहर बरसात हो रही है, वे जोर देकर उसे बाहर भेजते हैं थोड़ी देर के लिए – नाटक घर से बाहर निकले बेटे की अनुपस्थिति में माँ बाप की बेचैनी, घबराहट और डर को इस गहनता के साथ दिखलाता है कि दर्शक/पाठक अपने घर के अन्दर बैठे-बैठे खौफ खा जाए…. उन्हें लगता है कि अभी वे घर की चहारदीवारी के अन्दर जो बातें कर रहे थे जिसमें कोई कितना भी बचे, देश के वर्तमान मुद्दों जैसे महंगाई और अखबारों में छपने वाले सरकारी झूठ के बारे में वे जो बातें कर रहे हैं वह नाजियों का अन्ध भक्त बेटा सुन रहा है और जब बाहर निकला है तो वह बाहर शासन के नुमाइंदों को बता कर आएगा कि अन्दर माँ-बाप क्या बातें कर रहे हैं। वे दोनों निरन्तर इस बात से डरे हुए हैं और बार बार यह कल्पना करते हैं कि बाहर जाकर बेटा क्या क्या कर रहा है और जब लौट के घर आता है, दरवाजे पर दस्तक देता है उनको इतनी घबराहट होती है कि उनमें से कोई भी दरवाजा खोलने तक नहीं जाते।वे एक दूसरे के साथ डर के मारे चिपके खड़े रहते हैं – पता नहीं दरवाजे से कौन अन्दर आएगा : बेटा आएगा? या कोई और आएगा जो उन्हें पकड़ कर ले जाएगा क्योंकि वे महंगाई के बातें कर रहे थे जो सरकार की नीतियों के खिलाफ जाती है? पति अपने बेटे को घर का भेदी कहता है और पत्नी को ताने देता है कि अपनी कोख से विभीषण को क्यों पैदा किया। पत्नी कबूल करती है कि बेटे ने उन्हें आपस में बात करते जो जो सुना उसको लेकर बहुत परेशान है – ‘बेटे को हर चीज की रिपोर्ट करने को कहा जाता है।’
घर के अन्दर भी डर और बाहर भी उतना ही डर – और वह डर किसी अपरिचित या गैर से नहीं बल्कि अपने बेटे से।